ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 49
From जैनकोष
अथानंतर कृष्ण की छोटी बहन जगत् में उत्तम, चंद्रमा के समान निर्मल यश को धारण करने वाली एवं मनोहर गुणरूपी आभूषणों से भूषित यशोदा की पुत्री (जो कृष्ण के बदले में आयी थी) ने अतिशय प्रसिद्ध प्रथम यौवन के बहुत भारी भार को धारण किया ॥1॥ जिनके अंगुलिरूपी पल्लव श्रेष्ठ नखरूपी चंद्रमंडल से सुशोभित थे, जिन्होंने अपनी स्वाभाविक ललाई से देदीप्यमान महावर की हंसी की थी तथा जो अग्रभाग में समान रूप से ऊँचे उठे हुए थे ऐसे उसके कोमल चरण-कमलों की उपमा उस समय लज्जा से ही मानो संसार में कहीं चली गयी थी । उसके कोमल चरण-कमल अनुपम थे॥2॥ जो अत्यंत मजबूत एवं गूढ गांठों और घुटनों से मनोहर थी, उत्तरोत्तर बढ़ती हुई गोलाई से सुशोभित एवं रोमरहित थी, नितंबों का बहुत भारी भार धारण करने में समर्थ थी और जो परस्पर के प्रतिस्पर्धी मल्ल के समान जान पड़ती थी ऐसी उसकी अनुपम जंघाओं की उस समय कहीं उपमा नहीं रही ॥3॥ जो कोमल गोल और शुभ्र थे, जिनसे अत्यधिक स्थायी एवं श्रेष्ठ कांति चल रही थी, जो दीप्तिरूपी रस से परिपूर्ण थे, हाथी की सूंड़ और गोल कदली की सुकुमारता को उल्लंघन कर विद्यमान थे, अतिशय प्रसिद्ध थे और यथार्थ गुणों से युक्त थे, ऐसे उसके दोनों ऊरु उस समय अत्यधिक सुशोभित होने लगे ॥4॥ कलहंस के समान सुंदर चाल से सुशोभित उस कन्या की स्थूल जघन स्थली, अनेक रसों से परिपूर्ण वर्ण वाले कुलाचलों से उत्पन्न स्त्रियों के लिए हर्ष उत्पन्न करने वाले पुण्यरूपी, नदी की उस पुलिन भूमि-तट भूमि के समान सुशोभित होने लगी जो काम को अभूमि― अगोचर तथा नितंबरूपी सुंदर तटों से युक्त थी ॥5॥ वह कन्या, सूक्ष्म, कोमल और अत्यंत काली रोमराजि से, मनुष्यों के नेत्रों को आनंद देने वाली अपनी नाभि की गहराई से और शरीर के मध्य में स्थित त्रिवलियों-तीन रेखाओं को विचित्रता से संसार की समस्त सुंदर स्त्रियों के बीच अत्यधिक सुशोभित होने लगी ॥6॥ वक्षःस्थल पर अत्यंत नील चूचुक से युक्त कठोर गोल और स्थूल स्तनों का भार धारण करने से वह कन्या ऐसी सुशोभित होने लगी मानो अमृत रस का घर खिरकर कहीं नष्ट न हो जाये इस भय से इंद्रनील मणि को मजबूत मुहर से युक्त देदीप्यमान सुवर्ण के दो कलश ही धारण कर रही हो ॥7॥ शिरीष के फूल के समान कोमल मोटी और उत्तम कंधों से युक्त, उत्तम कमल की कांति के समूह के समान लाल-लाल हथेली रूप पल्लवों से सहित, कुरुबक के फल के समान लाल एवं सुंदर नखरूपी पुष्पों से सुशोभित तथा मूंग को कोशों का अनुकरण करने वाली अंगुलियों से युक्त भुजारूपी लताओं से वह अत्यधिक सुशोभित होने लगी ॥8॥ कोमल शंख के समान कंठ, ठुड्डी, अधरोष्ठरूपी विंबीफल, प्रकृष्ट हास्य से युक्त श्वेत कपोल, कुटिल भौंहें, ललाट तट एवं द्विगुणित कोमल नील कमल को उत्तम डंठल के समान कानों को धारण करने वाली और सफेद काले तथा विशाल नेत्रों से सहित वह कन्या चिर काल तक अत्यधिक सुशोभित होने लगी ॥ 9 ॥ हास्य युक्त दांतों से सहित वह चंद्रमुखी कन्या, सुंदर सिर पर भ्रमरों को कांति को तिरस्कृत करने वाले देदीप्यमान घुंघराले एवं विस्तृत कटि-तट पर पड़े प्रकाशमान उस केश समूह को धारण कर रही थी, जो लटकते हुए काम-पाश के समान लोगों को वश करने वाला था ॥10॥ हाथ और पैरों में स्थित अंगूठी, कड़े तथा नूपुर आदि समीचीन एवं प्रसिद्ध चौदह आभरणों से जिसका शरीर आभूषण स्वरूप हो रहा था, जो शोभायमान अंगराग, कोमल वस्त्र और महामालाओं को धारण कर रही थी तथा जिसे कन्याओं के उचित समस्त सुख उपलब्ध थे ऐसी वह कन्या अपने शरीर के द्वारा संसार की अन्य युवतियों को आच्छादित कर रही थी-तिरस्कृत कर रही थी ॥11॥ वह पिता, पुत्र आदि समस्त यदुवंश के मनुष्यों के द्वारा योग्य सत्कार के द्वारा किये हुए गौरव की भूमि थी, समस्त कलाओं और मनोहर गुणों के समूह की महावसतिका थी और कुटुंबी जनों के समीप स्वयं शरीरधारिणी सरस्वती के समान जान पड़ती थी ॥12॥
इस प्रकार समय व्यतीत होने पर कदाचित् बलदेव के पुत्रों ने आकर उसे नमस्कार किया और जाते समय अपने अल्हड़ स्वभाव से उसे चिपटी नाक वाली कहकर चिढ़ा दिया । उसने एकांत में दर्पण में प्रतिबिंबित चिपटी नाक से युक्त अपना मुख देखा जिससे वह लज्जित होती हुई उस पर्याय से विरक्त हो गयी ॥13॥ उसने नगर में विद्यमान आर्यिकाओं के समूह की प्रधान सुव्रता नामक गणिनी के चरणों को शरण प्राप्त की और उन्हें साथ लेकर वह व्रतधर नामक मुनिराज के चरण मूल में गयी । उन्हें नमस्कार कर उसने उक्त मुनिराज से पूछा कि हे भगवन् ! मैंने पूर्वभव में क्या पाप किया था जिससे मुझे यह कुरूप प्राप्त हुआ है । इसके उत्तर में अवधिज्ञानरूपी नेत्र को विकसित करने वाले मुनिराज उससे इस प्रकार कहने लगे― ॥14॥
हे पुत्री ! पूर्वभव में तेरा जीव सुराष्ट्र देश में उत्तमरूप को धारण करने वाला पुरुष था । वहाँ विषय और इंद्रियजंय सुखों से अत्यंत मूढ़ बुद्धि होने के कारण वह क्रूरता वश विषयों में स्वच्छंद हुए अपने मन और नेत्रों को स्वाधीन नहीं रख सका ॥15॥ एक बार एक मुनि मृत शय्या से अत्यंत विषमतप तप रहे थे । तूने उन पर अपनी गाड़ी चला दी जिससे उनकी नाक पिचक गयी । मुनिराज ने अपने मन में बहुत भारी धीरता धारण कर रखी थी इसलिए इस घटना से उनके मन में कुछ भी क्षोभ उत्पन्न नहीं हुआ ॥16॥ मुनिराज के जीव का घात नहीं हुआ था इसलिए तेरा नरकवास नहीं हुआ । किंतु उनके शरीर का कुछ घात हुआ था इसलिए इस जन्म में तेरा मुख नासिका से रहित हो महाविकृत हुआ है । ठीक ही है संसार में जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है ॥17॥ जिनेंद्र भगवान् का यह कहना है कि जो प्राणी इस संसार में एक बार भी किसी जीव का घात करता है वह उसके पाप से पर-भव में दूसरों के द्वारा घात होने के दुःख को प्राप्त होगा और जो किसी के अवयव का एक बार भी घात करता है वह अपने किये पाप के अनुसार अनेक बार अवयव के घात को प्राप्त होगा ॥18॥ जो क्रूर मनुष्य, प्रभुता के कारण निर्भय हो मन, वचन, काय से मनुष्य आदि प्राणियों के वध में प्रयत्न करते हैं पर भवों में वे कितने ही चतुर क्यों न हों दुःख देने में चतुर पापरूपी महाप्रभु उन पर बार-बार अपना प्रभाव जमाता है उन्हें बार-बार दुःख देता है ॥19॥ इसलिए स्वपरहित को चाहने वाले प्राणियों को भले ही वे राजा क्यों न हों सदा परहिंसा आदि पापों से दूर रहना चाहिए । क्योंकि संसार में भ्रमण करने वाले प्राणी अपने द्वारा किये हुए कर्मों का फल भोगते हैं उनकी प्रभुता― राज्य अवस्था सदा स्थित नहीं रहती ॥20॥
इस प्रकार गुरु के वचन सुन वह, सुव्रत गणिनी के साथ चली आयी और समस्त बंधु जनों का त्यागकर उसने सफेद साड़ी से स्तनों को ढक तथा काले केशों को उखाड़कर आर्यिका का व्रत धारण कर लिया ॥21॥ जिसने आभूषण और मालाएं उतारकर फेंक दी थीं तथा जिसकी बाहुरूपी लताएँ फूलों के समान कोमल थीं ऐसी वह कन्या उस समय अपने हाथ की कोमल अंगुलियों से अपने बंधे हुए समस्त बालों को उखाड़ती हुई ऐसी जान पड़ती थी मानो बुद्धिरूपी कुटी के भीतर विद्यमान शल्यों के समूह को ही उखाड़ रही हो ॥ 22 ॥ जघन, वक्षःस्थल, स्तन, उदर और चरणों पर्यंत समस्त शरीर को एक अत्यंत कोमल वस्त्र से आच्छादित करती हुई वह सती उस समय चिरकाल तक शरद् ऋतु की उस नदी के समान सुशोभित हो रही थी जिसने स्वच्छ जल से अपने बालुमय स्थल को ढक रखा था ॥23 ॥ कुटुंबी-जनों ने जिसकी दीक्षा-कालीन पूजा की थी और जो बड़े-बड़े तपों को जन्म देने वाली थी ऐसी उस नव-दीक्षिता आर्यिका को देखकर उस समय समस्त महाजनों के हृदय में यही बुद्धि उत्पन्न होती थी कि क्या यह धैर्य सहित सरस्वती है अथवा रति तपस्या कर रही है ॥24॥ व्रत, गुण, संयम तथा उपवास आदि तपों एवं प्रतिदिन भायी जाने वाली अनित्य आदि भावनाओं से जो विशुद्ध भावों को प्राप्त हुई थी, जो आगमोक्त अनेक पाठों की वसति का थी, उत्तमोत्तम गुणों से सहित थी और सदा आर्यिकाओं के समूह के साथ निवास करती थी ऐसी वह आर्यिका तपस्या करती हुई रहती थी ॥25॥
तदनंतर बहुत वर्षों और दिनों के समूह व्यतीत हो जाने पर वह जिनेंद्र भगवान् के जन्म, दीक्षा और निर्वाण कल्याणक को भूमियों में विहार कर किसी समय बहुत बड़े संघ की प्रेरणा से अपनी सहधर्मिणियों के साथ विंध्याचल के विशाल वन में जा निकली ॥26॥ और रात्रि के समय, तीक्ष्ण तलवार के समान निर्मल एवं निर्विकल्प चित्त को धारण करने वाली वह प्रतिमा तुल्य आर्यिका किसी मार्ग के सम्मुख प्रतिमायोग से विराजमान हो गयी । उसी समय किसी बहुत धनी संघ पर आक्रमण करने के लिए रात्रि के समान काली भीलों की एक बड़ी सेना शीघ्रता से वहाँ आयी और उसने प्रतिमायोग से विराजमान उस आर्यिका को देखा ॥27॥ यह यहाँ वनदेवी विराजमान है यह समझकर सैकड़ों भीलों ने नमस्कार कर उससे अपने लिए यह वरदान मांगा कि हे भगवति ! यदि आपके प्रसाद से निरुपद्रव रहकर हम लोग धन प्राप्त कर सकेंगे तो हम आपके पहले दास होंगे ॥28॥ इस प्रकार का मनोरथ कर भीलों का वह विशाल समूह बड़ी मजबूती से चारों ओर से यात्रियों के उस संघ पर टूट पडा और उसे मारकर तथा लूटकर कृतकृत्य होता हुआ जब वह वापस समीप में आया तो उसने प्रतिमायोग से स्थित आर्यिका के खड़े होने के स्थान पर यह देखा ॥29॥ जब भील लोग आर्यिका के दर्शन कर आगे बढ़ गये तब वहाँ एक सिंह ने आकर उन पर घोर उपसर्ग शुरू कर दिया । उपसर्ग देख उन्होंने बड़ी शांति से समाधि धारण की ओर मरण पर्यंत के लिए अनशन पूर्वक रहने का नियम ले लिया । तदनंतर प्रतिमायोग में ही मरण कर वे स्वर्ग गयीं सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष अपनी मर्यादा से कभी विचलित नहीं होते ॥30॥ निरंतर धर्म का उपार्जन करने वाली एवं गृहीत समाधि को न छोड़ने वाली उस आर्यिका का शरीर सिंह के नख, मुख और डाढों के अग्रभाग से विदीर्ण होने के कारण यद्यपि छूट गया था तथापि उसके हाथ की तीन अंगुलियां वहाँ शेष बच रही थीं यही तीन अंगुलियां उन भीलों को दिखाई दीं ॥31॥ खून से विलिप्त होने के कारण जिसका मार्ग अंतर्हित हो गया था ऐसी वहाँ की समस्त भूमि को उन भीलों ने उस समय बड़ी आकुलता से यहां-वहां देखा पर कहीं उन्हें वह आर्यिका नहीं दिखी । अंत में उन्होंने निश्चय किया कि वरदान देने वाली वह देवी इस रुधिर में ही संतोष धारण करती है इसलिए हाथ की उन तीन अंगुलियों को वहीं देवतारूप से विराजमान कर दिया और बड़े-बड़े जंगली भैंसाओं को मारकर उन विषम एवं क्रूर भीलों ने सब और खून एवं मांस की बलि चढ़ाना शुरू कर दी । इस बलिदान से वहाँ मक्खियाँ और मच्छर उतराने लगे, वह स्थान आँखों के लिए विष के समान दिखाई पड़ने लगा तथा फैली हुई सड़ी बास से वहाँ की दिशाएँ दुर्गंधित हो गयी ॥32-33॥ यद्यपि वह आर्यिका परम दयालु थी, निष्पाप थी और तप के प्रभाव से उत्तम गति को प्राप्त हुई थी तथापि इस संसार में मांस के लोभी नरकगामी मूर्खजन भीलों के द्वारा दिखलाये हुए मार्ग से चलकर उसी समय से भैंसा आदि पशुओं को मारने लगे ॥34॥ उत्तम देवगति की बात छोड़िए निकृष्ट देवगति में भी कोई देव भैंसाओं का रुधिर पान करने वाले एवं हाथों में त्रिशूल धारण करने वाले नहीं हैं और न उनमें परस्पर एक दूसरे का मारना ही है फिर भी कवि स्फुट चित्रकार के समान जरा-सी भित्ति का आधार पा सत्पुरुषों को भी दूषण लगाने वाली कविता लिख डालते हैं ॥35॥
दूसरे की एकांत में होने वाली सत्य कुचेष्टा का भी सभा में दूसरों के द्वारा कहा जाना पाप बंध का कारण है― यह सत्पुरुषों का मत है । फिर किसी के अविद्यमान दोष को संसार के सामने प्रकट करना नरकगति का कारण नहीं है यह किस सत्पुरुष का वचन है ? अर्थात् किसी का नहीं ॥36 ॥ स्व-पर के महावैरी ये धूर्त कवि असत्य को सत्य है ऐसा बताकर विकथाओं का कथन करते हैं और ये देवताओं के वचन है ऐसा समझ मूर्ख प्राणी पृथिवी पर, पर का वध करना आदि कुमार्गों में भेड़िया-धसान के समान गिरते चले जाते हैं ॥37॥ विधिपूर्वक आराधना करने पर प्राणियों को सुख देने वाला, परजीवों को दया में तत्पर संसार में प्रकट हुआ परम धर्म का मार्ग कहाँ ? और दुष्ट कलिकाल में कुकवियों के द्वारा धर्मरूप से कल्पित, परघात से उत्पन्न, नरक का कारण अधर्म की कलह कहाँ ? भावार्थ― धर्म और अधर्म में महान् अंतर है ॥38॥ जिन्होंने लोकपाल का चरित प्रकट किया है और जो दुष्टजनों के भय से रक्षा कर जीवों पर सदा अनुग्रह करते हैं ऐसे राजा भी जहाँ इस संसार में देवताओं को लक्ष्य कर भैंसा तथा मेष आदि जंतुओं का घात करते हैं वहाँ अन्य क्षुद्र मनुष्यों की तो कथा ही क्या है ?॥39॥ भाग्यवश किसी तरह कार्य की सिद्धि को पाकर यह प्रतिनिधि भूत देवता के द्वारा ही कार्य सिद्ध हुआ है ऐसा मान जो मनुष्य शस्त्रों से अपने ही शरीर को चीर खून की बलि देने लगता है वह दूसरों के शरीर के छेदने में दयासहित कैसे हो सकता है ? भावार्थ― मनुष्य की कार्यसिद्धि तो अपने पूर्वकृत कर्म के अनुसार होती है परंतु देवता की प्रतिनिधिरूप मूर्ति की उपासना करने वाला मनुष्य उस सिद्धि को उस मूर्ति के द्वारा किया हुआ मानता है इसलिए प्रसन्न होकर शस्त्रों से ही अंगों को छेदकर खून की बलि देने लगता है । जो अपने ही अंगों को छेद डालता है उसे दूसरे के अंग छेदने में दया कहाँ हो सकती है ? ॥40॥ नम्रीभूत मनुष्यों ने बहुत बड़ी पूजा से जिसे अच्छी तरह संतुष्ट कर लिया है और जिसका विद्वेषरूप विपरीत गुण दूर हो गया हैं ऐसी वर देने वाली उत्कृष्ट देवी के द्वारा यदि संसार में इष्ट वर दिया जाता है तो किसी भी मनुष्य को इष्ट सामग्री से रहित नहीं होना चाहिए । भावार्थ― जब सभी लोग पूजा के द्वारा देवता को संतुष्ट कर उससे इष्ट वरदान प्राप्त कर सकते हैं तब सभी को इष्ट वस्तुओं से भरपूर होना चाहिए ॥41 ॥ जिसकी मूर्ति और मंदिर का निर्माण अन्य धनवान् मनुष्य का कार्य है तथा जिसकी प्रतिदिन काम आने वाली दीप, तेल, बलि, पुष्प आदि की विधि सदा दूसरों से पूर्ण होती है वह मूर्खजनों की देवता दूसरों के लिए मांगा हुआ वरदान निश्चितरूप से देती है यह संसार में बड़ी हँसी की बात है । भावार्थ― जो अपनी मूर्ति और मंदिर स्वयं नहीं बना सकती तथा प्रतिदिन उपयोग में आने वाले दीपक, तेल, नैवेद्य और फूल आदि के लिए जिसे दूसरों का मुंह देखना पड़ता है वह दूसरों के लिए क्या वरदान देगी ? ॥42॥ पृथिवी पर भक्तजनों द्वारा द्रव्य, भाव, पूजा से पूजी हुई कृतकृत्य जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमा, अपने-अपने विशिष्ट परिणामों के अनुसार परभव में इष्ट कल्पवृक्ष की लता के समान मनुष्यों के इष्ट मनोरथरूप फल को फलती है ॥43॥ कुमार्ग में स्वयं प्रवृत्त होना, दूसरे को प्रवृत्त कराना और प्रवृत्त होते हुए को अनुमति देना इन तीन अशुभ प्रवृत्तियों से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है जो कि दुर्गति का मुख्य कारण है और मुनिराज के द्वारा बताये हुए मार्ग में स्वयं प्रवृत्त होना, दूसरे को प्रवृत्त कराना और प्रवृत्त होते हुए को अनुमति देना इन तीन शुभ प्रवृत्तियों से शुभ कर्मों का आस्रव होता है जो कि सुगति का मुख्य कारण है ॥44॥ इस प्रकार जब अपने ही शुभ मन, शुभ वचन और शुभ काय से पुण्य बंध होता है और वे शुभ मन आदि अपने अधीन हैं तब संसार के समस्त प्राणी एक पुण्य कर्म को ही क्यों नहीं करते ? किंतु उसके विपरीत किये हुए निरर्थक कार्यों से पाप ही क्यों करते हैं ? अहो ! जान पड़ता है कि इसमें पूर्वबद्ध बहुत भारी कर्मों के द्वारा किया हुआ बहुत बड़ा कारण है ॥45॥ अहो ! देव मूढ़ता, शास्त्र मूढ़ता और गुरु मूढ़ता इन तीन मूढ़ताओंरूप अंधकार का समूह बहुत प्रबल है, वह जगत् के जीवों के पवित्र नेत्र को अच्छी तरह आच्छादित कर रहा है और इसकी कोई ओषधि भी नहीं है । इसी अंधकार के कारण देखने का इच्छुक मनुष्य भी पद-पद पर आकुल होता हुआ तत्त्व और अतत्त्व को देखने में क्या समर्थ हो पाता है ? अर्थात् नहीं हो पाता ॥ 46 ॥ यह पृथिवी अग्नि, वायु, जल, भूमि, लता और वृक्षों से तथा मंदिरों में कल्पित अचेतन देवों से व्याप्त है और आकाश मनुष्यों के नेत्रगोचर सूर्य, चंद्र, तारा तथा ग्रहों के समूह से व्याप्त है इसलिए इनके विषय में किसे मूढता नहीं होगी? भावार्थ पृथिवी और आकाश कल्पित देवताओं से भरे हुए हैं इसलिए विवेक से विचारकर यथार्थ देव का निर्णय करना चाहिए ॥47॥ यह संसार कथंचित् सत् है, कथंचित् असत् है, कथंचित् एक है, कथंचित् अनेक है, कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है, कथंचित् स्वरूप है, कथंचित् पररूप है, कथंचित् सांत है, कथंचित् अनंत है, और गुण-गुणी तथा कार्य-कारण के भेद से अनेक रूप है फिर भी ये संसार के प्राणी गाढ़ मूढ़ता के कारण एकांतवाद में निमग्न हैं ॥48॥ समस्त नयों और प्रमाणों के द्वारा निश्चित वस्तु के विषय में जो नैगम, संग्रह तथा व्यवहार आदि प्रमुख नय माने गये हैं वे यदि परस्पर में एक दूसरे का निषेध करते हैं तो मिथ्या है और परस्पर एक दूसरे पर दृष्टि रखते हैं तो समीचीन हैं ॥ 49 ॥ अन्य देवताओं की रुचि से रहित एवं जिनेंद्र भगवान् के शासन में निरत मनुष्य की जो जीव आदि तत्त्वों में प्रगाढ़ श्रद्धा है उसकी वही श्रद्धा बिना किसी प्रयत्न के मोक्ष-सुख से संबंध जोड़ने वाली सुगति अथवा सम्यग्ज्ञान को और शुभ एवं समस्त पदार्थों को विषय करने वाले उत्कृष्ट चारित्र को भी प्राप्त होती है । भावार्थ ―मनुष्य की श्रद्धारूप परिणति ही सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की प्राप्ति का कारण है ॥50 ॥ यह व्रत गुण और शील की राशि तथा नाना प्रकार का अत्यंत घोर तप चूंकि दर्शन की शुद्धि से युक्त होने पर ही निर्मल होता है इसलिए जिनेंद्र भगवान् के गुण-ग्रहण करने में तत्पर मनुष्य को चाहिए कि वह जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु का क्षय करने वाली एवं सुखदायी दर्शन की शुद्धि का आराधन करे― अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल बनावे ॥51॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में दुर्गा की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला उनचासवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥49॥