ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 48
From जैनकोष
अथानंतर गौतम गणधर ने कहा कि हे श्रेणिक ! अब मैं आगमानुसार क्रम से शंब तथा सुभानु कुमार की मनोहर उत्पत्ति का वर्णन करता हूँ तुम सुनो ॥1॥
राजा मधु का भाई कैटभ जिसका पहले वर्णन आ चुका है, अच्युत स्वर्ग में देव हुआ था । जब उसकी वहाँ की आयु समाप्त होने को आयी तब वह सत्यभामा के लिए पुत्र की इच्छा रखने वाले श्रीकृष्ण के लिए एक सुंदर हार दे गया ॥2॥ सायंकाल के समय प्रद्युम्न के प्रयोग से सत्यभामा का रूप धारणकर रानी जांबवती ने कृष्ण के साथ उपभोग कर वह हार प्राप्त कर लिया ॥3॥ पुण्य के उदय से उसी समय अखंड अभ्युदय को धारण करने वाला कैटभ का जीव स्वर्ग से च्युत हो जांबवती के गर्भ में आ गया । गर्भ धारण कर रानी जांबवती अपने घर आ गयी ॥4॥ तदनंतर सत्यभामा भी कृष्ण के पास पहुंची और काम के उदय को प्राप्त हो श्रीकृष्ण के साथ रमणकर उसने भी स्वर्ग से च्युत किसी शिशु को गर्भ में धारण किया ॥5॥ तदनंतर दोनों रानियों का गर्भ बढ़ने लगा और जिस प्रकार चंद्रमाओं के बढ़ने पर समुद्रों का हर्ष बढ़ने लगता है उसी प्रकार उन दोनों रानियों के गर्भ के बढ़ने पर माता-पिता तथा कुटुंबी जनों का हर्ष बढ़ने लगा ॥6॥ तदनंतर नौ माह पूर्ण होने पर रानी जांबवती ने शंब नामक पुत्र को और रानी सत्यभामा ने सूर्य के समान देदीप्यमान सुभानु नामक पुत्र को उत्पन्न किया ॥7॥ इधर अभ्युदय को प्राप्त प्रद्युम्न और शंब से रुक्मिणी तथा जांबवती हर्ष को प्राप्त हुई उधर भानु और सुभानु से सत्यभामा भी अत्यधिक हर्षित हुई ॥8॥ कृष्ण की अन्य स्त्रियों में भी यथायोग्य अनेक पुत्र उत्पन्न हुए जो यादवों के हृदय को आनंद देने वाले तथा सत्य, पराक्रम और यश से अत्यधिक सुशोभित थे ॥9॥ सैकड़ों कुमारों से सेवित पराक्रमी शंब, समस्त क्रीड़ाओं में सुभानु को दबा देता था और उसे जीतकर सातिशय क्रीड़ा करता था ॥10॥
रुक्मिणी के भाई रुक्मी की एक वैदर्भी नाम की कन्या थी । रुक्मिणी ने उसे प्रद्युम्न के लिए मांगा परंतु रुक्मी ने पूर्व विरोध के कारण उसके लिए वह कन्या न दी ॥11॥ यह सुन शंब और प्रद्युम्न दोनों भील के वेष में गये और रुक्मी को पराजित कर बलपूर्वक उस कन्या को हर लाये ॥12॥ तदनंतर दूसरी लक्ष्मी के समान सुंदर उस कन्या को विवाहकर प्रद्युम्न द्वारिका नगरी में उसे मनोहर भोगों से शीघ्र ही क्रीड़ा कराने लगा ॥13॥ शंब जुआ खेलने में बहुत चतुर था । एक दिन उसने सबके देखते-देखते जुआ में सुभानु का सब धन जीत लिया और सब लोगों को बांट दिया ॥14॥ नाना प्रकार की बोली बोलने वाले पक्षियों की क्रीड़ा से शंब ने सुभानु कुमार को जीत लिया । एक दिन कृष्ण की सभा में दोनों कुमारों के बीच सुगंधि की परख में शास्त्रार्थ हो पड़ा जिसमें शंब ने सुभानु को पुनः हरा दिया ॥15॥ एक बार उसने अग्नि में शुद्ध किये हुए दो दिव्य वस्त्रों तथा दिव्य अलंकारों को प्राप्त कर राजा कृष्ण की सभा में सुभानु को जीत लिया ॥16॥ एक बार अपना बल दिखाकर उसने सुभानु कुमार को ऐसा जीता कि कृष्ण महाराज उस पर एक दम प्रसन्न हो गये । कृष्ण ने उससे वर मांगने का आग्रह किया जिससे एक माह का राज्य प्राप्त कर उसने बहुत विपरीत क्रियाएं कीं ॥17॥ प्रणय कोप को धारण करने वाले कृष्ण ने उस दुरा चारी शंब को बहुत ताड़ना दी । एक दिन शंबकुमार कन्या का रूप धारण कर रथ में सवार हो सत्यभामा को गोद में जा प्रविष्ट हुआ ॥18॥ सत्यभामा ने समझा कि यह कन्या मेरे पुत्र सुभानु के लिए ही लायी गयी है इसलिए उसने सुभानु के साथ विवाह करा दिया परंतु विवाह के बाद ही शंबकुमार ने लोगों के देखते-देखते अपना असली रूप प्रकट कर दिया ॥19॥ उसने एक ही रात्रि में सौ कन्याओं के साथ विवाह संबंधी मांगलिक स्नान कर अपनी माता जांबवती को बहुत सुखी किया ॥20॥ इंद्र के समान कीर्ति को धारण करने वाले सत्यभामा आदि रानियों के सैकड़ों कुमार भी उस समय अनेक कन्याओं को विवाह कर इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे ॥21॥ एक दिन शंब अपने मान्य पितामह वसुदेव के घर गया और प्रणाम कर क्रीड़ापूर्वक इस प्रकार कहने लगा― हे पूज्य ! आपने पृथिवी पर बहुत समय तक क्लेश उठाते हुए भ्रमण किया तब कहीं आप विद्याधरों की पूज्य एवं मनोहर कन्याएँ प्राप्त कर सके परंतु मैंने घर बैठे बिना किसी क्लेश के एक ही रात्रि में सौ कन्याओं के साथ विवाह कर लिया । आप हम दोनों के अंतर को देखिए ॥22-24॥ यह सुन वसुदेव ने कहा कि वत्स ! तू बाण के समान दूसरे से (प्रद्युम्न से) प्रेरित हो चलता है और फिर तेरी चाल भी कहाँ है ? सिर्फ घर में ही । इसीलिए हम दोनों में बहुत अंतर है ॥25 ॥ मैं विद्याधरों के नगररूपी समुद्रों का मगर हूं और तु द्वारिकारूपी कूप का मेढक है फिर भी हे पंडितमन्य ! तू अपने आपको मेरे समान मानता है ॥26॥ मैंने विद्याधरों के नगरों में जो कुछ अनुभव किया, देखा तथा सुना है वह अत्यंत मनोहारी है और दूसरों के लिए अतिशय दुर्लभ है ॥27॥ वसुदेव के इस प्रकार कहने पर शंब ने नमस्कार कर आदरपूर्वक उनसे कहा कि हे आर्य ! मैं आपका वृत्तांत सुनना चाहता हूँ कृपा कर कहिए ॥28॥ इसके उत्तर में वसुदेव ने कहा कि हे वत्स ! तू आनंदभेरी बजवाकर समस्त यादवों को इसकी सूचना दे । सबके लिए मैं साथ ही अपना चरित्र कहूँगा ॥29॥ तदनंतर आनंदभेरी के बजवाने पर जब स्त्री-पुत्रादि सहित समस्त यादव एकत्रित हो गये तब वसुदेव ने उनके लिए विस्तारपूर्वक अपना सब वृत्तांत कहा ॥30॥ उन्होंने लोकालोक विभाग का वर्णन किया, हरिवंश की परंपरा का निरूपण किया, अपनी क्रीड़ाओं का कथन किया, सौर्यपुर के लोगों ने राजा समुद्रविजय से मेरी क्रीड़ाओं से होने वाली लोगों को विपरीत चेष्टाएँ कहीं, तदनंतर मैं छल से सौर्यपुर से निकलकर बाहर चला गया यह निरूपण किया । इस प्रकार प्रद्युम्न और शंब की उत्पत्ति तथा उनकी विभूति पर्यंत अपना मनुष्य तथा विद्याधरों से संबंध रखने वाला दिव्य चरित कह सुनाया ॥ 31-32 ॥ वसुदेव के अंतः पुर में जो विद्याधर स्त्रियाँ थीं वे सब उनका यह चरित सुन पूर्व वृत्तांत को स्मरण करती हुई अत्यंत हर्षित हुई ॥33॥ सभासद लोग, वद्ध पुरुष, स्त्री, युवा बालक, समस्त यदुवंशी, इनके अंतःपुर, पांडव तथा द्वारिका के अन्य लोग, वसुदेव के उक्त चरित को सुनकर परम आश्चर्य को प्राप्त हुए और शिवा आदि देवियां वसुदेव के इस कथारूपी रस का पान कर संशयरहित हो उनको प्रशंसा करने लगीं ॥34-35 ॥ सुगंधित वस्त्रों को धारण करने वाले सब राजा यथायोग्य अपने-अपने स्थानों पर चले गये और सबके अंतःपुर भी पहरेदारों से सुरक्षित हो अपने-अपने स्थानों पर पहुंच गये ॥36॥ अनेक आश्चर्यों से युक्त वसुदेव की कथा फिर से ताजी हो गयी और पुनः प्रति दिन घर-घर होने लगी ॥37॥
तदनंतर नमस्कार कर पूछने वाले राजा श्रेणिक के लिए गौतम गणधर, भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि के अनुसार कुछ कुमारों का इस प्रकार वर्णन करने लगे ॥38॥
धर, गुणधर, युक्तिक, दुर्धर, सागर और चंद्र ये राजा उग्रसेन के पुत्र थे ॥39 ॥ महासेन, शिवि, स्वस्थ, विषद और अनंतमित्र ये उग्रसेन के चाचा राजा शांतन के पुत्र थे ॥40॥ इनमें महासेन के सुषेण, विषमित्र के हृदिक, शिवि के सत्यक, हदिक के कृतिधर्मा और दृढधर्मा, सत्यक के वज्रधर्मा और वज्रधर्मा के असंग नाम का पुत्र हुआ ॥ 41-42॥ राजा समुद्रविजय के महानेमि, सत्यनेमि, दृढ़नेमि, भगवान् अरिष्टनेमि, सुनेमि, जयसेन, महीजय, सुफल्गु, तेज:सेन, मय, मेघ, शिवनंद, चित्रक और गोतम आदि अनेक पुत्र हुए ॥43-44॥ अक्षोभ्य के अपने वचनों से समुद्र को क्षुभित करने वाला उद्धव, अंभोधि, जलधि, वामदेव और दृढव्रत ये पांच पुत्र प्रसिद्ध थे । स्तिमितसागर से ऊर्मिमान्, वसुमान, वीर और पातालस्थिर ये चार पुत्र उत्पन्न हुए थे ॥45-46॥ राजा विद्युत्प्रभ, माल्यवान्, और गंधमादन ये तीन हिमवत् के पुत्र थे तथा ये तीनों ही सत्यव्रत और पराक्रम से युक्त थे ॥47निष्कंप, अकंपन, वलि, युगंत, केशरिन् और बुद्धिमान् अलंबुष ये छह पुत्र विजय के प्रसिद्ध थे ॥48॥ महेंद्र, मलय, सह्य, गिरि, शैल, नग और अचल, सार्थक नामों को धारण करने वाले ये सात पुत्र अचल के थे ॥49॥ वासुकि, धनंजय, कर्कोटक, शतमुख और विश्वरूप ये पांच पुत्र धरण के थे ॥ 50॥ दुष्पूर, दुर्मुख, दुर्दर्श और दुर्धर, चतुर क्रियाओं को धारण करने वाले ये चार पुत्र पूरण के थे ॥51॥ चंद्र, शशांक, चंद्राभ, शशिन, सोम और अमृतप्रभ चंद्रमा के समान निर्मल कीर्ति को धारण करने वाले ये छह पुत्र अभिचंद्र के थे ॥52॥ और वसुदेव के महाबलवान् अनेक पुत्र थे । हे श्रेणिक ! मैं यहाँ उनमें से कुछ के नाम कहता हूँ सो सुन ॥53॥
वसुदेव की विजयसेना रानी से अक्रूर और क्रूर नाम के दो पुत्र हुए थे । श्यामा नामक रानी से ज्वलन और अग्निवेग ये दो पुत्र उत्पन्न हुए थे ॥54॥ गंधर्वसेना से वायुवेग, अमितगति और महेंद्रगिरि ये तीन पुत्र हुए थे । ये तीनों पुत्र ऐसे जान पड़ते थे मानो तीनों लोक ही हो ॥55॥ मंत्री की पुत्री पद्मावती से दारु, वृद्धार्थ और दारुक ये तीन पुत्र हुए ॥56॥ नीलयशा के सिंह और मतंगज ये दो धीर-वीर पुत्र थे । सोमश्री के नारद और मरुदेव ये दो पुत्र थे ॥57॥ मित्रश्री से सुमित्र, कपिला से कपिल और पद्मावती से पद्म तथा पद्मक ये दो पुत्र हुए थे ॥58॥ अश्वसेना से अश्वसेन, पोंडा से पौंड्र और रत्नवती से रत्नगर्भ तथा सुगर्भ ये दो पुत्र हुए थे ॥59॥ सोमदत्त की पुत्री से चंद्रकांत और शशिप्रभ तथा वेगवती से वेगवान् और वायुवेग ये दो पुत्र हुए थे ॥60॥
दृढ़मुष्टि, अनावृष्टि और हिममुष्टि ये तीन पुत्र मदनवेगा से उत्पन्न हुए थे । ये तीनों ही पुत्र कामदेव की उपमा को प्राप्त थे ॥61॥ बंधुषेण और सिंहसेन ये बंधुमती के पुत्र थे तथा शीलायुध प्रियंगसुंदरी का पुत्र था ॥62॥ रानी प्रभावती से गंधार और पिंगल ये दो तथा रानी जरा से जरत्कुमार और वाह्लीक ये दो पुत्र हुए थे ॥63॥ अवंती से सुमुख, दुर्मुख और महारथ, रोहिणी से बलदेव, सारण तथा विदूरथ, बालचंद्रा से वज्रदंष्ट्र और अमितप्रभ और देवकी से कृष्ण पुत्र हुए थे । इस प्रकार वसुदेव के पुत्रों का वर्णन किया ॥64-65॥
उन्मुंड, निषध, प्रकृतिद्युति, चारुदत्त, ध्रुव, पीठ, शक्रंदमन, श्रीध्वज, नंदन, धीमान्, दशरथ, देवनंद, विद्रुम, शंतनु, पृथु, शतधनु, नरदेव, महाधनु और रोमशैत्य को आदि लेकर बलदेव के अनेक पुत्र थे ॥66-68॥ भानु, सुभानु, भीम, महाभानु, सुभानुक, बृहद्रथ, अग्निशिख, विष्णुंजय, अकंपन, महासेन, धीर, गंभीर, उदधि, गौतम, वसुधर्मा, प्रसेनजित्, सूर्य, चंद्रवर्मा, चारुकृष्ण, सुचारु, देवदत्त, भरत, शंख, प्रद्युम्न तथा शंब मादि कृष्ण के पुत्र थे । ये सभी पुत्र शस्त्र, अस्त्र तथा शास्त्र में निपुण और युद्ध में कुशल थे ॥69-72 ॥ उन यशस्वी यादवों के पुत्र और पौत्र, बुआ के लड़के तथा भानजे भी हजारों की संख्या में थे ॥73॥ इस प्रकार सब मिलाकर महाप्रतापी तथा कामदेव के समान सुंदररूप को धारण करने वाले साढ़े तीन करोड़ कुमार, क्रीड़ा के प्रेमी हो निरंतर क्रीड़ा करते रहते थे ॥74॥
निरंतर रथ तथा हाथियों पर सवार हो बाहर निकलते तथा भीतर प्रवेश करते हुए, नाना वेषों के धारक, प्रबल पराक्रमी और नगरवासी प्रजा को आनंद उत्पन्न करने वाले इन वीर कुमारों से युक्त द्वारावती नगरी उस समय भवनवासी देवों से युक्त पातालपुरी के समान सुशोभित हो रही थी ॥ 75॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि प्रायः स्वर्ग से च्युत होकर आये हुए तथा जिनेंद्र प्रणीत मार्ग का अनुसरण करने से सातिशय पुण्य का संचय करने वाले इन प्रशंसनीय उत्तम यदुकुमारों के इस कहे जाने वाले चरित को जो बुद्धिमान् मनुष्य एकाग्रचित्त होकर सुनते हैं तथा श्रद्धान करते हैं वे समस्त रोगों को दूर कर कौमार और यौवन अवस्था का उपभोग करते हैं उनकी वृद्धावस्था छूट जाती है ॥76॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में यदुवंश के कुमारों का नामोल्लेख करने वाला अड़तालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥4॥