ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 6
From जैनकोष
पृथिवीतल से सात सौ नब्बे योजन ऊपर चलकर आकाश में सबसे नीचे तारा स्थित है ॥1॥ और पृथिवी तल से नौ सौ योजन ऊपर चलकर आकाश में सबसे ऊपर ज्योतिष्पटल स्थित है । भावार्थ― आकाश में ज्योतिष्पटल सात सौ नब्बे योजन की ऊंचाई में शुरू होकर नौ सौ योजन तक है ॥2॥ यह ज्योतिष्पटल एक सौ दस योजन मोटा है तथा आकाश में घनोदधिवातवलय पर्यंत सब ओर फैला है ॥3॥ ताराओं के पटल से दस योजन ऊपर जाकर सूर्यों का पटल है और उससे अस्सी योजन ऊपर जाकर चंद्रमाओं का पटल है ।। 4॥ उससे चार योजन ऊपर जाकर नक्षत्रों का पटल है और उससे चार योजन ऊपर चलकर बुध का पटल है ।। 5 ।। उससे तीन-तीन योजन ऊपर चलकर क्रम से शुक्र, गुरु, मंगल और शनैश्चर ग्रहों के पटल हैं ॥6॥ सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र, ग्रह और तारा ये पांच प्रकार के ज्योतिर्विमान हैं । इनमें रहने वाले देव भी इन्हीं के समान नाम वाले हैं तथा इन्हीं के समान पाँच प्रकार के हैं ।। 7 ।।
इनमें चंद्र एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य तक सूर्य एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य तक, शुक्र सो वर्ष अधिक एक पल्य तक, बृहस्पति पौन पल्य तक, मंगल, बुध और शनैश्चर आधा पल्य तक और तारा चौथाई पल्य तक, जीवित रहते हैं । यह सबकी उत्कृष्ट आयु है । जघन्य आयु पल्य के आठवें भाग प्रमाण है ।। 8-9।। बुद्धि द्वारा योजन के जो इकसठ भाग किये जाते हैं उनमें छप्पन भाग प्रमाण चंद्र मंडल का विस्तार है ॥10॥ और अड़तालीस भाग प्रमाण सूर्य का विस्तार है । शुक्र का विस्तार एक कोश, बृहस्पति का कुछ कम एक कोश, और शेष समस्त ग्रहों का विस्तार आधा कोश प्रमाण है । जघन्य तारा मंडल पाव कोश, मध्यम तारा मंडल कुछ अधिक पाव कोश और उत्कृष्ट तारामंडल आधा कोश विस्तृत है ॥11-13॥ ताराओं का जघन्य अंतर कोश का सातवां, मध्यम अंतर पचास योजन और उत्कृष्ट अंतर एक हजार योजन है ॥14।। सूर्य के विमान लोहिताक्ष मणि के हैं, अर्ध गोलक के समान गोल तथा तपाये हुए सुवर्ण के समान सुशोभित हैं ॥15॥ चंद्रमा के विमान स्फटिक मणिमय हैं, मृणाल के समान सफेद हैं तथा कांति के समूह से युक्त होने के कारण अत्यंत सुशोभित हैं ॥16 ।। राहु के विमान अरिष्ट मणिमय हैं, अंजन की राशि के समान श्याम हैं तथा चंद्रमा और सूर्य विमान के नीचे स्थित हैं ॥17॥
राहु के विमान एक योजन चौड़े, एक योजन लंबे, तथा ढाई सौ धनुष मोटे हैं ।। 18 ।। शुक्र के विमान रजतमय हैं, अपनी कांति से नूतन मालती की माला को जीतते हैं तथा सब ओर से प्रकाशमान हैं ॥19॥ जिनकी आभा उत्तम मुक्ताफल के समान है, ऐसे बृहस्पति के विमान स्फटिक मणि सदृश कांति से सुशोभित हैं । बुध के विमान सुवर्णमय हैं, शनैश्चर के विमान तप्त स्वर्णमय हैं, और अंगारक-मंगल के विमान लोहिताक्ष मणिमय हैं ॥20-21॥ यह वर्णों को विविधरूपता ज्योतिर्लोक गत विमानों की है किंतु अरुण समुद्र के ऊपर जो ज्योतिर्विमान हैं उनका केवल श्यामवर्ण ही है ॥22॥
ज्योतिर्विमानों के उदय और अस्त की व्यवस्था मानुषोत्तर पर्वत के इसी ओर है उसके आगे के समस्त विमान आकाश में स्थित ही हैं उनमें संचार नहीं होता ॥23॥ मानुषोत्तर पर्वत तक के ज्योतिषी संख्यात हैं और उसके आगे के असंख्यात । उन दोनों प्रकार के ज्योतिषियों के इंद्र, सूर्य और चंद्रमा हैं । संख्यात ज्योतिषियों के इंद्र संख्यात सूर्य चंद्रमा हैं और असंख्यात ज्योतिषियों के इंद्र असंख्यात सूर्य चंद्रमा हैं ॥24॥ उनमें जो गतिशील ज्योतिषी हैं वे ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर हटकर मेरु की प्रदक्षिणा देते हुए भ्रमण करते हैं ।। 25 ।।
जंबू द्वीप में दो सूर्य, दो चंद्रमा, लवण समुद्र में चार सूर्य, चार चंद्रमा, धातकीखंड में बारह सूर्य, बारह चंद्रमा, कालोदधि में बयालीस सूर्य, बयालीस चंद्रमा और पुष्करार्ध में बहत्तर सूर्य और बहत्तर चंद्रमा हैं ॥26-27॥ एक-एक चंद्रमा के छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोड़ा-कोड़ी तारा, अट्ठाईस नक्षत्र और अठासी महाग्रह हैं ।। 28-29॥ मानुषोत्तर के आगे पुष्करार्ध में बहत्तर सूर्य और बहत्तर चंद्रमा हैं, ये सदा निश्चल रहते हैं ॥30॥ मानुषोत्तर पर्वत से पचास हजार योजन आगे चलकर सूर्य, चंद्रमा आदि ज्योतिषी-वलय के रूप में स्थित हैं । भावार्थ-मानुषोत्तर से पचास हजार योजन चलकर ज्योतिषियों का पहला वलय है ।। 31 ।। उसके आगे एक-एक लाख योजन चलकर ज्योतिषियों के वलय हैं । प्रत्येक वलय में चार-चार सूर्य और चार-चार चंद्रमा अधिक हैं एवं एक दूसरे की किरणें निरंतर परस्पर में मिली हुई हैं ॥32 ।।
धातकीखंड आदि द्वीप समुद्रों में सूर्य-चंद्रमा क्रम से तिगुने-तिगुने हैं । विशेषता यह है कि उनमें पिछले द्वीप-समुद्रों के सूर्य-चंद्रमाओं की संख्या भी मिलानी पड़ती है जैसे, कालोदधि समुद्र के सूर्य-चंद्रमाओं की संख्या बयालीस है, वह इस प्रकार निकलती है-कालोदधि से पिछला द्वीप धातकीखंड है इसके सूर्य चंद्रमाओं की संख्या बारह है, इससे तिगुनी संख्या छत्तीस हुई, उसमें लवण समुद्र तथा जंबूद्वीप के सूर्य-चंद्रमाओं की छह संख्या जोड़ देने से कालोदधि के सूर्य-चंद्रमाओं की संख्या बयालीस निकल आती है । पुष्करवर द्वीप के मानुषोत्तर तक बहत्तर और उसके आगे बहत्तर दोनों मिलाकर एक सौ चवालीस सूर्य-चंद्रमा हैं । उनके निकालने को विधि यह है कि पुष्कर द्वीप से पूर्ववर्ती कालोदधि की संख्या बयालीस को तिगुना किया तो एक सौ छब्बीस हुए, उनमें कालोदधि के बारह, लवण समुद्र के चार और जंबूद्वीप के दो इस प्रकार अठारह और मिलाये जिससे एक सौ चवालीस सिद्ध हुए । इसी प्रकार आगे-आगे के द्वीप-समुद्रों में जानना चाहिए ॥33॥ इस प्रकार यह ज्योतिर्लोक के विभाग का संक्षेप से वर्णन किया ।
अब ऊर्ध्वलोक के विभाग का संक्षेप से वर्णन किया जाता है ॥34॥
मेरुपर्वत की चूलिका के साथ ऊर्ध्वलोक शुरू होता है अर्थात् चूलिका से ऊपर ऊर्ध्वलोक है । चूलिका के ऊपर-ऊपर स्वर्ग तथा ग्रैवेयक आदि हैं ॥35॥ 1 सौधर्म, 2 ऐशान, 3 सनत्कुमार, 4 माहेंद्र, 5 ब्रह्म, 6 ब्रह्मोत्तर, 7 लांतव, 8 कापिष्ठ, 9 शुक्र, 10 महाशुक्र, 11 शतार, 12 सहस्रार, 13 आनत, 14 प्राणत, 15 आरण और 16 अच्युत ये सोलह कल्प कहे गये हैं । इनकी रचना दक्षिण और उत्तर के भेद से दो-दो के जोड़ के रूप में है ।। 36-38।। उनके ऊपर अधोग्रैवेयक, मध्यग्रैवेयक और उपरिम ग्रैवेयक के भेद से तीन प्रकार के ग्रैवेयक हैं । इन तीनों ग्रैवेयकों के भी आदि, मध्य और ऊर्ध्व के भेद से तीन-तीन भेद होते हैं । इन ग्रैवेयकों के नौ पटल हैं ।। 39।। उसके आगे नौ अनुदिश और अनुदिशों के आगे पाँच अनुत्तर विमान हैं । अनुदिश और अनुत्तर विमानों का एक-एक पटल है । अंत में ईषत्प्राग्भार भूमि है । उसी के अंत तक ऊर्ध्वलोक कहलाता है ॥40॥
स्वर्गों के समस्त विमान चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस हैं ॥41॥ इनमें त्रेसठ पटल और त्रेसठ ही इंद्रक विमान हैं । इंद्रक विमानों का समूह पटलों के मध्य में सर्व रूप से स्थित है ।। 42।। इंद्रक का नाम ऋतु है उसकी चारों दिशाओं में त्रेसठ-वेसठ श्रेणीबद्ध विमान हैं और आगे प्रत्येक इंद्रक में एक-एक विमान कम होता जाता है ।। 43 ।। सौधर्म और ऐशान नामक प्रारंभ के दो स्वर्गों में 1 ऋतु, 2 विमल, 3 चंद्र, 4 वल्गु, 5 वीर, 6 अरुण, 7 नंदन, 8 नलिन, 9 कांचन, 10 रोहित, 11 चंचल, 12 मारुत, 13 ऋद्धीश, 14 वैडूर्य, 15 रुचक, 16 रुचिर, 17 अर्क, 18 स्फटिक, 19 तपनीयक, 20 मेघ, 21 भद्र, 22 हारिद्र, 23 पद्म, 24 लोहिताक्ष, 25 वज्र, 26 नंद्यावर्त, 27 प्रभंकर, 28 प्रष्टक, 29 जग, 30 मित्र और 31 प्रभा ये इकतीस पटल हैं ।। 44-47।। सानत्कुमार और माहेंद्र कल्प में 1 अंजन, 2 वनमाल, 3 नाग, 4 गरुड़, 5 लांगल, 6 बलभद्र और 7 चक्र ये सात इंद्रक विमान हैं ।। 48।। ब्रह्म लोक में 1 अरिष्ट, 2 देवसंगीत, 3 ब्रह्म और 4 ब्रह्मोत्तर ये चार इंद्रक विमान हैं ॥49।। लांतव में 1 ब्रह्महृदय और 2 लांतव ये दो इंद्रक विमान हैं । महाशुक्र में एक शुक्र, सहस्रार में एक शताख्य, आनत में 1 आनत, 2 प्राणत और3 पुष्पक ये तीन, अच्युत में 1 सानुकार, 2 आरण और 3 अच्युत ये तीन इंद्रक विमान हैं ।। 50-51 ।। अधोग्रैवेयक में 1 सुदर्शन, 2 अमोघ और 3 सुप्रबुद्ध ये तीन, मध्य ग्रैवेयक में 1 यशोधर, 2 सुभद्र और 3 सुविशाल ये तीन और ऊर्ध्व-ग्रैवेयक में 1 सुमन, 2 सौमनस्य और 3 प्रीतिकर ये तीन इंद्रक विमान हैं ।। 52-53 ।। नौ अनुदिशों के मध्य में आदित्य नाम का एक इंद्रक विमान है और पाँच अनुत्तरों में सर्वार्थसिद्धि नाम का एक इंद्रक विमान है ॥54॥ सौधर्म स्वर्ग में बत्तीस लाख, ऐशान में अट्ठाईस लाख, सनत्कुमार में बारह लाख, माहेंद्र में आठ लाख, ब्रह्म-स्वर्ग में दो लाख छियानवे हजार, ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में एक लाख चार हजार, लांतव में पचीस हजार बयालीस, कापिष्ठ में चौबीस हजार नौ सो अठावन, शुक्र में बीस हजार बीस, महाशुक्र में उन्नीस हजार नौ सौ अस्सी, शतार में तीन हजार उन्नीस, सहस्रार में उन्नीस कम तीन हजार, आनत-प्राणत में चार सौ चालीस, तथा आरण अच्युत में दो सौ साठ विमान हैं ।। 55-61 ।।
ग्रैवेयकों के पहले त्रिक में एक सौ ग्यारह, दूसरे त्रिक में एक सौ सात, तीसरे त्रिक में इकानवे और अनुदिशों में नौ विमान हैं ॥62॥ अनुदिशों में आदित्य नाम का विमान बीच में है और उसकी पूर्व आदि दिशाओं तथा विदिशाओं में क्रम से 1 अर्चि, 2 अर्चि-मालिनी, 3 वज्र, 4 वैरोचन, 5 सौम्य, 6 सौम्य-रूपक, 7 अंक और 8 स्फटिक ये आठ विमान हैं ॥63-64॥ अनुत्तर विमानों में सर्वार्थ-सिद्धि विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि चार दिशाओं में 1 विजय, 2 वैजयंत, 3 जयंत और 4 अपराजित ये चार विमान स्थित हैं ॥65॥ सब श्रेणीबद्ध विमान मिलकर आठ हजार एक सौ सत्ताईस हैं ॥66॥ उनमें सौधर्म स्वर्ग में श्रेणीबद्ध विमान चार हजार चार सौ पंचानवे, ऐशान में एक हजार चार सौ अट्ठासी, सनत्कुमार में छह सौ सोलह, माहेंद्र में दो सौ तीन, ब्रह्मलोक में दो सौ छियासी, ब्रह्मोत्तर में चौरानवे, लांतव में एक सौ पचीस, कापिष्ठ में इकतालीस, शुक्र में अठावन, महाशुक्र में उन्नीस, शतार में पचपन, सहस्रार में अठारह, आनत में एक सौ सैंतालीस, प्राणत में अड़तालीस, आरण में एक सौ बीस और अच्युत में उनतालीस कहे जाते हैं ॥67-73 ।। अधोग्रैवेयक के तीन विमानों में क्रम से पैंतालीस, इकतालीस और सैंतीस, मध्यम ग्रैवेयक के तीन विमानों में क्रम से तैंतीस, उनतीस और पचीस तथा ऊर्ध्व-ग्रैवेयक के तीन विमानों में क्रम से इक्कीस, सत्तरह और तेरह, अनुत्तरों में पाँच श्रेणी-बद्ध विमान हैं । विमान संख्या की मूल राशि में से इन इंद्रक और श्रेणी-बद्ध विमानों की संख्या घटा देने पर जो शेष बचते हैं वे प्रकीर्णक विमान हैं ऐसा विद्वज्जन जानते हैं ॥74-77॥
उन विमानों में संख्यात योजन विस्तार वाले विमानों की संख्या सौधर्म स्वर्ग में छह लाख चालीस हजार है । ऐशान स्वर्ग में पांच लाख साठ हजार, सनत्कुमार स्वर्ग में दो लाख चालीस हजार, माहेंद्र स्वर्ग में एक लाख साठ हजार, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में अस्सी हजार, लांतव और कापिष्ठ स्वर्ग में दस हजार, शुक्र स्वर्ग में चार हजार चार, महाशुक्र स्वर्ग में तीन हजार नौ सौ छियानवे, शतार-सहस्रार स्वर्ग में बारह सौ, आनत-प्राणत स्वर्ग में अठासी, और आरण-अच्युत स्वर्ग में बावन हैं ।। 78-84॥ इन सभी स्वर्गों में संख्यात योजन विस्तार वाले विमानों की जो संख्या है उससे चौगुने असंख्यात योजन विस्तार वाले विमान हैं ॥8॥ नव-ग्रैवेयकादिक में इंद्रक विमानों को छोड़कर श्रेणी-बद्ध विमानों में संख्यात योजन विस्तार वाले और असंख्यात योजन विस्तार वाले दोनों प्रकार के विमान हैं । इंद्रक विमान संख्यात योजन विस्तार वाले ही हैं ॥86॥ संख्यात योजन विस्तार वाले सब विमान मिलाकर सोलह लाख निन्यानवे हजार तीन सौ अस्सी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले विमान सड़सठ लाख सत्तानवे हजार, छह सौ उनचास कहे गये हैं ॥87-88।।
प्राग्भार-भूमि ( सिद्धशिला ) ढाई द्वीप, प्रथम स्वर्ग का ऋतु विमान, प्रथम नरक का सीमंतक इंद्रक विल और सिद्धालय ये पाँच विस्तार की अपेक्षा समान हैं अर्थात् सब पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाले हैं । इनमें ऋतु विमान बाल मात्र का अंतर देकर मेरु की चूलिका को प्राप्त है अर्थात् चूलिका और ऋतु विमान में बाल मात्र का अंतर है ॥89॥ जंबूद्वीप, सातवें नरक का अप्रतिष्ठान नाम का इंद्रक विल और सर्वार्थसिद्धि ये तीनों विस्तार को जानने वाले आचार्यों ने समान विस्तार से युक्त कहे हैं अर्थात् इन सबका एक-एक लाख योजन विस्तार है ।। 90 ।।
समस्त श्रेणीबद्ध विमानों की जो संख्या है उसका आधा भाग तो स्वयंभू-रमण समुद्र के ऊपर है और आधा अन्य समस्त द्वीप समुद्रों के ऊपर फैला हुआ है ॥91॥ सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में भवनों के मूल शिलापीठ की मोटाई ग्यारह सौ इक्कीस योजन है ।। 92 ।। ऊपर प्रत्येक कल्प युगल में निन्यानवे-निन्यानवे योजन मोटाई कम होती है । ग्रैवेयकों के तीनों त्रिक तथा अनुदिश और अनुत्तर विमानों के चौदह विमानों में समान मोटाई होती है ।। 93 ।। प्रथम कल्प युगल-सौधर्म, ऐशान स्वर्ग में भवनों की चौड़ाई एक सौ बीस योजन, दूसरे कल्प युगल -सानत्कुमार, माहेंद्र स्वर्ग में सौ योजन और इसके आगे प्रत्येक कल्प युगल तथा ग्रैवेयकों के प्रत्येक त्रिकों में दस-दस योजन कम होती जाती है । अनुदिशों और अनुत्तरों के चौदह विमानों में केवल पांच योजन चौड़ाई रह जाती है ।। 94॥ प्रथम कल्प युगल में भवनों की ऊँचाई छह सौ योजन है, दूसरे कल्प युगल में पांच सौ योजन है और आगे के युगलों में पचास-पचास योजन ऊंचाई कम होती जाती है । इसके आगे अनुदिश और अनुत्तरों के भवन मात्र पच्चीस योजन ऊँचे हैं ॥95॥ प्रथम कल्प युगल में भवनों की गहराई साठ योजन है, दूसरे कल्प युगल में पचास योजन है और इसके आगे के कल्पों में पाँच-पाँच योजन कम होती जाती है । अनुदिश और अनुत्तर संबंधी चौदह विमानों में मात्र ढाई योजन गहराई है ॥96॥
सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के भवन काले, नीले, लाल, पीले और सफेद के भेद से पाँच रंग के कहे गये हैं ॥97॥ आगे के युगल सानत्कुमार और माहेंद्र स्वर्ग में नीले को आदि लेकर चार रंग के हैं, उसके आगे चार स्वर्गों में लाल को आदि लेकर तीन रंग के हैं, उसके आगे सहस्रार स्वर्ग तक के चार स्वर्गों में पीले और सफेद दो रंग के हैं अन्य रंग के नहीं हैं ॥98॥ उसके आगे आनत-प्राणत को आदि लेकर समस्त स्वर्ग, ग्रैवेयक, अनुदिश तथा अनुत्तरविमानों के भवन मात्र सफेद वर्ण के हैं । वैमानिक देवों के ये भवन जगमगाती हुई प्रभा से युक्त हैं ॥99॥
सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के विमान घनोदधि के आधार हैं, सानत्कुमार और माहेंद्र के विमान घनवातवलय के आधार हैं, आगे आठ कल्प अर्थात् सहस्रार स्वर्ग तक के विमान घनोदधि और धनवात दोनों के आधार हैं और शेष विमान आकाश के आधार हैं ॥100॥ छह युगलों तथा शेष कल्पों में अपने-अपने निवास के योग्य अंतिम इंद्रक के श्रेणीबद्ध विमानों में इंद्रों का निवास है । पहले युगल के अंतिम इंद्रक संबंधी अठारहवें श्रेणीबद्ध विमान में इंद्र का निवास है और आगे दो-दो श्रेणीबद्ध विमानों की क्रमिक हानि है । 1 सौधर्म, 2 सनत्कुमार, 3 ब्रह्म, 4 शुक्र, 5 आनत और 6 आरण कल्पों में रहने वाले इंद्र दक्षिण दिशा में रहते हैं और 1 ऐशान, 2 माहेंद्र, 3 लांतव, 4 शतार, 5 प्राणत और 6 अच्युत इन छह कल्पों में रहने वाले उत्तर दिशा में रहते हैं । ये इंद्र सुखरूपी सागर के मध्य में स्थित हैं तथा प्रतिद्वंद्वियों से रहित हैं भावार्थ-सौधर्म स्वर्ग के अंतिम पटल के इंद्रक विमान से दक्षिण दिशा में जो अठारहवां श्रेणीबद्ध विमान है उसमें सौधर्मेंद्र रहता है और उत्तर दिशा में जो अठारहवां श्रेणीबद्ध विमान है उसमें ऐशानेंद्र रहता है । सनत्कुमार इंद्र अपने स्वर्ग के अंतिम पटल संबंधी इंद्रक से दक्षिण दिशा संबंधी सोलहवें श्रेणीबद्ध विमान में रहता है और माहेंद्र उत्तर दिशा संबंधी । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए ॥101-102 ।।
पंचाग्नि आदि तप तपने वाले तपस्वियों की उत्पत्ति भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में होती है, परिव्राजक-संन्यासियों की उत्पत्ति ब्रह्मलोक तक और सम्यग्दृष्टि आजीविकों की उत्पत्ति सहस्रार स्वर्ग तक हो सकती है । जिन-लिंग के सिवाय अन्य लिंग के द्वारा जीव सहस्रार स्वर्ग के आगे नहीं जा सकते यह नियम है ॥103-104॥ श्रावक सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत स्वर्ग तक जाते हैं और मुनि उसके आगे भी जा सकते हैं ॥105 ।। अभव्य जीवों का उपपाद अग्रिम अग्रैवेयक तक हो सकता है, परंतु यह नियम है कि ग्रैवेयकों में उपपाद निर्ग्रंथ लिंग के द्वारा उग्र तपश्चरण करने से ही हो सकता है ॥106 । इसके सर्वार्थ सिद्धि तक रत्नत्रय तपस्वी भव्य जीव की ही उत्पत्ति होती है ॥107॥
भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्या तथा जघन्य पीत लेश्या होती है ॥108 ।। सौधर्म स्वर्ग के देवों के मध्यम पीत लेश्या होती है । माहेंद्र स्वर्ग के देवों के उत्कृष्ट पीत लेश्या और जघन्य पद्म लेश्या होती है ॥109 ।। इसके आगे तीन युगलों में मध्यम पद्म लेश्या होती है । उसके आगे दो युगलों में उत्कृष्ट पद्म लेश्या और जघन्य शुक्ल लेश्या होती है । तदनंतर अच्युत स्वर्ग तक के चार स्वर्गों और नौ ग्रैवेयकों के समस्त देवों के मध्यम शुक्ल लेश्या होती है और उसके आगे अनुदिश और अनुत्तर संबंधी अहमिंद्रों के चौदह विमानों में परम शुक्ल लेश्या होती है । यहाँ के निवासी अहमिंद्र संक्लेश से रहित होते हैं ॥110-112 ।।
प्रथम दो स्वर्ग के देवों के अवधिज्ञान का विषय धर्मा पृथिवी तक है, उसके आगे के वो स्वर्गों संबंधी देवों का विषय वंशा पृथिवी तक है । उसके आगे चार स्वर्गों संबंधी देवों का विषय मेघा पृथिवी तक है, उनके आगे चार स्वर्गों संबंधी देवों का विषय अंजना नामक चौथी पृथिवी तक है । उसके आगे आनतादि चार स्वर्गों के देवों का विषय अरिष्टा नाम की पांचवीं पृथिवी तक है । नव ग्रैवेयक वासियों का छठवीं पृथिवी तक है । नवानुदिश वासियों का सातवीं पृथिवी के अंत तक है और पंचानुत्तर वासियों का समस्त लोकनाडी तक है । समस्त देवों के अवधिज्ञान रूपी नेत्र का ऊपर की ओर का विषय अपने-अपने विमान के अंत भाग तक है ऐसा सर्वज्ञ देव जानते हैं ॥113-117॥
चारों निकाय के देवों की स्थिति, ऊँचाई तथा प्रवीचार-कामसेवन का वर्णन जैसा जिनेंद्र भगवान ने किया है वैसा यथायोग्य जानना चाहिए ॥118।। आरण स्वर्ग पर्यंत दक्षिण दिशा के देवों की देवियां सौधर्म स्वर्ग में ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती हैं और नियोगी देवों के द्वारा यथास्थान ले जायीं जाती हैं ॥119॥ तथा अच्युत स्वर्ग पर्यंत उत्तर दिशा के देवों की सुंदर देवियां ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं एवं अपने-अपने नियोगी देवों के स्थानपर जाती हैं ॥120॥ मुनियों के ईश्वर गणधर देव ने सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में शुद्ध देवियों से युक्त विमानों की संख्या क्रमश: छह लाख और चार लाख बतलायी है अर्थात् सौधर्म ऐशान स्वर्ग में केवल देवियों के उत्पत्ति स्थान छह लाख और चार लाख प्रमाण हैं ॥121 ।। सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न एवं दीर्घ आयु को धारण करने वाले इंद्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि देव, दिव्य वस्त्रालंकारों से विभूषित, शुभ विक्रिया करने वाली हृदय तथा नेत्रों को हरण करने वाली उत्कृष्ट रूप और विभ्रम से सहित, हाव भाव दिखलाने में चतुर स्वाभाविक प्रेम की भूमि एवं अनेक पल्य-प्रमाण आयु वाली अनेक देवियों के साथ सुख को प्राप्त होते हैं ॥122-124 ।। सोलहवें स्वर्ग के आगे के अहमिंद्र, साता वेदनीय के उदय से उत्पन्न, स्त्री रहित, शांतिरूप आत्मा से उत्पन्न होने वाले, देव पर्याय जन्य अपरिमित सुख का उपभोग करते हैं ।। 125 ।।
सर्वार्थसिद्धि से बारह योजन आगे जाकर तीन लोक के मस्तक पर सिद्ध भगवान् का उत्कृष्ट स्थान है ।। 126।। सिद्धों का यह स्थान (सिद्धशिला ) ईषत्प्राग्भार नाम की आठवीं पृथिवी कहलाती है । यह पृथिवी मध्य में आठ योजन मोटी है उसके आगे क्रम से कम-कम होती हुई अंत भाग में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अत्यंत सूक्ष्म रह जाती है, वह ऊपर की ओर उठे हुए विशाल गोल सफेद छत्र के आकार है ॥127-128॥ विद्वज्जन उस पृथिवी का विस्तार पैंतालीस लाख योजन बतलाते हैं ॥129॥ उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन है ॥130॥
उस पृथिवी के ऊपर पहले कहे हुए तीन वातवलय हैं, उनमें तीन कोश विस्तार वाले दो वलयों का उल्लंघन कर एक हजार पांच सौ पचहत्तर धनुष विस्तार वाला जो तीसरा तनुवातवलय है । उसके पाँच सौ पच्चीस धनुष मोटे अंतिम भाग को अपनी उत्कृष्ट अवगाहना से व्याप्त कर सिद्ध भगवान् विराजमान हैं । जिन सिद्ध भगवान् का अनंतर पूर्व शरीर साढ़े तीन हाथ ऊँचा रहता है उनकी अवगाहना संबंधी आकाश का प्रदेश साढ़े तीन हाथ से कुछ कम माना जाता है ॥131-134॥ जहाँ कृतकृत्य अवस्था को प्राप्त हुए एक सिद्ध भगवान् विराजमान हैं वहाँ अपनी अवगाहना से अनंत सिद्ध परमेष्ठी स्थित है । भावार्थ-अवगाह दान की सामर्थ्य होने से सिद्ध परमेष्ठी एक दूसरे को बाधा नहीं पहुँचाते इसलिए जहाँ एक सिद्ध है वहीं अनंत सिद्ध विराजमान रहते हैं ॥135॥ ये सिद्ध परमेष्ठी शरीररहित हैं, सुख रूप हैं, जीव के घन प्रदेशों से युक्त हैं और अपने ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग के द्वारा अनंत पर्यायों से युक्त समस्त लोक और अलोक को एक साथ जानते हुए सदा सुख से स्थिर रहते हैं ॥136-137 ।।
जो कर्म कलंक से रहित होने के कारण शुद्ध हैं, अनंत ज्ञान से संपन्न होने के कारण जिन्होंने समस्त पदार्थों को जान लिया है, जो आयु कम से रहित होने के कारण नूतन जन्म से रहित हैं, शरीर रहित होने के कारण अजर अमर हैं, मोहजन्य विकार से रहित होने के कारण जो कर्मबंधन से दूर हैं और स्वाश्रित होने से शाश्वत हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी उस शाश्वत-अविनश्वर स्थानपर सदा विद्यमान रहते हैं ॥138॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे नररत्न श्रेणिक ! इस प्रकार हमने तेरे कल्याण के लिए ज्योतिर्लोक और अनेक पटलों से युक्त स्वर्ग एवं मोक्ष से सहित ऊर्ध्वलोक का कथन करने वाले इस क्षेत्र का संक्षेप से कर्णप्रिय वर्णन किया है । अब हे आयुष्मन् ! हम काल द्रव्य का कथन करते हैं सो एकाग्र चित्त से श्रवण कर ॥139।। श्री जिनेंद्र भगवान् ने आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय के द्वारा चित्त वृत्ति के निरोध करने को उज्ज्वल धर्मध्यान कहा है और चूंकि धर्मध्यान मोक्ष का कारण है इसलिए इंद्रियों को वश करने वाले पुरुषों को लोक के संस्थान― आकार का चिंतन करना चाहिए । आचार्यों ने ठीक ही कहा है कि इंद्रियरूपी मदोन्मत्त हाथी और इंद्रियरूपी घोड़े मंद आक्रमण होने परवश में नहीं रहते । भावार्थ― मोक्षाभिलाषी पुरुषों को मन और इंद्रियों को स्वतंत्र नहीं छोड़ना चाहिए ।। 140 ।।
इस प्रकार जिसमें श्रीअरिष्टनेमि जिनेंद्र के पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराण में ज्योतिर्लोक तथा ऊर्ध्वलोक का वर्णन करने वाला छठा सर्ग समाप्त हुआ ॥6॥