ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 2
From जैनकोष
अथानंतर इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में लक्ष्मी से स्वर्गखंड की तुलना करने वाला, विदेह इस नाम से प्रसिद्ध एक बड़ा विस्तृत देश है ॥ 1 ॥ यह देश प्रतिवर्ष उत्पन्न होने वाले धान्य तथा गोधन से संचित है, सब प्रकार के उपसर्गों में रहित है, प्रजा की सुखपूर्ण स्थिति से सुंदर है और खेट, खवंट, मटंब, पुटभेदन, द्रोणामुख, सुवर्ण, चाँदी आदि की खानों, खेत, ग्राम और घोषों से विभूषित है । भावार्थ-जो नगर नदी और पर्वत से घिरा हो, उसे बुद्धिमान् पुरुष खेट कहते हैं, जो केवल पर्वत से घिरा हो, उसे खर्वट कहते हैं । जो पाँच सौ गांवों से घिरा हो, उसे पंडितजन मटंब मानते हैं । जो समुद्र के किनारे हो तथा जहाँ पर लोग नावों से उतरते हैं, उसे पतन या पुटभेदन कहते हैं । जो किसी नदी के किनारे बसा हो, उसे द्रोणामुख कहते हैं । जहाँ सोना-चांदी आदि निकलता है, उसे खान कहते हैं । अन्न उत्पन्न होने की भूमि को क्षेत्र या खेत कहते हैं । जिनमें बाड़ से घिरे हुए घर हों, जिन में अधिकतर शूद्र और किसान लोग रहते हैं तथा जो बाग-बगीचा और मकानों से सहित हों, उन्हें ग्राम कहते हैं, और जहाँ अहीर लोग रहते हैं, उन्हें घोष कहते हैं । वह विदेह देश इन सबसे विभूषित था ॥ 2-3॥ उस देश का क्या वर्णन किया जाये जहाँ के सुखदायी क्षेत्र में क्षत्रियों के नायक स्वयं इक्ष्वाकुवंशी राजा स्वर्ग से च्युत हो उत्पन्न होते हैं ॥4 ॥ उस विदेह देश में कुंडपुर नाम का एक ऐसा सुंदर नगर है जो इंद्र के नेत्रों की पंक्तिरूपी कमलिनियों के समूह से सुशोभित है तथा सुखरूपी जल का मानो कुंड ही है ॥ 5 ॥ जहाँ शंख के समान सफेद एवं शरद् ऋतु के मेघ के समान उन्नत महलों के समूह से सफेद हुआ आकाश अत्यंत सुशोभित होता है ॥6॥ जिसके महलों के अग्र भाग में लगी हुई चंद्रकांतमणि की शिलाएँ रात्रि के समय चंद्रमारूपी पति के कर अर्थात् किरण (पक्ष में हाथ के) स्पर्श से स्वेदयुक्त स्त्रियों के समान द्रवीभूत हो जाती हैं ॥7॥ जहाँ के मकानों पर लगे हुए सूर्यकांतमणि के अग्रभाग की कोटियाँ, सूर्यरूपी पति के कर अर्थात् किरण (पक्ष में हाथ) के स्पर्श से विरक्त स्त्रियों के समान देदीप्यमान हो उठती हैं ॥ 8 ॥ जहाँ के महलों के शिखर पर लगे हुए पद्मराग मणियों की पंक्ति, सूर्य को किरणों के संसर्ग से स्त्री के समान अत्यंत अनुरक्त हो जाती है ॥9॥ उस नगर में कहीं मोतियों की मालाएँ लटक रही हैं, कहीं मरकत मणियों का प्रकाश फैल रहा है, कहीं हीरा की प्रभा फैल रही है और कहीं वैडूर्य मणियों की नीली-नीली आभा छिटक रही है । उन सबसे वह एक होने पर भी सदा सब रत्नों की खान की शोभा धारण करता है ॥10॥ कोटरूपी पर्वत, बड़े-बड़े धूलि कुट्टिम और परिवार से घिरे हुए उस नगर के ऊपर यदि कोई जा सकता था तो मित्र अर्थात् सूर्य का मंडल ही जा सकता है, अमित्र अर्थात् शत्रुओं का मंडल नहीं जा सकता था ॥11॥ इस नगर के गुणों का वर्णन तो इतने से ही पर्याप्त हो जाता है कि वह नगर स्वर्ग से अवतार लेते समय भगवान महावीर का आधार हुआ― भगवान महावीर वहाँ स्वर्ग से आकर अवतीर्ण हुए ॥12 ॥
राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती से उत्पन्न, समस्त पदार्थों को देखने वाले, सूर्य के समान देदीप्यमान और समस्त अर्थ-पुरुषार्थ सिद्ध करने वाले सिद्धार्थ वहाँ के राजा थे ॥13 ॥ जिन सिद्धार्थ के रक्षा करनेपर पृथिवी इसी एक दोष से युक्त थी कि वहाँ की प्रजा ने धर्म की इच्छुक होने पर भी परलोक का भय छोड़ दिया था । भावार्थ― जो प्रजा धर्म की इच्छुक होती है उसे स्वर्ग, नरक आदि परलोक का भय अवश्य रहता है परंतु वहाँ की प्रजा परलोक का भय छोड़ चुकी थी, यह विरोध है परंतु परलोक का अर्थ शत्रु लोगों से विरोध दूर हो जाना है अर्थात् वहाँ को प्रजा धर्म की इच्छुक थी और शत्रुओं के भय से रहित थी ॥14॥ जो राजा सिद्धार्थ, साक्षात् भगवान् वर्धमान स्वामी के पितृपद को प्राप्त हुए, उनके उत्कृष्ट गुणों का वर्णन करने के लिए कौन मनुष्य समर्थ हो सकता है ? |꠰15॥
जो उच्च कुलरूपी पर्वत से उत्पन्न स्वाभाविक स्नेह की मानो नदी थी ऐसी रानी प्रिय कारिणी लक्ष्मी के समुद्रस्वरूप राजा सिद्धार्थ को प्रिय पत्नी थी ॥16॥ जिन सात पुत्रियों ने राजा चेटक के चित्त को अत्यधिक स्नेह से व्याप्त कर रखा था उन पुत्रियों में प्रियकारिणी सबसे बड़ी पुत्री थी |꠰17॥ जो अपने पुण्य से भगवान् महावीर को जन्म देने के लिए प्रवृत्त हुई, उस त्रिशला (प्रियकारिणी ) के गुण वर्णन करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥18॥
अथानंतर जब सब ओर से समस्त देवों की पंक्तियां नमस्कार कर रही थीं, प्रभाव के कारण जब आकाश से रत्नों की वर्षा हो रही थी और भगवान महावीर जब अपने तीर्थ से प्राणियों को रक्षा करने के लिए अच्युत स्वर्ग के उच्चतम पुष्पोत्तर विमान से पृथिवी पर अवतीर्ण होने के लिए उद्यत हुए रानी प्रियकारिणी ने उत्तमोत्तम सोलह स्वप्न देखकर गर्भ में गर्भकल्याणक के स्वामी श्री महावीर भगवान को धारण किया ॥19-21॥ जब भगवान् गर्भ में आये तब दुःषम-सुषम नामक चतुर्थ काल के पचहत्तर वर्ष साढ़े आठ माह बाकी थे ॥ 22 ॥ आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन जब भगवान् महावीर जिनेंद्र का गर्भावतरण हुआ तब चंद्रमा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र पर स्थित था ॥ 23 ॥ जिस प्रकार मेघमाला के भीतर छिपा हुआ सूर्य वर्षाऋतु को सुशोभित करता है उसी प्रकार दिक्कुमारियों के द्वारा कृतशोभ, देदीप्यमान शरीर की धारक एवं स्थूल स्तनों को धारण करने वाली माता प्रियकारिणी को वह प्रच्छन्नगर्भ सुशोभित करता था ॥24॥
तदनंतर नौ माह आठ दिन के व्यतीत होनेपर जब चंद्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पर आया तब भगवान का जन्म हुआ ॥ 25 ॥ तत्पश्चात् अंतिम जिनेंद्र के माहात्म्य से जिनके सिंहासन तथा मुकुट हिल उठे थे एवं अवधिज्ञान से जिन्होंने उनके जन्म का वृत्तांत जान लिया था, ऐसे इंद्रों ने उन्हें नमस्कार किया ॥26॥ भवनवासियों के यहाँ शंख, व्यंतरों के यहाँ भेरी, ज्योतिषियों के यहाँ सिंह और कल्पवासियों के यहाँ घंटा का शब्द सुनकर जो शीघ्र ही क्षुभित समुद्र के समान शब्द करने लगे थे, जो सात प्रकार की सेनाओं के महाभेदों से सहित थे, स्त्रियों सहित थे तथा जिन्होंने नाना प्रकार के आभूषण धारण कर रखे थे ऐसे चारों निकाय के देव कुंडपुर नगर में आ पहुँचे ॥27-28॥ इंद्र जिनके आगे-आगे चल रहा था ऐसे देवों ने नगर की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर चंद्रमा के समान सुंदर मुख को धारण करने वाले जिनेंद्र देव तथा उनके माता-पिता को नमस्कार किया ॥29॥ विनयावनत इंद्राणी ने देवकृत माया से सोयी हुई माता के समीप विक्रिया से एक दूसरा बालक रख, जिनेंद्रदेव को उठा इंद्र के लिए सौंप दिया ॥30॥ इंद्र ने उन्हें दोनों हाथों से ले चिर काल तक उनकी पूजा की और विक्रिया निर्मित हजार नेत्ररूपी कमलवन में उन्हें अर्चित किया ॥31॥
तदनंतर इंद्र ने भगवान् को उस अत्यंत ऊँचे ऐरावत हाथी पर विराजमान किया जिसका कि शरीर चंद्रमा के समान उज्ज्वल था, जो सुमेरु के शिखरों के समूह के समान जान पड़ता था और जो नीचे की ओर मद के निर्झर छोड़ रहा था ॥32॥ जिसके गंडस्थलों पर मद की सुगंधि के कारण भ्रमरों के समूह मंडरा रहे थे और उनसे जो सुमेरु के उस शिखर-समूह के समान जान पड़ता था, जो कि ऊपरी भाग पर स्थित तमाल वन से मंडित था ॥33॥ जिसके कानों के समीप लाल-लाल चमरों के समूह लटक रहे थे और उनसे जो सुमेरु के उस शिखर-समूह के समान जान पड़ता था जिसके कि ऊपरी भाग पर लाल-लाल अशोकों का महावन फूल रहा था ॥34॥ जिसका शरीर सुवर्ण की सुंदर सांकल से वेष्टित था और उससे जो सुमेरु के उस शिखर-समूह के समान जान पड़ता था जिसके कि समीप स्वर्ण की मेखला देदीप्यमान हो रही थी ॥35॥ जो अनेक दांतों पर होने वाले नृत्य और संगीत से परिपुष्ट था और उससे जो उस सुमेरु के समान जान पड़ता था जिसकी कि अत्यंत ऊंचे शिखरों के अग्र भाग पर देवांगनाएँ नृत्य-गायन कर रही थीं ॥36 ॥ जिसने अपनी गोल लंबी तथा चारों ओर घूमने वाली सूंडों से दिशाओं के अंतराल को व्याप्त कर रखा था और उनसे जो उस सुमेरु के समान जान पड़ता था जिसके कि समीप अत्यंत लंबे-मोटे और फणाओं से युक्त साँप घूम रहे थे ॥37॥ जिसके ऊपर ऐशानेंद्र ने बड़ा भारी सफेद छत्र धारण कर रखा था और उससे जो उस सुमेरु के समान जान पड़ता था जिसके कि ऊपर समीप ही पूर्ण चंद्रमा का मंडल विद्यमान था ॥38॥ और जो चमरेंद्र की भुजाओं के द्वारा ढोरे हुए चंचल चमरों से सुंदर था तथा उनसे उस सुमेरु के समूह के समान जान पड़ता था जो कि चमरों-मृगों के द्वारा उत्क्षिप्त पूंछों से सुशोभित था ॥39॥ इस प्रकार वह इंद्र आभरणस्वरूप श्री जिनेंद्र देव को उस ऐरावत हाथी पर विराजमान कर देवों के साथ सुमेरु पर्वत पर गया ॥40॥
वहाँ जाकर इंद्र ने सुमेरु पर्वत के अत्यंत रमणीय पांडुकवन में पांडुक नाम की प्रसिद्ध शिला पर जो सिंहासन था उस पर श्री जिन बालक को विराजमान किया, स्वर्णमय कुंभों में भरकर देवों द्वारा लाये हुए क्षीरसागर के जल से देवों के साथ उनका अभिषेक किया, वस्त्र, अलंकार तथा माला आदि से उन्हें अलंकृत कर उनकी स्तुति को, तदनंतर वापस लाकर माता की गोद में विराजमान किया, अन्य यथोचित कार्य किये और उनके माता-पिता राजा सिद्धार्थ तथा रानी प्रियकारिणी को समान आनंद देने वाले उन जिन बालक की वर्धमान इस नाम से स्तुति की तदनंतर वह देवों के साथ यथास्थान चला गया ॥41-44॥ भगवान के जन्म से पंद्रह मास पूर्व प्रतिदिन जो रत्नों की धाराएँ बरसी थीं उनसे समस्त याचक संतुष्ट हो गये थे ॥45॥ देवों के द्वारा सेवनीय वर्धमान भगवान् जिस-जिस प्रकार वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे उसी-उसी प्रकार पिता, बंधुजन तथा तीनलोक के जीवों का अनुराग वृद्धि को प्राप्त हो रहा था― बढ़ता जाता था ॥46॥
अथानंतर सुर, असुर और राजाओं के मुकुटों की मालाओं से जिनके चरण पूजित थे तथा जो देवोपनीत नाना प्रकार के भोगों से युक्त थे ऐसे भगवान महावीर तीस वर्ष के हो गये ॥47॥ फिर भी जिस प्रकार सिंह के कुटिल नखों के छिद्रों में मोती चिर काल तक नहीं ठहर पाते हैं उसी प्रकार उनका निर्मल चरित्र को धारण करने वाला चित्त भोगों में चिरकार तक नहीं ठहर सका ॥48॥ किसी समय शांत चित्त के धारक उन स्वयंबुद्ध भगवान् को सारस्वत-आदित्य आदि प्रमुख लोकांतिक देवों ने आकर तथा नमस्कार कर प्रतिबुद्ध किया ॥ 49॥ प्रतिबुद्ध विरक्त होते ही सौधर्मेंद्र आदि देवों ने आकर उनका अभिषेक और पूजन किया । तदनंतर देवों के द्वारा उठायी जाने वाली दिव्य पालकी पर सवार होकर वे जबकि चंद्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पर ही विद्यमान था तब मगसिर वदी दसमी के दिन वन को चले गये ॥50-51॥ वहाँ जाकर उन्होंने शरीर से समस्त वस्त्रमाला तथा आभूषण उतारकर अलग कर दिये और पंच मुष्टियों से केश उखाड़कर वे मुनि हो गये ॥52॥ भ्रमरों के समूह के समान काले-काले भगवान के घुँघराले बालों के समूह को इंद्र ने उठाकर क्षीरसागर में क्षेप दिया ॥53॥ उस समय इंद्र के द्वारा क्षेपे हुए जिनेंद्र भगवान के बालों के समूह से रंगा हुआ क्षीरसागर ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इंद्रनील मणियों के समूह से हो रंग गया हो ॥54॥ जिनेंद्र भगवान् की दीक्षा कल्याणक देख संतोष को प्राप्त हुए समस्त मनुष्य और देव तृतीय कल्याणक की पूजा कर यथा स्थान चले गये ॥55॥
तदनंतर मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार ज्ञानरूपी महानेत्रों को धारण करने वाले भगवान् ने बारह वर्ष तक अनशन आदिक बारह प्रकार का तप किया ॥56॥ तत्पश्चात् गुण समूहरूपी परिग्रह को धारण करने वाले श्री वर्धमान स्वामी विहार करते हुए ऋजुकूला नदी के तट पर स्थित जृंभिक गांव के समीप पहुंचे ॥57॥ वहाँ वैशाख सुदी दसमी के दिन दो दिन के उपवास का नियम कर वे साल वृक्ष के समीप स्थित शिलातल पर आतापन योग में आरूढ़ हुए ॥58॥ उसी समय जबकि चंद्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में स्थित था तब शुक्लध्यान को धारण करने वाले वर्धमान जिनेंद्र घातिया कर्मों के समूह को नष्ट कर केवलज्ञान को प्राप्त हुए ॥59 ॥ केवल ज्ञान के प्रभाव से सहसा जिनके आसन डोल उठे थे ऐसे समस्त सुर और असुरों ने आकर उनके केवलज्ञान की महिमा की-ज्ञानकल्याणक का उत्सव किया ॥60॥ तदनंतर छयासठ दिन तक मौन से बिहार करते हुए श्री वर्धमान जिनेंद्र जगत् प्रसिद्ध राजगृह नगर आये ॥61॥ वहाँ जिस प्रकार सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होता है उसी प्रकार वे लोगों को प्रतिबुद्ध करने के लिए विपुल लक्ष्मी के धारक विपुलाचलपर आरूढ़ हुए ॥62 ॥ तदनंतर जिनेंद्र भगवान के आगमन का वृत्तांत जान चारों ओर से आने वाले सुर और असुरों से जगत् इस प्रकार भर गया जिस प्रकार कि मानो जिनेंद्रदेव के गुणों से ही भर गया हो ॥63॥ उस समय सौधर्म आदि देवों से घिरा हुआ वह विपुलाचल ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि पहले श्री ऋषभ जिनेंद्र से अधिष्ठित कैलास पर्वत सुशोभित होता था ॥64॥
अथानंतर देवों ने रत्नमयी ऐसे तीन कोट बनाये जिनकी चारों दिशाओं में एक-एक प्रमुख द्वार होने से बारह गोपुर थे ॥65 ॥ एक योजन विस्तार वाला समवसरण बनाया जिसमें आकाश स्फटिक की दीवालों वाले बारह विभाग सुशोभित थे ॥66॥ आठ प्रातिहार्यों और चौंतीस अतिशयों से सहित भगवान् उस समवसरण में विराजमान हुए । वहाँ देवों से घिरे श्री वर्धमान ग्रहों से घिरे चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे ॥67॥ इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति तथा कौंडिन्य आदि पंडित इंद्र की प्रेरणा से श्री अरहंतदेव के समवसरण में आये ॥68॥ वे सभी पंडित अपने पाँच-पाँच सौ शिष्यों से सहित थे तथा सभी ने वस्त्रादि का संबंध त्यागकर संयम धारण कर लिया ॥ 69 ॥ उसी समय राजा चेटक की पुत्री चंदना कुमारी, एक स्वच्छ वस्त्र धारण कर आर्यिकाओं में प्रमुख हो गयो ॥ 70॥ राजा श्रेणिक भी अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ समवसरण में पहुंचा और वहाँ सिंहासन पर विराजमान श्रीवर्धमान जिनेंद्र को उसने नमस्कार किया ॥71॥ जिनेंद्र भगवान् की वह समवसरण भूमि, यथायोग्य स्थानों पर रखे हुए छत्र, चामर, शृंगार, कलश, ध्वजा, दर्पण, पंखा और ठोना इन आठ प्रसिद्ध मंगल द्रव्यों से, माला, चक्र, दुकूल, कमल, हाथी, सिंह, वृषभ और गरुड़ के चिह्नों से युक्त आठ प्रकार की महाध्वजाओं से, मानस्तंभों-स्तूपों से, चार महावनों से, वापिकाओं में प्रफुल्लित कमल-समूहों से, लताओं के वनों में बने हुए लतागृहों-निकुंजों से तथा देवों के द्वारा निर्मित अन्य सभी प्रकार के उन-उन प्रसिद्ध अतिशयों से सुशोभित हो रही थी ॥ 72-75 ॥
अथानंतर जिस प्रकार चंद्रमा के समीप गुरु अर्थात् बृहस्पति से अधिष्ठित शुक्रादि ग्रह सुशोभित होते हैं उसी प्रकार श्रीवर्धमान जिनेंद्र के समीप प्रथम कोण में गुरु अर्थात् अपने-अपने दीक्षागुरुओं से अधिष्ठित, निर्दोष दिगंबर मुद्रा को धारण करने वाले अनेक मुनि सुशोभित हो रहे थे ॥76॥ तदनंतर द्वितीय कोठा में कल्पलताओं के समान भुजाओं को धारण करने वाली कल्पवासिनी देवियाँ स्थित थीं और वे जिनेंद्र के समीप इस प्रकार सुशोभित हो रही थीं जिस प्रकार कि सुमेरु के समीप भोगभूमियाँ सुशोभित होती हैं ॥77॥ तदनंतर तृतीय कोठा में नाना प्रकार के अलंकारों से अलंकृत स्त्रियों के साथ आर्यिकाओं की पंक्ति इस प्रकार सुशोभित हो रही थी जिस प्रकार कि चमकती हुई बिजलियों से आलिंगित शरदऋतु की मेघपंक्ति सुशोभित होती है ॥78 ॥ इनके बाद चतुर्थ कोठा में उज्ज्वल शरीर की धारक ज्योतिष्क देवों की स्त्रियाँ सुशोभित हो रही थीं । वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो समवसरणरूपी सागर में प्रतिबिंबित तारा ही हों ॥79॥ उनके बाद पंचम कोठा में हस्तरूपी कुंडलों को धारण करने वाली व्यंतर देवों की स्त्रियां साक्षात् वन को लक्ष्मी के समान सुशोभित हो रही थीं ॥80॥ तत्पश्चात् षष्ठ कोठा में नागलोक से आयी हुई नागवेल के समान उज्ज्वल फणाओं को धारण करने वाली नागकुमार आदि भवनवासी देवों की देवियाँ सुशोभित हो रही थीं ॥81॥ तदनंतर सप्तम कोठा में पाताललोक में रहने वाले एवं उज्ज्वल वेष के धारक अग्निकुमार आदि दस प्रकार के भवनवासी देव सुशोभित हो रहे थे ॥ 82॥ तत्पश्चात् अष्टम कोठा में किन्नर, गंधर्व, यक्ष तथा किंपुरुष आदि आठ प्रकार के व्यंतर देव सुशोभित हो रहे थे ॥ 83 ॥ उसके बाद नवम कोठा में प्रकीर्णक, नक्षत्र, सूर्य, चंद्रमा और ग्रह ये पाँच प्रकार के विशाल शरीर के धारक ज्योतिषी देव सुशोभित हो रहे थे ॥84॥ तदनंतर दसमकोठा में मुकुट, कुंडल, केयूर, हार और कटिसूत्र को धारण करने वाले कल्पवृक्ष के समान कल्पवासीदेव सुशोभित हो रहे थे । तत्पश्चात् एकादस कोठा में पुत्र, स्त्री आदि से सहित अनेक विद्याधरों से युक्त नाना प्रकार की भाषा, वेष और कांति को धारण करने वाले मनुष्य बैठे थे ॥85-86॥ और उनके बाद द्वादस कोठा में जिनेंद्रभगवान के प्रभाव से जिन्हें विश्वास उत्पन्न हुआ था तथा जो अत्यंत शांत चित्त के धारक थे ऐसे सर्प, नेवला, गजेंद्र, सिंह, घोड़ा और भैंस आदि नाना प्रकार के तिर्यंच बैठे थे ॥ 87 ।꠰ इस प्रकार जब बारह कोठों में बारह गण, जिनेंद्रभगवान के चारों ओर प्रदक्षिणारूप से परिक्रमा, स्तुति और नमस्कार कर विद्यमान थे तब समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष देखने वाले एवं राग, द्वेष और मोह इन तीनों दोषों का क्षय करने वाले पापनाशक श्री जिनेंद्रदेव से गौतम गणधर ने तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए पूछा― प्रश्नकिया ॥88-89॥
तदनंतर श्रीवर्धमान प्रभु ने श्रावण मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के प्रातःकाल के समय अभिजित् नक्षत्र में समस्त संशयों को छेदने वाले, दुंदुभि के शब्द के समान गंभीर तथा एक योजन तक फैलने वाली दिव्यध्वनि के द्वारा शासन की परंपरा चलाने के लिए उपदेश दिया ॥90-91 ॥ प्रथम ही भगवान महावीर ने आचारांग का उपदेश दिया फिर सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, श्रावकाध्ययनांग, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिक दशांग, प्रश्न व्याकरणांग और पवित्र अर्थ से युक्त विपाकसूत्रांग इन ग्यारह अंगों का उपदेश दिया ॥92-94॥ इसके बाद जिसमें तीन सौ त्रैसठ ऋषियों का कथन है तथा जिसके पांच भेद हैं ऐसे बारहवें दृष्टिवाद अंग का सर्वदर्शी भगवान् ने निरूपण किया ॥95॥ जगत् के स्वामी तथा ज्ञानियों में अग्रसर श्रीवर्धमान जिनेंद्र ने प्रथम ही परिकर्म, सूत्रगत, प्रथमानुयोग और पूर्वगत भेदों का वर्णन किया― फिर पूर्वगत भेद के उत्पाद पूर्व, अग्रायणीय पूर्व, वीर्यप्रवाद पूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व कर्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणपूर्व, प्राणावायपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिंदुसार पूर्व इन चौदह पूर्वों का तथा वस्तुओं से सहित चूलिकाओं का वर्णन किया ॥96-100॥ इस प्रकार श्रीजिनेंद्रदेव ने अंगप्रविष्ट तत्त्व का वर्णन कर अंगबाह्य के चौदह भेदों का वास्तविक वर्णन किया । प्रथम ही उन्होंने सार्थक नाम को धारण करने वाले सामयिक प्रकीर्णक का वर्णन किया तदनंतर चतुर्विंशति स्तवन, पवित्र वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दसवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पा कल्प, महाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरीक तथा जिसमें प्रायः प्रायश्चित्त का वर्णन है ऐसी निषद्य का इन चौदह प्रकीर्णकों का वर्णन हित करने में उद्यत तथा जगत् त्रय के गुरु श्रीवर्धमान जिनेंद्र ने किया ॥101-105 ॥ इसके बाद भगवान् ने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पांच ज्ञानों का स्वरूप, विषय, फल तथा संख्या बतलायी और साथ ही यह भी बतलाया कि उक्त पाँच ज्ञानों में प्रारंभ के दो ज्ञान परोक्ष और अन्य तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ॥ 106 ॥ तदनंतर चौदह मार्गणा स्थान, चौदह गुणस्थान और चौदह जीवसमास के द्वारा जीव द्रव्य का उपदेश दिया ॥ 107॥ तत्पश्चात् सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव और अल्प-बहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारों से तथा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों से द्रव्य का निरूपण किया । उन्होंने यह भी बताया कि पुद्गल आदिक द्रव्य अपने-अपने लक्षणों से भिन्न-भिन्न हैं और सामान्य रूप से सभी उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य रूप त्रिलक्षण से युक्त हैं ॥108 ॥ शुभ-अशुभ के भेद से कर्मबंध के दो भेद बतलाये, उनके पृथक्-पृथक् कारण समझाये, शुभबंध सुख देने वाला है और अशुभबंध दुःख देने वाला है यह बताया । मोक्ष का स्वरूप मोक्ष का कारण और अनंत ज्ञान आदि आठ गुणों का प्रकट हो जाना मोक्ष का फल है यह सब समझाया ॥109॥ जो अनंत अलोकाकाश के मध्य में स्थित है तथा जहाँ बंध और मोक्ष का फल भोगा जाता है उसे लोक कहते हैं । इस लोक के ऊर्ध्व-मध्य और पाताल के भेद से तीन भेद हैं । लोक के बाहर का जो आकाश है उसे अलोक कहते हैं ॥110 ॥ अथानंतर सप्त ऋद्धियों से संपन्न गौतम गणधर ने जिनभाषित पदार्थ का श्रवण कर उपांग सहित द्वादशांगरूप श्रुतस्कंध की रचना की ॥111॥ उस समय समवसरण में जो तीनों लोकों के जीव बैठे हुए थेवेजिनेंद्ररूपी सूर्य के वचनरूपी किरणों का स्पर्श पाकर सोये से उठे हुए के समान सुशोभित होने लगे और उनकी मोहरूपी महानिद्रा दूर भाग गयी ॥112॥ ओठों के बिना हिलाये ही निकली हुई भगवान् की वाणी ने तिर्यंच, मनुष्य तथा देवों का दृष्टिमोह नष्ट कर दिया था ॥113॥ तदनंतर जिनेंद्र भगवान के द्वारा कथित तत्त्वार्थ और मार्ग का श्रद्धान करना ही जिसका लक्ष है, जो शंका, कांक्षा, निदान आदि दोषों के अभाव से उज्ज्वल है तथा सम्यग्ज्ञान रूपी अलंकार का स्वामी है ऐसे सम्यग्दर्शनरूपी समीचीन रत्न को समस्त प्राणियों ने अपने कानों तथा हृदय में धारण किया ॥114-115॥ काय, इंद्रियां, गुणस्थान, जीवस्थान, कुल और आयु के भेद तथा योनियों के नाना विकल्पों का आगमरूपी चक्षु के द्वारा अच्छी तरह अवलोकन कर बैठने-उठने आदि क्रियाओं में छह काय के जीवों के वध-बंधनादिक का त्याग करना प्रथम अहिंसा महाव्रत कहलाता है ॥116-117॥ राग, द्वेष अथवा मोह के कारण दूसरों के संताप उत्पन्न करने वाले जो वचन हैं उनसे निवृत्त होना सो द्वितीय सत्य महाव्रत है ॥118॥ बिना दिया हुआ परद्रव्य चाहे थोड़ा हो चाहे बहुत उसके ग्रहण का त्याग करना सो तृतीय अचौर्य महाव्रत है ॥119॥ कृत, कारित और अनुमोदना से स्त्री-पुरुष का त्याग करना सो चतुर्थ ब्रह्मचर्याणुव्रत कहा गया है ॥120॥ परिग्रह के दोषों से सहित समस्त बाह्याभ्यंतरवर्ती परिग्रहों से विरक्त होना सो पंचम अपरिग्रह महाव्रत है ॥121॥ नेत्रगोचर जीवों के समूह को बचाकर गमन करने वाले मुनि के प्रथम ईर्यासमिति होती है । यह ईर्यासमिति व्रतों में शुद्धता उत्पन्न करने वाली मानी गयी है ॥122॥ सदा कर्कश और कठोर वचन छोड़कर यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले यति का धर्मकार्यों में बोलना भाषा समिति कहलाती है ॥123॥ शरीर की स्थिरता के लिए पिंडशुद्धिपूर्वक मुनि का जो आहार ग्रहण करना है वह एषणा समिति कहलाती है ॥ 124॥ । देखकर योग्य वस्तु का रखना और उठाना सो आदाननिक्षेपण समिति है ॥125 ॥ प्रासुक भूमि पर शरीर के भीतर का मल छोड़ना सो प्रतिष्ठापन समिति है ॥126॥ इस प्रकार इन पाँच समितियों का तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग की शुद्ध प्रवृत्तिरूप तीन गुप्तियों का पालन करना चाहिए ॥127॥ मन, और इंद्रियों का वश करना, समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं का पालन करना, केश लोंच करना, स्नान नहीं करना, एक बार भोजन करना, खड़े-खड़े भोजन करना, वस्त्र धारण नहीं करना, पृथ्वी पर शयन करना, दंत मल दूर करने का त्याग करना, बारह प्रकार का तप, बारह प्रकार का संयम, चारित्र, परीषहविजय, बारह अनुप्रेक्षाएँ, उत्तमक्षमादि दसधर्म, ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और तपविनय की सेवा, इस प्रकार सुर, असुर और मनुष्यों के सम्मुख श्री जिनेंद्र भगवान् ने कर्मक्षय के कारणभूत जिस मुनिधर्म का वर्णन किया था उसे उन सैकड़ों मनुष्यों ने स्वीकृत किया था जो संसार से भयभीत थे, शुद्ध जातिरूप और कुल को धारण करने वाले थे तथा सब प्रकार के परिग्रह से रहित थे ॥128-132॥ सम्यग्दर्शन से शुद्ध तथा एक पवित्र वस्त्र को धारण करने वाली हजारों शुद्ध स्त्रियों ने आर्यिका के व्रत धारण किये ॥133॥ कितने ही स्त्री-पुरुषों ने पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये श्रावक के बारह व्रत धारण किये ॥134॥ तिर्यंचों ने भी यथाशक्ति नियम धारण किये और देव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा जिनपूजा में लीन हुए ॥135॥ राजा श्रेणिक ने पहले बहुत आरंभ और परिग्रह के कारण तमस्तमः नामक सातवें नरक को जो उत्कृष्ट स्थिति बाँध रखी थी उसे, क्षायिकसम्यग्दर्शन के प्रभाव से प्रथम पृथ्वी संबंधी चौरासी हजार वर्ष की मध्यम स्थितिरूप कर दिया ॥136-137॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि कहां तो तैंतीस सागर और कहां यह जघन्यस्थिति? अहो, क्षायिकसम्यग्दर्शन का यह अद्भुत लोकोत्तर माहात्म्य है ॥138॥ राजा श्रेणिक के अक्रूर, वारिषेण और अभयकुमार आदि पुत्रों ने, इनकी माताओं ने तथा अंतःपुर की अन्य अनेक स्त्रियों ने सम्यग्दर्शन, शील, दान, प्रोषध और पूजन का नियम लेकर त्रिजगद̖गुरु श्री वर्धमान जिनेंद्र को नमस्कार किया ॥ 139-140 ॥
तदनंतर इंद्र, स्तुति पूर्वक श्री जिनेंद्रदेव को नमस्कार कर अपने परिवार के साथ यथायोग्य अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥141॥ भावों की उत्तम श्रेणी पर आरूढ़ हुआ राजा श्रेणिक भी श्री वर्धमान जिनेंद्र की स्तुति कर तथा नमस्कार कर संतुष्ट होता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ ॥142॥ क्षोभ को प्राप्त हुए नदी के पूरों से सुशोभित हो जाती है उसी प्रकार उस समय वह सभा भीतर प्रवेश करते तथा बाहर निकलते हुए जन-समूहों से क्षुभित हो रही थी ॥143 ॥ अर्हंत भगवान् का वह सभामंडल मनुष्यों से सदा व्याप्त ही दिखाई देता था सो ठीक ही है क्योंकि सूर्यमंडल अपनी विस्तृत किरणों से कब रहित होता है ? अर्थात् कभी नहीं ॥144॥ वहाँ धर्मचक्र और भामंडल की कांति के कारण सूर्यबिंब के उदय-अस्त का पता नहीं चलता था ॥145॥ वहाँ विपूलाचल पर धर्मोपदेश करने वाले श्री तीर्थंकर भगवान को राजा श्रेणिक प्रतिदिन सेवा करता था अर्थात् वह प्रतिदिन आकर उनका धर्मोपदेश श्रवण करता था सो ठीक ही है क्योंकि त्रिवर्ग के सेवन से किसी को तृप्ति नहीं होती ॥146 ॥ वह राजा श्रेणिक, गौतम गणधर को पाकर उनके उपदेश से सब अनुयोगों में प्रवीण हो गया ॥147॥ तदनंतर राजा श्रेणिक ने जिन में निरंतर महिमा और उत्सव होते रहते थे ऐसे ऊंचे-ऊँचे जिनमंदिरों से उस राजगृह नगर को भीतर और बाहर व्याप्त कर दिया ॥148॥ राजा के भक्त सामंत, महामंत्री, पुरोहित तथा प्रजा के अन्य लोगों ने समस्त मगध देश को जिनमंदिरों से युक्त कर दिया ॥149 ॥ वहाँ नगर, ग्राम, घोष, पर्वतों के अग्रभाग, नदियों के तट और वनों के अंत प्रदेशों में― सर्वत्र जिन मंदिर ही जिनमंदिर दिखाई देते थे ॥150॥ इस प्रकार जो महान् अभ्युदय में स्थित थे, मोहरूपी अंधकार की उन्नति को नष्ट कर रहे थे, मिथ्याज्ञानरूपी हिम का अंत करने वाले थे तथा ज्ञानरूपी प्रभामंडल से सहित थे ऐसे श्री वर्धमान जिनेंद्ररूपी सूर्य ने पूर्व देश को प्रजा के साथ-साथ मगध देश की प्रजा को प्रबुद्ध कर मध्याह्न को शोभा धारण करने वाले विशाल मध्य देश की ओर उसी पूर्वोक्त विभूति के साथ गमन किया ॥151॥
इस प्रकार जिसमें भगवान् अरिष्टनेमि के पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे श्री जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में धर्मतीर्थ प्रवर्तन नाम का दूसरा सर्ग समाप्त हुआ ॥2॥