ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 59
From जैनकोष
अथानंतर जिस प्रकार पहले संसार-समुद्र से प्राणियों को पार करने के लिए भगवान् स्वर्ग के अग्रभाग से पृथिवी लोक पर अवतीर्ण हुए थे, उसी प्रकार जब विहार के लिए सम्मुख हो गिरनार पर्वत के शिखर से नीचे उतरने के लिए उद्यत हुए तब कुबेर ने निरंतर यह मनचाही घोषणा शुरू कर दी कि जिस याचक को जिस वस्तु को इच्छा हो वह यहाँ आकर उसे इच्छानुसार ले ॥1-2॥ उस समय कामधेनु के समान इच्छित पदार्थ प्रदान करने वाली मणिमयी भूमि बनायी गयी । सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् के मंगलमय विजयोद्योग के समय क्या नहीं किया जाता? अर्थात् सब कुछ किया जाता है ॥3॥ जब कि भगवान् का समस्त भूतों-प्राणियों के हित के लिए उद्यम हो रहा था तब पृथिवी, जल, अग्नि और वायुरूप चार महाभूत भी समस्त भूतों-प्राणियों के हित कर हो गये सो ठीक ही है क्योंकि भगवान की सर्वहितकारिता वैसी ही अनुपम थी ॥4॥ धन की बड़ी मोटी धारा वर्षा ऋतु के मेघ की जलधारा के समान पृथिवी के वसुंधरा नाम को सार्थकता प्राप्त कराती हुई आकाश से मार्ग में पड़ने लगी ॥5॥ प्रणाम करने से जिनके मस्तक चंचल हो रहे थे तथा जो भगवान् की प्रभा और आकार में अनुराग रखते थे ऐसे देव अपनी कांति से दिशाओं को व्याप्त करते हुए शीघ्र ही प्रकट होने लगे ॥6॥ सर्व-प्रथम देवों ने एक ऐसे सहस्रदल पवित्र कमल की रचना की जो पूर्व और उत्तर की ओर स्वर्णमय हजार-हजार कमलों की दो पंक्तियां धारण करता था तथा वे पंक्तियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो पृथिवीरूपी स्त्री के कंठ में पड़ी दो मालाएँ ही हों ꠰꠰7॥ वह कमल पद्मराग मणियों से निर्मित था, देदीप्यमान नाना प्रकार के रत्नों से चित्र विचित्र था, प्रत्येक पत्र पर स्थित लक्ष्मी के भाग से मनोहर था, इंद्र के हजार नेत्ररूपी भ्रमरावली से सेवित था, देव, धरणेंद्र और मनुष्यों के नेत्ररूपी भ्रमरों के लिए मानो मधु गोष्ठी का स्थान था, लक्ष्मी से सुशोभित था, परम पुण्यरूप था, एक योजन विस्तृत था और उसके चौथाई भाग प्रमाण उसकी कणिका-डंठल थी ॥ 8-10॥ यह कमल पद्मयान के नाम से प्रसिद्ध था । सेवा द्वारा इंद्र को आगे कर आठ वसु उस पद्मयान के आगे-आगे चल रहे थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो इंद्र के अणिमा, महिमा आदि आठ गुण ही मूर्तिधारी हो चल रहे हों । वे वसु यह कहते भगवान् को प्रणाम करते जा रहे थे कि हे भगवन् ! आप जयवंत हों, प्रसन्न होइए, लोकहित के लिए उद्यम करने का आज समय आया है । यथार्थ में वह सब भगवान् का माहात्म्य था ॥11-12 ॥ तदनंतर उस पद्मयान पर भगवान् जिनेंद्र आरूढ़ हुए थे और उस समय पृथिवी हर्ष से झूमती हुई-सी जान पड़ती थी ॥13॥ उस समय मेघों के शब्द को पराजित करने वाला देव-दुंदुभियों का यह प्रयाणकालिक शब्द सुनाई पड़ रहा था कि धर्मचक्र को आगे-आगे चलाने वाले ये जगत् के स्वामी विजयी भगवान् सब जीवों के वैभव के लिए विहार कर रहे हैं । इनके इस विहार से तीन लोक के जीव संपत्ति से वृद्धि को प्राप्त हों अर्थात् सबकी संपदा वृद्धिंगत हो और सब अतिवृष्टि आदि ईतियों से रहित हों ॥14-15 ॥ उस समय वीणा, बाँसुरी, मृदंग, विशाल झालर, शंख और काहल के शब्द से युक्त तुरही का मंगलमय शब्द भी समुद्र को गर्जना को तिरस्कृत कर रहा था ॥ 16 ॥ प्रस्थान काल में होनेवाला बहुत भारी शब्द, उत्तम कथा, चिल्लाहट, गीत, अट्टहास तथा अन्य कल-कल शब्दों से आकाश और पृथिवी के अंतराल को व्याप्त कर रहा था ॥ 17 ॥ आकाश में किन्नरियां मनोहर गान गाती थीं, अप्सराएं नृत्य करती थीं, झूमते हुए गंधर्व आदि देव तबला बजा रहे थे और नमस्कार करते हुए मनुष्य, सुर तथा असुर, सज्जनों के द्वारा वंदनीय भगवान् को नमस्कार करते हुए जय-जय को मंगल ध्वनिपूर्वक मंगलमय स्तोत्रों से जहां-तहाँ उनकी स्तुति कर रहे थे ॥18-19॥ पृथिवीतल पर भी सब ओर मनुष्य चित्त को हरने वाले नाना प्रकार के दिव्य नृत्य, संगीत और वादित्रों से युक्त हो रहे थे ॥20॥ विभूतियों से सहित लोकपाल समस्त दिग्भागों के साथ सबकी रक्षा कर रहे थे । सो ठीक ही है क्योंकि अपने-अपने नियोगों पर अच्छी तरह स्थित रहना ही भृत्यों की स्वामी-सेवा है ॥ 22 ॥ देदीप्यमान दृष्टि के धारक कितने ही देव समस्त हिंसक जीवों को दूर खदेड़कर चारों ओर दौड़ रहे थे ॥22॥ उस समय प्रसन्नता से भरा समुद्र, रत्नरूप वलयों से सुशोभित ऊपर उठे हुए तरंगरूपी हाथों से अंजलि बाँधकर वेलारूपी मस्तक से
मानो भगवान् के लिए नमस्कार ही कर रहा था ॥23॥
उस समय डग-डग पर भगवान् को नमस्कार करने वाले देवों के करोड़ों देदीप्यमान मुकुटों का बहुत भारी प्रकाश बार-बार नीचे को झुकता और बार-बार ऊपर को उठता था । उससे ऐसा जान पड़ता था मानो हजारों सूर्यों का एक साथ पतन तथा उदय हो रहा हो । उन्हीं देवों के जब करोड़ों मुकुट पृथिवीतल का स्पर्श करते थे तब भगवान् के आगे की भूमि ऐसी सुशोभित होने लगती थी मानो उस पर करोड़ों कमलों की भेंट ही चढ़ायी गयी हो ॥24-25॥ जिनका तेज लोक के अंत तक व्याप्त था ऐसे लोकांतिक देव भगवान के आगे-आगे चल रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानों लोक के स्वामी भगवान जिनेंद्र का प्रकाश ही मतिधारी हो आगे-आगे गमन कर रहा था ॥26॥ जिनके परिवार की देवियों ने मंगल द्रव्य धारण कर रखे थे तथा जिनके हाथों में स्वयं कमल विद्यमान थे, ऐसी पद्मा और सरस्वती देवी भगवान् की प्रदक्षिणा देकर उनके आगे-आगे चल रही थीं ॥27॥ हे देव ! इधर प्रसन्न होइए, इधर प्रसन्न होइए । इस प्रकार नमस्कार कर जिसने अंजलि बांध रखी थी ऐसा इंद्र; तद्-तद् भूमिपतियों के साथ भगवान् के आगे-आगे चल रहा था ॥28॥ इस प्रकार जो तीनों लोकों के इंद्र तथा उनके परिवार से घिरे हुए थे, लोगों की विभूति के लिए जो समस्त लोक को विभूति को धारण कर रहे थे, जो कमल को पताका से सहित थे, जिनको आत्मा अत्यंत पवित्र थी और जो भव्य जीवरूपी कमलों को विकसित करने के लिए उत्तम सूर्य के समान थे, ऐसे भगवान् नेमि जिनेंद्र जिस समय उस पद्मयान पर आरूढ़ हुए उसी समय देवों ने मेघ-गर्जना के समान यह शब्द करना शुरू कर दिया कि हे नाथ ! आपकी जय हो, हे ज्येष्ठ ! आपकी जय हो, हे लोक पितामह ! आपकी जय हो, हे आत्मभू ! आपकी जय हो, हे आत्मेश ! आपकी जय हो, हे देव ! आपकी जय हो, हे अच्युत ! आपकी जय हो, हे समस्त जगत् के बंधु ! आपकी जय हो, हे समीचीन धर्म के स्वामी ! आपकी जय हो, हे सबके शरणभूत लक्ष्मी के धारक ! आपकी जय हो, हे पुण्यरूप ! आपकी जय हो, हे उत्तम ! आपकी जय हो । इस प्रकार उठा हुआ पुण्यात्मा जनों का जोरदार, अत्यंत गंभीर एवं मेघ गर्जना की तुलना करने वाला वह शब्द, आकाश और पृथिवी के अंतराल को व्याप्त करता हुआ अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥29-33॥
तदनंतर समस्त इंद्र जिनके जय-जयकार और मंगल शब्दों का उच्चारण कर रहे थे, जिनके चलते हुए चरणकमल उन इंद्रों के, मुकुटरूपी भ्रमरों से व्याप्त थे, जो उन कमलों में निवास करने वाली लक्ष्मी से समस्त जगत् को आनंदित कर रहे थे और जो अत्यंत उत्कृष्ट विभूति के धारक थे, ऐसे भगवान् नेमि जिनेंद्र जीवों पर दया कर विहार करने लगे ॥34-35॥ वे प्रभु, आकाश में, स्वच्छ जल के भीतर पड़ते हुए मुख-कमल के प्रतिबिंब को शोभा को धारण करने वाले दिव्य कमल पर अपने चरणकमल रखकर विहार कर रहे थे ॥36॥ उस समय भगवान् के दर्शन करने के लिए उद्यत एवं उनके आगे-आगे चलने वाला कुबेर मार्ग को सुशोभित करता हुआ, ऐसा जान पड़ता था जैसा सूर्य के आगे चलता हुआ उसका सारथि अरुण हो ॥37॥ भगवान् के विहार का वह मार्ग सुवर्णमय था एवं देदीप्यमान मणियों के आभूषण से सहित था । इसलिए अपने पति के लिए स्थित, सुवर्णमय शरीर की धारक एवं देदीप्यमान मणियों के आभूषणों से सुशोभित पतिव्रता स्त्री के समान प्रशंसनीय था ॥38॥ जिस प्रकार मुनिगण, निर्मल क्रियाओं से अपनी वृत्ति को सदा साफ करते रहते हैं-निर्दोष बनाये रखते हैं उसी प्रकार पवनकुमार देव वायु के मंद-मंद झोंकों में उस मार्ग को साफ बनाये रखते थे ॥39॥ कौंधती हुई बिजली की चमक से समस्त दिशाओं के अग्रभाग को प्रकाशित करने वाले मेघवाहन, देव उस मार्ग में सुगंधित जल सींचते जाते थे ॥40॥
मोक्षमार्ग के ज्ञाता भगवान् के विहारकाल में, देवों के समूह, जिन पर मदोन्मत्त भौंरे मंडरा रहे थे ऐसे मंदार वृक्ष के पुष्पों से मार्ग को सुशोभित कर रहे थे ॥41॥ वह मार्ग गले हुए सोने के रस के उन मंडलों से जिनके कि तलभाग रत्नों के चूर्ण से व्याप्त थे एवं नक्षत्रों के समूह के समान जान पड़ते थे, अतिशय सुशोभित हो रहा था ॥ 42 ॥ गुह्यक जाति के देव केशर के रस से नाना प्रकार के बेल-बूटे बनाते जाते थे मानो वे अपनी चित्रकर्म की नाना प्रकार को कुशलता को हो प्रकट करना चाहते थे ॥43॥ मार्ग के दोनों ओर की सीमाएं क्रमपूर्वक खड़े किये हुए पत्रों से युक्त केला, नारियल, ईख तथा सुपारी आदि के वृक्षों से सुंदर बगीचों के समान जान पड़ती थीं ॥44॥ मार्ग में निरंतर सुंदर क्रीड़ा के स्थान बने हुए थे जिनमें हर्ष से भरे मनुष्य और देव अपनी स्त्रियों के साथ नाना प्रकार की क्रीड़ा करते थे ॥45 ॥ जिस प्रकार भोग-भूमि में भोगी जीवों को इच्छानुसार भोग्य वस्तुएं प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार उस मार्ग में भी, बीच-बीच में भोगी जीवों को उत्कृष्ट विभूति से युक्त सब प्रकार की भोग्य वस्तुएँ प्राप्त होती रहती थीं ॥46 ॥ भगवान् के विहार का वह मार्ग तीन योजन चौड़ा बनाया गया था तथा मार्ग के दोनों ओर की सीमाएँ दो-दो कोस चौड़ी थीं ॥47॥ वह मार्ग, जगह-जगह निर्मित तोरणों तथा दृष्टि में आने वाले सुवर्णमय अष्टमंगलद्रव्यों से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इंद्रियों से ही सुशोभित हो रहा हो ॥48॥ मार्ग में जगह-जगह भोगियों को इच्छानुसार पदार्थ देने वाली बड़ी-बड़ी काम शालाएँ बनी हुई थीं जो ऐसी जान पड़ती थीं मानो इच्छानुसार पदार्थ देने वाली भगवान् की मूर्तिमती दानशक्तियां ही हों ॥ 49 ॥ तोरणों की मध्य भूमि में जो ऊंचे ऊँचे केले के वृक्ष तथा ध्वजाएं लगी हुई थीं उनसे आच्छादित हुआ मार्ग इतनी सघन छाया से युक्त हो गया था कि वह सूर्य की छवि को भी रोकने लगा था॥50॥ वन के निवासी देवों ने वन की मंजरियों के समूह से पीला-पीला दिखने वाला पुष्पमंडप तैयार किया था जो उनके अपने पुण्य के समूह के समान जान पड़ता है ॥51॥ वह पुष्पमंडप रत्नमयी लताओं के चित्रों से सुशोभित दीवालों से युक्त था, दो योजन विस्तार वाला था, चंद्रमा और सूर्य को प्रभा के कांतिमंडल से समीप में सुशोभित था, छोटी-छोटी घंटियों की रुनझुन और घंटाओं के नाद से दिशाओं को शब्दायमान कर रहा था, उसके दोनों छोर तथा मध्य का अंतर मोतियों की मालाओं से युक्त था, उत्तम गंध से आकर्षित हो सब ओर मँडराते हुए भ्रमरों के समूह से उसकी कांति उल्लसित हो रही थी, आकाश में उसका चंदेवा भगवान् के मूर्तिक यश के समान दिखाई देता था, उस मंडप के चारों कोनों में ऊंचे खड़े किये हुए खंभों के समान सुशोभित, बड़े-बड़े मोतियों से निर्मित तथा बीच-बीच में मूंगाओं से खचित चार मालाएं लटक रही थीं, उनसे वह अधिक सुशोभित हो रहा था । दया को मूर्ति, अहित का दमन करने वाले, स्वयं ईश एवं स्वयं देदीप्यमान भगवान् नेमि जिनेंद्र उस मंडप के मध्य में स्थित हो समस्त जीवों के हित के लिए विहार कर रहे थे ॥52-56꠰꠰ उसी पुष्पमंडप में भगवान् के पीछे सूर्य को पराजित करने वाला भामंडल सुशोभित होता था जिसमें सब जीव अपने आगे-पीछे के सात-सात भव देखते हैं ॥57॥ भगवान् के शिर पर ऊपर-ऊपर अत्यंत निर्मल तीन छत्र सुशोभित हो रहे थे जिन में तीनों लोकों के द्वारा सार तत्त्व प्रकट किया गया था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो वह जिनेंद्र भगवान् की लक्ष्मी तीन लोक के स्वामित्व को सूचित ही कर रही थी ॥58॥ भगवान् के चारों ओर अपने-आप ढुलने वाले हजारों चमर ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे आकाशतल में मेरु पर्वत के चारों ओर हंस सुशोभित होते हैं ॥59॥
ऋषिगण भगवान् के पीछे-पीछे चल रहे थे, देव उन्हें घेरे हुए थे और इंद्र प्रतिहार बनकर आठ वसुओं के साथ भगवान् के आगे-आगे चलता था ॥60॥ इंद्र के आगे तीन लोक की उत्कृष्ट विभूति से युक्त लक्ष्मी नामक देवी, मंगलद्रव्य लिये शची देवी के साथ-साथ जा रही थी और वह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी के प्रतिबिंब के समान जान पड़ती थी ॥61॥ तदनंतर श्रीदेवी से सहित समस्त एवं परिपूर्ण मंगलद्रव्य विद्यमान थे सो ठीक ही है क्योंकि मंगलमय भगवान की मंगलमय यात्रा मंगलद्रव्यों से युक्त होती ही है ॥62 ॥ उनके आगे, जिन पर देदीप्यमान मुकुट के धारक प्रमुख देव बैठे थे ऐसी शंख और पद्म नामक दो निधियां चलती थीं । ये निधियां समस्त जीवों को इच्छित वस्तुएं प्रदान करने वाली थीं तथा सुवर्ण और रत्नों की वर्षा करती जाती थीं ॥63॥ उनके आगे फणाओं पर चमकते हुए मणियों की किरणरूप दीपकों से युक्त नागकुमार जाति के देव चलते थे और वे अज्ञानांधकार को नष्ट करने वाले केवलज्ञानरूपी दीपक की दीप्ति का अनुकरण करते हुए से जान पड़ते थे ॥64॥
उनके आगे धूपघटों को धारण करने वाले समस्त अग्निकुमार देव चल रहे थे । उन धूपघटों की गंध लोक के अंत तक फैल रही थी और वह जिनेंद्र भगवान् की गंध को सूचित कर रही थी ॥65॥ तदनंतर शांत और तेजरूप गुण को धारण करने वाले, भगवान् के भक्त, चंद्र और सूर्य जाति के देव अपनी प्रभा के समूहरूप मंगलमय दर्पण को धारण करते हुए चल रहे थे॥66 ॥ उस समय संताप के रोकने के लिए सुवर्णमय छत्र लगाये गये थे, उनसे सर्वत्र ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश सूर्यों से ही व्याप्त हो रहा हो ॥67꠰। जगह-जगह विजय-स्तंभ दिखाई दे रहे थे, उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो पताकारूपी हाथों के विक्षेप से पर-वादियों को परास्त कर दयारूपी मूर्ति को धारण करने वाले भगवान् के मानो कंधे ही नृत्य कर रहे हों ॥ 68॥ आगे-आगे भगवान की विजय-पताका फहराती हुई सुशोभित थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो तीन जगत् के नेत्ररूपी कुमुदों को विकसित करने के लिए निर्मल चाँदनी ही हो ॥69॥ जो देवियां अधोलोक और ऊर्ध्वलोक में निवास करती हैं तथा पृथिवी पर नाना स्थानों में निवास करने वाली हैं, वे भगवान् के आगे प्रेम और आनंद से आठ रस प्रकट करती हुई नृत्य कर रही थीं ॥70॥ जिसने अपनी गंभीर और मधुर ध्वनि से समस्त दिशाओं और विदिशाओं के अंतर को व्याप्त कर रखा था ऐसी नांदीध्वनि (भगवत् स्तुति की ध्वनि) वर्षा ऋतु की मेघावली को जीतकर बड़ी गंभीरता से बार-बार हो रही थी ॥71॥ जिसने अपनी प्रभा से सूर्य को जीत लिया था, जो हजार अररूप किरणों से सहित था, देवों के समूह से घिरा हुआ था और अत्यधिक अंधकार को नष्ट कर रहा था ऐसा धर्मचक्र आकाश-मार्ग से चल रहा था ॥ 72 ꠰꠰ आगे-आगे चलने वाले स्तनितकुमार देव अभय घोषणा के साथ-साथ यह घोषणा करते जाते थे कि ये भगवान् तीन लोक के स्वामी हैं, आओ आओ और इन्हें नमस्कार करो॥73॥ उस समय बहुत से उत्तम भवनवासी देव भगवान् नेमिनाथ के प्रभाव के अनुरूप दिशाओं और मार्ग को अच्छी तरह व्याप्त कर दौड़ते हुए जय-जयकार करते जाते थे ॥ 74॥ जो-जो अनेक आश्चर्यों से भरी हुई भगवान् की इस दिव्य यात्रा में साथ-साथ जाते थे, पृथिवी पर उन्हें अर्थ-दृष्टि को आदि लेकर समस्त आश्चर्यों की प्राप्ति होती थी । भावार्थ― उन्हें चाहे जहाँ धन दिखाई देना आदि अनेक आश्चर्य स्वयं प्राप्त हो जाते थे ॥75 ॥ जिस देश में भगवान् का विहार होता था उस देश में भगवान् की आज्ञा न होने से ही मानो किसी को न तो आधि-व्याधि-मानसिक और शारीरिक पीड़ाएं होती थीं और न अतिवृष्टि आदि ईतियां हो व्याप्त होती थीं ॥76॥ वहाँ अंधे रूप देखने लगते थे, बहरे शब्द सुनने लगते थे, गूंगे स्पष्ट बोलने लगते ये और लंगड़े चलने लगते थे ॥ 77॥ वहाँ न अत्यधिक गरमी होती थी, न अत्यधिक ठंड पड़ती थी, न दिन-रात का विभाग होता था और न अन्य अशुभ कार्य अपनी अधिकता दिखला सकते थे । सब ओर शुभ ही शुभ कार्यों की वृद्धि होती थी ॥78॥ उस समय सर्व प्रकार की फली-फूली धान्यरूपी रोमांच को धारण करने वाली पृथिवीरूपी स्त्री कमलरूपी हाथों के द्वारा बड़े हर्ष से भगवानरूपी भर्तार के पादमर्दन कर रही थीं ॥79॥ जिनेंद्ररूपी सूर्य के पादरूपी किरणों के संपर्क से फूली हुई कमलावली को धारण करने वाला आकाश उस समय चलते-फिरते तालाब की शोभा को विस्तृत कर रहा था ॥80॥ उस समय बिना कहे ही समस्त ऋतुएँ एक साथ वृद्धि को प्राप्त हो रही थीं, सो ऐसी जान पड़ती थीं मानो समदृष्टि भगवान के द्वारा अवलोकित होने पर वे समरूपी ही हो गयी थीं । यथार्थ में स्वामीपना तो वही है जिसमें किसी के प्रति विकल्प भेदभाव न हो ॥81 ॥ उस समय पृथिवी जगह-जगह अनेक खजाने निधियाँ, अन्न, खाने और अमृत उत्पन्न करती थीं इसलिए ‘रत्नसू’ इस नाम से प्रसिद्ध हो गयी थी ।꠰82꠰꠰ अंतकजित्―यमराज को जीतने वाले भगवान् के वीर्य से जिसका पराक्रम पराजित हो गया था ऐसा यमराज, धर्मचक्र से सबल संसार में असमय में कर ग्रहण करने की इच्छा नहीं करता था । भावार्थ― जहाँ भगवान् का धर्मचक्र चलता था वहाँ किसी का असमय में मरण नहीं होता था ॥ 83॥ काल (यम) को हरने वाले हैं (पक्ष में समय को हरने वाले) भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध आचरण न हो जाये, इस भय से काल (समय) अपनी विषमता को छोड़कर सदा भगवान् की इच्छानुसार ही प्रवृत्ति करता था । भावार्थ― काल, सर्दी-गरमी, दिन-रात आदि की विषमता छोड़ सदा एक समान प्रवृत्ति कर रहा था ॥84॥ भगवान् के विहार क्षेत्र में स्थित समस्त त्रस; स्थावर जीव सुख को प्राप्त हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि संसार में विभुता वही है जो सबका हित करने वाली हो ॥ 85 ।꠰ जो सांप, नेवला आदि समस्त जीव जन्म से ही वैर रखते थे उन सभी में भगवान की आज्ञा से अखंड मित्रता हो गयी थी ॥86꠰꠰ भगवान् की बहती हुई गंध को पवन किस प्रकार प्राप्त कर सकता है इस प्रकार अनुजीवी जनों की सेवा को शिक्षा देता हुआ वह शांत होकर भगवान् की सेवा कर रहा था । भावार्थ― उस समय शीतल, मंद सुगंधित पवन भगवान् की सेवा कर रहा था सो ऐसा जान पड़ता था मानो वह सेवकजनों को सेवा करने की शिक्षा ही दे रहा था ॥87꠰꠰ धूलिरूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से प्रकट हुई निर्मलतारूपी आभरणों की कांति से युक्त दिशारूपी कन्याएँ फूलों के जाप से भगवान् की पूजा कर रही थीं ॥88॥ अत्यंत स्वच्छ और जगमगाते हुए ताराओं से देदीप्यमान आकाश, उस सरोवर के समान दिखायी देता था जिसका जल शरद् ऋतु के कारण स्वच्छ हो गया था तथा जिसमें कुमुदों का समूह विद्यमान था ॥89॥ उस समय अन्य की तो बात हो क्या थी अल्पबुद्धि के धारक तिर्यंच आदि समस्त प्राणी भगवान् को दूर से ही नमस्कार करते थे । भगवान चतुर्मुख थे इसलिए चारों दिशाओं में दिखाई देते और छाया आदि से रहित थे ॥10॥ भगवान नेमि जिनेंद्र के भोजन तथा सब प्रकार के उपसर्गों का अभाव था सो ठीक ही है क्योंकि लोक के अद्वितीय स्वामी का ऐसा आश्चर्यकारी अद्भुत माहात्म्य होता ही है ॥21॥ जिनका कल्याण होने वाला था ऐसे प्रवादी लोग, अहंकार से युक्त होनेपर भी आ-आकर भगवान् को नमस्कार करते थे सो ठीक ही है क्योंकि उन जैसा प्रभाव अंत में आश्चर्य करने वाला एवं प्रति पक्षी से रहित होता ही है ॥92॥ जिनके आगे-आगे इंद्र चल रहा था ऐसे भगवान् जिस-जिस दिशा में पहुंचते थे उसी-उसी दिशा के दिक्पाल पूजन की सामग्री लेकर भगवान् की अगवानी के लिए आ पहुंचते थे ॥93॥ भगवान् जिस-जिस दिशा से वापस जाते थे उस-उस दिशा के दिक्पाल मंगल द्रव्य लिये हुए अपनी-अपनी सीमा तक पहुँचाने आते थे सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् उसी प्रकार के सार्वभौम थे― समस्त पृथिवी के अधिपति थे ॥94॥ त्रिमार्गगा अर्थात् गंगानदी अपने निश्चित तीन मार्गो से चलती है परंतु वह देवों की सेना बिना मार्ग के ही चल रही थी उसके चलने के मार्ग अनेक थे । इस तरह वह सेना अतिशय पवित्र भगवान् से प्रभावित हो पृथिवी लोक को पवित्र कर रही थी ॥95 ॥ उस देवसेना के बीच दंड के समान एक बहुत ऊंचा कांतिदंड विद्यमान था जो नीचे से लेकर ऊपर लोक के अंत तक फैला था और वापस आयी हुई किरणों से युक्त था ॥96॥ अन्य तेजधारियों की अपेक्षा उस कांतिदंड का तेज तिगुना था । अपने तेज के द्वारा वह बड़ा स्थूल दिखाई देता था और सूर्य के सिवाय अन्य ज्योतिषियों के समूह को तिरस्कृत करने वाला था ॥ 97॥ उस कांतिदंड का प्रकाश लोक के अंत तक व्याप्त था, रुकावट से रहित था, गाढ़ अंधकार को नष्ट करने वाला था और सूर्य के प्रकाश को अतिक्रांत करने वाला था ॥ 98॥ उस कांतिदंड के बीच में पुरुषाकार एक ऐसा दूसरा कांतिसमूह दिखाई देता था जो तेज का धारक था, अन्य तेजोमय के समान जान पड़ता था, एक हजार सूर्य के समान कांति का धारक था, जिससे बढ़कर और दूसरी आकृति नहीं थी, जो चारों ओर फैलने वाली कांति से घनरूप था, भगवान् के महान् अभ्युदय के समान था, जिसकी कांति का विस्तार एक कोस तक फैल रहा था, जो भगवान् की ऊंचाई के बराबर ऊँचा था, दृष्टि को हरण करने वाला था, सुखपूर्वक देखा जा सकता था, सुख को उत्पन्न करने वाला था, पुण्य की मूर्ति स्वरूप था और सबके द्वारा पूजा जाता था ॥99-101꠰। जिस प्रकार उल्लू सूर्य की प्रभा को नहीं देख पाते हैं उसी प्रकार दुर्बुद्धि, पापी एवं अपने पाप से उत्पन्न क्रोध से युक्त पुरुष उस कांति-समूह को नहीं देख पाते हैं ॥ 102 ॥ उस कांति-समूह में से एक विशेष प्रकार की प्रभा निकलती थी जो सूर्य के तेज को आच्छादित कर रही थी, समस्त दिशाओं को पूर्ण कर रही थी और सूर्य की प्रभा के समान पृथिवीतल को पहले से व्याप्त कर रही थी ॥103॥ उस प्रभा के पीछे, जो समस्त लोकों को प्रकाशित कर रहे थे तथा जिनकी प्रभा अत्यधिक किरणों से युक्त थी ऐसे भगवान् नेमिजिनेंद्र, लोक शांति के लिए-संसार में शांति का प्रसार करने के लिए विहार कर रहे थे ॥104॥ जिस मार्ग में भगवान् का विहार होता था वह मार्ग, अपने चिह्नों से एक वर्ष तक यह प्रकट करता रहता था कि यहाँ भगवान् का विहार हुआ है तथा रत्नवृष्टि से वह मार्ग ऐसा सुशोभित होता था जैसा नक्षत्रों के समूह से ऐरावत हाथी सुशोभित होता है ॥105 ॥ जिस प्रकार विहार से संबंध रखने वाली पृथिवी में मार्ग आदि दिखलाई देते हैं उसी प्रकार आकाश में मार्ग आदि दिखाई देते हैं सो ठीक ही है क्योंकि तीन लोक के अतिशय से उत्पन्न भगवान् का वह अतिशय ही आश्चर्यकारी था ॥106 ॥ उस समय मंदबुद्धि मनुष्य तीक्ष्ण बुद्धि के धारक हो गये थे । समस्त हिंसक जीव प्रभावहीन हो गये थे और भगवान् के समीप रहने वाले लोगों को खेद, पसीना, पीड़ा तथा चिंता आदि कुछ भी उपद्रव नहीं होता था ॥107॥ भगवान् के विहार से अनुगृहीत भूमि में दो सौ योजन तक विप्लव आदि नहीं होते थे अथवा दस से गुणित युग अर्थात् पचास वर्ष तक उस भूमि में कोई उपद्रव आदि नहीं होते थे । भावार्थ― जिस भूमि में भगवान् का विहार होता था वहाँ 50 वर्ष तक कोई उपद्रव दुर्भिक्ष आदि नहीं होता था । यह भगवान् की बहुत भारी महिमा ही समझनी चाहिए ॥108 ॥ इस प्रकार उत्कृष्ट विभूति से युक्त, बोध को देने वाले जगत् के स्वामी भगवान् नेमिनाथ ने भव्यजीवों को संबोधित करते हुए, जगत् के वैभव के लिए क्रम से पृथिवी पर विहार किया ॥109॥ सुराष्ट्र, मत्स्य, लाट, विशाल शूरसेन, पटच्चर, कुरुजांगल; पांचाल, कुशाग्र, मगध, अंजन, अंग, वंग, तथा कलिंग आदि नाना देशों में विहार करते हुए भगवान् ने क्षत्रिय आदि वर्गों को जैनधर्म में स्थित किया ॥110-111॥
तदनंतर विहार करते-करते भगवान् मलय नामक देश में आये और उसके भद्रिलपुर नगर के सहस्राम्रवन में विराजमान हो गये ॥112꠰꠰ पहले की तरह चारों प्रकार के देवों ने वहां पर भी समवसरण को रचना कर दी और उसमें गणधरों से वेष्टित भगवान् सुशोभित होने लगे ॥113॥ उस नगर का राजा पोंड, नगरवासियों के साथ समवसरण में आया और हाथ जोड़ स्तुति करता हुआ जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर मनुष्यों के कोठे में बैठ गया ॥114॥ देवकी के जो छह पुत्र सुदृष्टि सेठ और अलका सेठानी की पुत्र प्रीति को बढ़ाते हुए उनके यहाँ रहते थे वे भी समवसरण में आये ॥115 ॥ उनमें से प्रत्येक की बत्तीस-बत्तीस स्त्रियाँ थीं जो अत्यंत उज्ज्वल थीं और अपने रूप आदि गुणों से इंद्र की इंद्राणी को भी जीतती थीं ॥116॥ बहुत भारी तेज को धारण करने वाले वे छह भाई अपने-अपने पृथक्-पृथक छहों रथों से नीचे उतरकर समवसरण में गये और जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर तथा उनकी स्तुति कर राजा के साथ मनुष्यों के कोठे में बैठ गये ॥117꠰꠰ उस समय भगवान् ने सभा में स्थित लोगों के लिए सम्यग्दर्शन से सुशोभित श्रावकधर्म और कर्मों का नाश करने वाले मुनिधर्म का उपदेश दिया ॥118 ॥ तदनंतर जिनेंद्र भगवान से धर्मरूप अमृत का श्रवण कर जिन्होंने तत्त्व के वास्तविक स्वरूप को जान लिया था ऐसे छहों भाई संसार से विरक्त हो उठे और बंधुजनों को इसकी सूचना दे जिनेंद्र भगवान् के चरणों के समीप निर्ग्रंथ हो एक साथ मोक्ष लक्ष्मी को प्रदान करने वाली दीक्षा को प्राप्त हो गये ॥ 119-120 ॥ जिन्हें बीज-बुद्धि, आदि ऋद्धियां प्राप्त हुई थीं ऐसे उन राजकुमारों ने द्वादशांग श्रुतज्ञान का अभ्यास कर घोर तप किया ॥121॥ इन छहों मुनियों के बेला आदि उपवास, उनकी धारणाएँ, पारणाएँ, त्रैकालिक योग तथा शयन, आसन आदि क्रियाएँ साथ-साथ ही होती थीं ॥122 ॥ उत्कृष्ट तप तपने वाले उन चरमशरीरी मुनियों के शरीर की उत्कृष्ट कांति पहले से भी अधिक बढ़ गयी थी ॥123॥ तीर्थंकर भगवान् के चरणों की सेवा करने वाले ये छहों मुनि, बाह्याभ्यंतर तप में परस्पर एक-दूसरे के उपमानोपमेय को प्राप्त हो रहे थे ॥124॥
तदनंतर उस प्रकार की महाविभूति के साथ पृथिवी पर विहार कर भगवान् ऊर्जयंतगिरि-गिरनार पर्वत पर आये और समवसरण के द्वारा उसे सुशोभित करने लगे ॥125॥ इंद्रादिक देवों, कृष्ण आदि यादवों और द्वारिका वासी नागरिकजनों से जिनकी सेवा हो रही थी ऐसे भगवान् नेमिजिनेंद्र उस ऊर्जयंतगिरि पर अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥126॥ उस समय समवसरण में श्रुतज्ञानरूपी समुद्र के भीतरी भाग को देखने वाले वरदत्त आदि ग्यारह गणधर सुशोभित थे ॥127॥ भगवान् के समवसरण में सज्जनों के माननीय चार सौ पूर्वधारी, एक हजार आठ सौ शिक्षक, पंद्रह सौ अवधिज्ञानी, पंद्रह सौ केवलज्ञानी, नौ सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी, आठ सो वादी और ग्यारह सौ विक्रियाऋद्धि के धारक मुनिराज थे ॥128-130॥ राजीमती को साथ लेकर चालीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख उनहत्तर हजार श्रावक और सम्यग्दर्शन से शुद्ध तथा श्रावक के व्रत धारण करने वाली तीन लाख छत्तीस हजार श्राविकाएं वहाँ विद्यमान थीं ॥131-132॥ दिव्यध्वनि के धारक भगवान् तीर्थंकररूपी मेघ, धर्मरूपी दिव्य अमृत की वर्षा करते हुए, प्यासे भव्य जीवरूपी चातकों को पहले की तरह तृप्त करने लगे ॥133॥
इस प्रकार अपरिमित अभ्युदय के धारक नेमिजिनेंद्ररूपी सूर्य के दुर्लभ महोदय से युक्त ऊर्जयंतपर्वतरूपी उदयाचल पर स्थित होते ही अंजलिरूपी कमल को धारण करने वाले समस्त लोकरूपी सरोवर में उत्पन्न हुए विद्वज्जनरूपी कमल प्रफुल्लित हो गये ॥134॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में भगवान् के विहार का वर्णन करने वाला उनसठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥59॥