ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 39
From जैनकोष
इंद्र, नेमि जिनेंद्र की इस प्रकार स्तुति करने लगा हे प्रभो ! आपने समस्त श्रुतज्ञान, मतिज्ञान और अवधिज्ञान से विकसित, शुद्ध चेष्टाओं के धारक,जागरूक एवं विशिष्ट पदार्थों को दिखलाने वाली दृष्टि के द्वारा समस्तं चराचर पदार्थों से युक्त तीनों जगत् को अच्छी तरह देख लिया है । आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के भेद से त्रिविधता को प्राप्त निर्मल रत्नों में सुशोभित पूर्वभव संबंधी उग्र तप से युक्त सोलहकारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नामक पुण्य, प्रकृति का संचय किया है ॥1॥ उसी तीर्थंकर प्रकृति को स्थिति तथा अनुभागबंध के कारण अत्यंत विशिष्ट एवं अद्भुत पुण्य के महोदयरूपी वायु के वेग से आपने देवसमूहरूपी कुलाचलों को विचलित किया है । उन्होंने आपके चरण युगल की सेवा की है । आप युग में मुख्य हैं तथा आपके मुख कमल के देखने संबंधी तृप्ति से रहित भव्य जीवरूपी भ्रमरों के अत्यधिक स्तवनों को ध्वनि से वृद्धिंगत दुंदुभियों के शब्द से आपका शुद्ध यश प्रकट हो रहा है ।। 2 ।।
हे नाथ ! आपने यश से शक्लीकृत जन्म से समस्त भारतवर्ष को पवित्र किया है । अत्यंत श्रेष्ठ, हरिवंशरूप विशाल उदयाचल के शिखामणि स्वरूप बालदिनकर जैसी कांति से आपने सूर्य के शरीर को जीत लिया है । हे विभो ! आपने अधिक कांति को धारण करने वाले शरीर के द्वारा पूर्णचंद्र को जीत लिया है एवं इंद्रनील मणि जैसी कांति के समूह से आपने समस्त दिशाओं के मुखमंडल को सुशोभित कर दिया है इसलिए हे नेमि जिनेंद्र ! आपको नमस्कार हो ।। 3 ।। हे परमेश्वर ! हे विश्वजनीन ! हे अप्रतिम ! हे अनुपम ! आप तीनों लोकों के गुरु हैं एवं उत्कट-बुद्धि के धारक हैं । यहाँ उत्पन्न होते ही आपने अनुपम प्रसिद्ध एवं मोक्ष का जो हितकारी मार्ग बतलाया है उसे स्वीकार कर तथा नाना प्रकार का तपकर भव्य जीव समस्त पापकर्मरूपी मल को विधिपूर्वक नष्ट कर पृथिवी में वंदनीय होंगे ॥4॥ हे प्रणतप्रिय ! हे भक्तवत्सल ! अब आप जन्म-जरा-मरणरूपी रोगों से भयंकर संसाररूपी महादुःख के अपार सागर को पार कर मोक्षस्वरूप, समस्त लोक की उस शिखर को प्राप्त होंगे जहां पर उत्कृष्ट सीमा को प्राप्त समस्त गुणों के आधारभूत सिद्ध भगवानरूप महा परमेष्ठी विराजमान रहते हैं और जिसे मुनिगण उत्कृष्ट, अद्वितीय, अविनाशी एवं आत्म-हितकारी पद कहते हैं ॥5॥ जहाँ का उत्तम, महान् , आत्मगत, निरंतर उदय में रहने वाला, अंतरहित और अनंत बल संपन्न सुख महापुरुषों को ही प्राप्त हो सकता है अभव्य जीवों को नहीं । हे स्वामिन् ! आप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव वाले पदार्थों के निरूपण करने में निपुण शासन का उपदेश करने वाले हैं । इस संसार में समस्त जगत् की प्रभुता से संबद्ध एवं इंद्र, नरेंद्र आदि देव और मनुष्यों के विशेष महान् अभ्युदयों का कारणभूत जो सुख है वह भी आपके शासन की सेवा से ही प्राप्त होगा अन्य मतों के आश्रय से नहीं इसलिए सब आपका ही आश्रय लेवें इस प्रकार आपके विषय में निश्चय-दढ़ श्रद्धा को प्राप्त कर जो प्राणी इस पृथिवी में निर्ग्रंथ बुद्धि के धारण करने में प्रवीण होते हैं― निर्ग्रंथ मुद्रा धारण करते हैं हे जिनेंद्र ! वे ही प्राणी इस संसार में कृतकृत्यता को प्राप्त होते हैं ॥6-7॥
हे भगवन् ! आप प्रिय एवं सर्वहितकारी वचनों के वैभव से सहित हैं, संसार का अंत करने वाले हैं, आपने दिशाओं के अंतराल को सुगंधित कर दिया है, आप उत्कृष्ट संहनन, उत्कृष्ट संस्थान और उत्कृष्ट रूप से युक्त हैं, आप समस्त लक्षणों से सुशोभित हैं, आपके शरीर का रस-रुधिर दूध के समान है, आप रस और भाव को जानने वाले हैं, आपका शरीर मल से रहित है, पसीना से रहित है, आप पृथिवी में व्याप्त अनंत बल से सहित हैं ॥8॥ आपने संयमरूप आत्मबुद्धि से कामदेव को जीत लिया है । आप सुखरूपी सत्य से परिपूर्ण एवं अत्यंत रक्षणीय भूमि की रक्षा करने वाले हैं । हे सबके रक्षक भगवन् ! इस तरह आप अनंत गुणों के धारक हैं । हे नाथ ! आपके गुणों की अभिलाषा से हम आपके प्रति नम्रीभूत हैं― आपको नमस्कार करते हैं ॥9॥ हे नाथ ! यह अनेकों हजार योजन ऊँचा पर्वतों का राजा सुमेरुपर्वत भी मानो आपके योग का साधन हो गया । सो आपके सिवाय प्रचंड बुद्धि को धारण करने वाला ऐसा कौन महापुरुष है जो इसे श्रेष्ठ तथा देदीप्यमान स्नानपीठ बना सकने को समर्थ है ॥10॥
हे ईश ! यह आपका ऐश्वर्य अपरिमित है, मानरूपी धन के धारक बड़े-बड़े देव तथा मनुष्यों के द्वारा माननीय है । हे जिनेंद्र ! इस संसार में स्वर्ग में उत्पन्न होने वाला भी ऐसा कौन दूसरा माननीय पुरुष है जो आपके समान ऐश्वर्य को प्राप्त कर सके ॥11॥ हे भगवन् ! बाल्यकाल में भी आप लोकोत्तर पराक्रम के धारक हैं, प्राणियों के हितकारक हैं, तीनों लोकों के द्वारा स्तुत हैं तथा आप नूतन भक्ति के भार से नम्रीभूत मनुष्यों के लिए शारीरिक और मानसिक सुख के करने वाले हैं ॥12॥ हे प्रभो ! आप कामरूपी गजराज को नष्ट करने के लिए सिंह के समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो । आप क्रोधरूपी महानाग को वश करने के लिए पक्षिराज― गरुड़ के समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो । आप मानरूपी पर्वत को चकनाचूर करने के लिए वज्र के समान हैं अतः आपको नमस्कार हो और आप लोभरूपी महावन को भस्म करने के लिए दावानल के समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥13 ।। आप ईश्वरता के धारण करने में धीर-वीर हैं अतः आपको नमस्कार हो । हे देव ! आप विष्णुता से युक्त हैं अतः आपको नमस्कार हो । आप अंतरूप अचिंत्य पद के स्वामी हैं अतः आपको नमस्कार हो और आप ब्रह्म पद को प्राप्त करने वाले हैं अतः आपको नमस्कार हो ॥14 ।। इस प्रकार सत्य वचनों के समूह से देवों ने भगवान की स्तुति कर उन्हें प्रणाम किया तथा भयंकर संसार से पार करने वाले भगवान से उन्होंने यही एक वर मांगा कि हे भगवन् ! हम लोगों को उत्तम बोधि की प्राप्ति हो ॥15॥
अथानंतर खेद-रहित एवं विशाल बुद्धि के धारक देव संतोष की अधिकता से आकाश में जिन शंखों को अधिक मात्रा में फूंक रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों अमृत के महासागर के मथने से जो अत्यंत शुद्ध अमृत को पिंड निकला था उसे अधिक मात्रा में पी जाने के दोष से देव लोग चिरकाल तक पचा नहीं सके इसलिए उन्होंने उगल दिया हो उसी पीयूष-पिंड के टुकड़े हों । शंखों के शब्दों के साथ-साथ बजाये जाने वाले अत्यधिक गंभीर ध्वनि से युक्त भेरी, मृदंग तथा पटह आदि को एवं अधिक मात्रा से एवं अधिक मात्रा से बजने वाली बांसुरी और वीणा के शब्द, ‘श्री जिनेंद्र भगवान् के जन्माभिषेक को उत्सव हो चुका है ।’ इसकी घोषणा करने के लिए ही मानों जब समस्त लोक के अंत तक एवं समस्त दिशाओं के अंतराल में व्याप्त होने के लिए उठ रहे थे । और जब विद्याधरों के समूह एवं देवांगनाओं के उन्नत संगीतमय शब्दों से सुंदर श्रेष्ठ शृंगार, हास्य और अद्भुत रस से परिपूर्ण वाचिक, आंगिक, सात्त्विक और आहार्य इन चार प्रकार के अपने सुंदर दिव्य अभिनेयों के प्रकट करने में प्रवृत्त अप्सराओं के समूह सुंदर नृत्य कर रहे थे । तब सौधर्म स्वर्ग का इंद्र, संभ्रम पूर्वक विभ्रमों से शोभायमान उठते, हुए ऐरावत हाथी के कंधे पर धीर-वीर जिनेंद्र को विराजमान कर सुमेरुपर्वत से उस शौर्यपुर की ओर चला जो शूरवीरता के पर्वत एवं सिंहों के समान बलवान यादववंशी राजाओं से अधिष्ठित था ।
उस समय जिनेंद्र भगवान के ऊपर सफेद छत्र सुशोभित हो रहा था, चंचल चमरों की पंक्तियां उन पर ढोरी जा रही थी और प्रकृष्ट गीतों से युक्त अप्सराओं के समूह उनकी अत्यंत विशुद्ध कीर्ति गा रहे थे । सौधर्मेंद्र ने उस समय समस्त आकाश को सब प्रकार की सेनाओं से पूर्ण कर रखा था । मार्ग में चलते हुए हर्ष से परिपूर्ण, प्रणाम, स्तुति तथा संगीत के प्रयोग में लीन प्रसिद्ध देवों के समूह भगवान् का यथायोग्य अभिनंदन कर रहे थे । त्रिलोक संबंधी इंद्रों का समूह भगवान् के चरणकमलों की सेवा में तत्पर था और भगवान उसे महान् आनंद प्राप्त करा रहे थे ꠰ इस प्रकार जो लोकोत्तर एवं अत्यंत आश्चर्यकारी परमऐश्वर्य को धारण कर रहे थे, शिवादेवी के पुत्र थे, ‘समृद्धि को प्राप्ति हो’ ‘बढ़ते रहो’, ‘जीवित रहो’ इत्यादि पुण्य शब्दों से उस समय जिनकी स्तुति हो रही थी, कुलाचलों से उत्पन्न अत्यधिक स्वच्छ जल से युक्त महानदियों की तरंगों के संसर्ग से शीतल भोगभूमि संबंधी कल्पवृक्षों के रंग-बिरंगे पुष्प-समूह के संयोग से आश्चर्यकारी सुगंधि को धारण करने वाले तथा खेद दूर करने के लिए संभ्रमपूर्वक बहुत दूर से सम्मुख आये हुए मित्र के समान, शरीर के अनुकूल मंद-मंद समीर से जिनका आलिंगन हो रहा था, जो प्रभु थे, तीर्थंकर थे, कोमल शरीर के धारक थे, जो मन को हरण करने वाले तथा बाल्य अवस्था के अनुरूप वस्त्रों से सुशोभित विशिष्ट आभूषणों से युक्त थे, देदीप्यमान मालाओं से उज्ज्वल थे, बाल कल्पवृक्ष को उत्कृष्ट शोभा को तिरस्कृत करने वाले थे, मेघ के समान श्याम मूर्ति के धारक थे सफेद एवं उत्कृष्ट गंध से युक्त उत्तम चंदन से लिप्त थे और इसके कारण जो उदित होती हुई सघन चांदनी से आलिंगित प्रगाढ़ इंद्रनीलमणि के पर्वत को शोभा को धारण कर रहे थे और देवों की सेना से आवृत थे ऐसे नेमि जिनेंद्र शीघ्र ही उत्तर दिशा को उल्लंघ कर अपने उस शौर्यपुर नगर में जा पहुंचे जहाँ की दिशाओं का अंतराल और आकाश ऊंची-ऊंची ध्वजाओं के समूह तथा वादित्रों की गंभीर ध्वनि से व्याप्त था, जहाँ के बड़े-बड़े मार्ग, दिव्य और सुगंधित जल की वृष्टि से सींचे जाकर फूलों की पड़ती हुई वर्षा से रु के हुए थे, जो लक्ष्मी का भंडार था तथा मंगलाचारमय विधि-विधान से सुंदर था, उस समय भगवान् नेमिनाथ पृथिवी पर समस्त लोगों को आश्चर्य में डालने वाले आश्चर्य को प्रकट कर रहे थे ।
बालक होने पर भी जिनकी शोभा बालकों जैसी नहीं थी अर्थात् जो प्रकृति से वयस्क के समान सुंदर थे । जो कृष्ण तथा सौर्यपुर की प्रजारूपी शोभायमान कमलिनी को विकसित करने के लिए बालसूर्य थे और जो अतिशय ऊंचे ऐरावत― गजराज के मस्तक पर विराजमान थे ऐसे जिन बालक को लेकर इंद्र ने उन्हें माता को गोद में दिया । तदनंतर विक्रियाशक्ति से युक्त इंद्र ने स्वयं देदीप्यमान कंधों की शोभा को पुष्ट करने वाली हजार भुजाएं बनाकर उन्हें फैलाया तथा उन पर अत्यधिक सौंदर्य से युक्त नाना प्रकार का नृत्य करने वाली हजारों देवियों को धारण किया । तत्पश्चात् इस लीला को जब सामने बैठे हुए यादव लोग बड़े हर्ष से देख रहे थे तथा अपने हृदय में जब इसे समस्त पृथ्वी के स्वामित्व के लाभ से भी अधिक समझ रहे थे तब राज्य में दक्ष इंद्र ने महानंद नाम का वह उत्तम नाटक किया जिसने सबके नेत्रों को विस्तृत उत्तम तांडव नृत्य की अखंड शोभा के प्रयोग से सहित था, नाना प्रकार के वादित्रों को जातियों के समूह से जिसमें अभिनेय अंश वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे, जो भौंहों के क्षोभ की लीला से सहित था, दिङ̖मंडल के भेद से सहित था, पृथ्वी के प्रताप से सहित था और नाना रसों के कारण जिसमें उदारभाव प्रकट हो रहा था ।
तदनंतर इंद्र ने भगवान् के माता-पिता को प्रणाम किया, उनकी पूजा की, अन्य मनुष्यों के दुष्प्राप्य अमूल्य आभूषण आदि से उन्हें विभूषित किया, रक्षा के निमित्त जिनेंद्र के दाहिने हाथ अंगूठे में अमृतमय मुख्य आहार निक्षिप्त किया । क्रीडा के लिए भगवान की समान अवस्था को धारण करने वाले देव कुमारों को उनके पास नियुक्त किया, कुबेर को यह आज्ञा दी कि तुम भगवान् की अवस्था, काल और ऋतु के अनुकूल उनके कल्याण के योग्य समस्त व्यवस्था करना । इस प्रकार इंद्र यह आज्ञा देकर भगवान् के माता-पिता से पूछकर तथा उनकी आज्ञा प्राप्त कर अपने आपको कृतकृत्य मानता हुआ चार निकाय के देवों से अनुगत समस्त इंद्रों के साथ जैसा आया था वैसा चला गया । इंद्र की यात्रा सफल हुई ।
तदनंतर अपना-अपना कार्य पूरा कर दिक्कुमारी देवियों ने आर्यपुत्री, जिनबालक सहित माता-शिवादेवी के पास आकर उन्हें प्रणाम किया और उसके बाद वे प्रकृष्ट हर्ष से युक्त अपने शरीर की प्रभाओं से दशों दिशाओं को देदीप्यमान करती हुई अपने-अपने स्थानों पर चली गयीं । इधर गुण-समूहरूपी किरणों के समूह से समस्त जगत् को आनंदित करने वाले, बालक होनेपर भी वृद्धा जैसी क्रिया से युक्त, बंधुवर्ग तथा देवों के द्वारा लालित नेमिजिनेंद्ररूपी चंद्रमा दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए लक्ष्मी से सुशोभित होने लगे ।
गौतम स्वामी कहते हैं कि यह स्तवन उन नेमि जिनेंद्र के जन्माभिषेक से संबंध रखने वाला है जिनके सातिशय प्रभाव ने तीनों लोकों को व्याप्त कर रखा है, जो पाप को दूर करने वाले हैं, एक पुण्य का ही मार्ग बताने वाले हैं, संसार में सारभूत हैं, मोक्ष के निकट हैं, भव्य जीवों को हर्ष उत्पन्न करने वाले हैं, प्रमाद को हरने वाले हैं, धर्म का उपहार देने वाले हैं, सब लोग बड़े हर्ष से जिनका नाम श्रवण करते हैं, जिनका स्मरण करते हैं और जिनका अच्छी तरह कीर्तन करते हैं । पढ़ा गया, सुना गया और सदा चिंतवन किया गया यह स्तोत्र इस लोक में साक्षात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्̖चारित्ररूपी संपत्ति को करता है, मानसिक और शारीरिक सुख प्रदान करता है, शांति करता है, पुष्टि करता है, तुष्टि और संपत्ति को संपन्न करता है तथा परलोक में अनेक कल्याणों की प्राप्ति में कारणभूत उत्कृष्ट पुण्यास्रव का स्वयं कारण है, समस्त पाप कर्मों के हजारों प्रकार के आस्रवों का निवारण करता है और पूर्वभव में सर्वदा स्नेह तथा मोह आदि भावों से संचित भयंकर से भयंकर पापों का नाश करता है । यह मुख्य स्तोत्र, जिनेंद्र भगवान् में सातिशय भक्ति उत्पन्न करे ।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में जन्माभिषेक के समय इंद्र द्वारा कृत स्तुति का वर्णन करने वाला उनतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥39॥