ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 65
From जैनकोष
अथानंतर समस्त देवों से युक्त भगवान् नेमिनाथ उपदेश करते हुए उत्तरापथ से सुराष्ट्र देश की ओर आये ॥1॥ जिनेंद्ररूपी सूर्य यद्यपि उत्तरायण को उल्लंघन कर दक्षिणायन को प्राप्त हुए थे तथापि उनके तेज की वृत्ति पहले ही के समान सर्वत्र व्याप्त थी । भावार्थ-जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन की ओर आता है तब उसका तेज कुछ कम हो जाता है परंतु नेमिजिनेंद्ररूपी सूर्य का तेज उत्तरायण-उत्तर दिशा से दक्षिणायन-दक्षिण दिशा में आने पर भी कम नहीं हुआ था, पहले ही के समान सर्वत्र व्याप्त था ॥2॥ समवसरण की विभूति से युक्त नेमिजिनेंद्र जब दक्षिण दिशा में विहार करते थे तब वहाँ के देश स्वर्ग के समान सुशोभित हो रहे थे ॥ 3 ॥ तदनंतर जब अंतिम समय आया तब निर्वाणकल्याणक की विभूति को प्राप्त होने वाले नेमिजिनेंद्र मनुष्य, सुर और असुरों से सेवित होते हुए अपने-आप गिरनार पर्वत पर आरूढ़ हो गये ॥ 4 ॥ वहाँ पहले ही के समान फिर से कलुषतारहित तिर्यंच मनुष्य और देवों के समूह से युक्त समवसरण की रचना हो गयी ॥ 5 ॥ समवसरण के बीच वराजमान होकर जिनेंद्र भगवान् ने स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति का एक साधन, रत्नत्रय से पवित्र एवं साधुसंमत धर्म का उपदेश दिया ॥ 6 ॥ जिस प्रकार सर्वहितकारी जिनेंद्र भगवान् ने केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद पहली बैठक में विस्तार के साथ धर्म का उपदेश दिया था उसी प्रकार अंतिम बैठक में भी उन्होंने विस्तार के साथ धर्म का उपदेश दिया ॥ 7॥
जिस प्रकार अग्नि में ऊर्ध्वज्वलन और उष्णता, पानी में शीतलता, वायु में वेग, सूर्य चंद्र आदि तेजस्वी पदार्थों में सब ओर से प्रकाशमानता, आकाश में अमूर्तिकपना और पृथिवी में किसी पदार्थ को धारण करने की क्षमता स्वभाव से ही होती है, उसी प्रकार कृतकृत्य जिनेंद्र भगवान् का धर्मोपदेश भी स्वभाव से होता था किसी की प्रेरणा से नहीं ॥8-9॥ तदनंतर योगनिरोध करने वाले भगवान् नेमिजिनेंद्र अघातिया कर्मों का अंत कर अनेक सौ मुनियों के साथ निर्वाण धाम को प्राप्त हो गये ॥10॥ जिनके आगे-आगे इंद्र चल रहे थे ऐसे चारों निकाय के देवों ने भगवान् के अंतिम शरीर से संबंध रखने वाली निर्वाणकल्याण की पूजा की ॥11॥ दिव्यगंध तथा पुष्प आदि से पूजित, तीर्थंकर आदि मोक्षगामी जीवों के शरीर, क्षण-भर में बिजली की नाई आकाश को देदीप्यमान करते हुए विलीन हो गये ॥ 12 ॥ क्योंकि यह स्वभाव है कि, तीर्थंकर आदि के शरीर के परमाणु अंतिम समय बिजली के समान क्षण-भर में स्कंधपर्याय को छोड़ देते हैं ॥13॥
गिरनार पर्वत पर इंद्र ने वज्र से उकेरकर इस लोक में पवित्र सिद्ध शिला का निर्माण किया तथा उसे जिनेंद्र भगवान के लक्षणों के समूह से युक्त किया ॥14॥ तदनंतर वरदत्त आदि मुनियों के संघ की वंदना कर इंद्रादि देव और राजा लोग सब यथायोग्य अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥15॥
समुद्रविजय आदि नो भाई, देवकी के युगलिया छह पुत्र तथा शंब और प्रद्युम्नकुमार आदि अन्य मुनि भी गिरनार पर्वत से मोक्ष को प्राप्त हुए । इसलिए उस समय से गिरनार आदि निर्वाण स्थान संसार में विख्यात हुए और तीर्थयात्रा के लिए आने वाले अनेक भव्य जीवों के द्वारा सेवित होते हुए सुशोभित होने लगे ॥16-17॥
धीर-वीर पांचों पांडव मुनि, भगवान् को मोक्ष हुआ जान शत्रुजय पर्वतपर प्रतिमायोग से विराजमान हो गये ॥ 18 ꠰। उस समय वहाँ दुर्योधन के वंश का क्षुयवरोधन नाम का कोई पुरुष रहता था । ज्यों ही उसने वहाँ पांडवों का आना सुना त्यों ही आकर उसने वैर वश उनपर घोर उपसर्ग करना शुरू कर दिया ॥ 19 ॥ उसने तपाये हुए लोहे के मुकुट, कड़े तथा कटिसूत्र आदि बनवाये और उन्हें अग्नि में अत्यंत प्रज्वलित कर उनके मस्तक आदि स्थानों में पहनाये ॥20॥ पांडव मुनिराज अत्यंत धीर-वीर थे, कर्म के उदय को जानने वाले थे एवं कर्मों का क्षय करने में समर्थ थे, इसलिए उन्होंने दाह के उस भयंकर उपसर्ग को हिम के समान शीतल समझा था ॥21॥ भीम, अर्जुन और युधिष्ठिर ये तीन मुनिराज तो शुक्लध्यान से युक्त हो आठों कर्मो का क्षय कर मोक्ष गये परंतु नकुल और सहदेव बड़े भाई की राह को देख कुछ-कुछ आकुलित चित्त हो गये इसलिए सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न हुए ॥22-23 ॥
मनुष्यों में श्रेष्ठ नारद भी दीक्षा ले तप के बल से संसार का क्षय कर अविनाशी मोक्ष को प्राप्त हुए ॥24॥ समीचीन रत्नत्रय को धारण करने वाले अन्य अनेक भव्यजीव भी मोक्ष को प्राप्त हुए तथा निकटकाल में जिनके संसार का क्षय होने वाला था ऐसे कितने ही जीव स्वर्ग गये ॥25॥
तुंगीगिरि के शिखर पर स्थित बलदेव ने भी संसार-चक्र का क्षय करने में उद्यत हो नाना प्रकार का तप किया ॥26॥ वे एक दिन, दो दिन, तीन दिन को आदि लेकर छह माह तक के उपवासों से कषाय और शरीर का शोषण तथा धैर्य का पोषण करते थे ॥27॥ वन में मिलने वाली भिक्षा से प्राण धारण करने के लिए उद्यत बलदेव मुनिराज, वन में विहार करने लगे और चंद्रमा का भ्रम उत्पन्न करने वाले उन मुनिराज को लोगों ने देखा ॥28॥ बलदेव वन में विहार कर रहे हैं । यह बात नगरों तथा गांवों में फैल गयी उसे सुन समीपवर्ती राजा क्षुभित चित्त हो वहाँ आ पहुँचे ॥29॥
शंकारूपी विष से युक्त तथा नाना प्रकार के शस्त्रों से सुसज्जित उन राजाओं को जब देव सिद्धार्थ ने देखा तो उस वन में उसने सिंहों के समूह रच दिये ॥30॥ जब उन आगत राजाओं ने मुनिराज के चरणों के समीप सिंहों को देखा तब वे उनकी सामर्थ्य जान नमस्कार कर शांत भाव को प्राप्त हो गये ॥31॥ उसी समय से बलदेव मुनिराज लोक में नरसिंह इस प्रसिद्धि को प्राप्त हो गये । वे सिंह के समान चौड़े वक्षःस्थल से सुशोभित थे तथा सिंहरूपी सेवकों से युक्त थे ॥32॥ इस प्रकार एक-सौ वर्ष तक तप कर बलदेव मुनिराज ने अंत में समाधि धारण की और उसके फलस्वरूप ब्रह्मलोक में इंद्र के पद को प्राप्त हुए ॥33॥ वहाँ देव-देवियों के समूह से युक्त, महल और उद्यानों से सुशोभित तथा रत्नों के समान देदीप्यमान पद्म नामक विमान में कोमल उपपाद शय्या पर उस प्रकार देव उत्पन्न हुए जिस प्रकार
कि विशाल रत्नाकर की महाभूमि में महामणि उत्पन्न होता है ॥35॥ वह उत्तम देव वहाँ शीघ्र ही आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियों से पूर्ण हो गया ॥36॥ नवयौवन से युक्त एवं वस्त्राभरण से विभूषित वह देव, सर्व तो भद्र नामक शय्या पर ऐसा उठकर बैठ गया जैसा मानो सुख निद्रा पूर्ण होने पर ही उठा हो ॥37॥ जब इस देव ने चारों ओर देखा तब अनुराग से युक्त देवांगनाओं और देवों के शब्दों ने इसका अभिनंदन किया ॥38॥ चंद्रमा और सूर्य से भी अधिक उत्कृष्ट प्रभावलय से युक्त शरीर को धारण करने वाला वह देव, हर्ष से पूर्ण हृदय होता हुआ इस प्रकार का ध्यान करने लगा कि यह अत्यंत सुंदर देश कौन है? ये हर्ष से भरे जन कौन हैं ? मैं कौन हूँ ? मेरा यहाँ कहाँ जन्म हुआ है? और मैंने किस धर्म का संचय किया है? ॥39-40॥
तदनंतर मुख्य-मुख्य देवों ने उसे समझाया-सब वस्तुओं का परिचय दिया जिससे तथा भवप्रत्यय अवधिज्ञान से युक्त हो उसने शीघ्र ही आगे-पीछे का सब वृत्तांत जान लिया ॥ 41 ॥ तदनंतर जिसने पूर्वभव के सब बंधुओं को जान लिया था, जो भाई का हित करने में उद्यत था, जिसे अभिषेक रूप कल्याण प्राप्त हुआ था, जिसने वस्त्राभूषणादि सब सामग्री प्राप्त की थी और अवधिज्ञान से जिसने कृष्ण का समाचार जान लिया था ऐसा वह बालुकाप्रभा पृथिवी में गया और अपने छोटे भाई कृष्ण को दु:खी देख स्वयं बहुत दुःखी हुआ ॥42-43 ॥ महाप्रभाव से संपन्न वह देव जब वहाँ जाकर खड़ा हो गया तब वहाँ के अशुभ शब्द गंध रस और शब्द शुभरूपता को प्राप्त हो गये ॥44॥
वह कहने लगा कि हे कृष्ण ! आओ, आओ, जो मैं तुम्हारा बड़ा भाई बलदेव था वही ब्रह्मलोक का अधिपति होकर यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ ॥45॥ यह कहकर वह देव ज्योंही कृष्ण के जीव को उठाकर स्वर्गलोक में ले जाने के लिए उद्यत हुआ त्योंही उसका शरीर मक्खन के समान गलकर विलीन हो गया ॥ 46 ॥
तदनंतर कृष्ण ने कहा कि हे देव ! हे भाई! व्यर्थ की चेष्टाओं से क्या लाभ है ? क्या आप यह नहीं जानते कि सब जीव अपने किये का फल भोगते हैं ॥47॥ संसार में जिसने जैसा कर्म उपार्जन किया है, हे भाई ! नियम से उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है ॥48॥ देव, यदि दूसरे प्राणियों के लिए सुख देने और दुःख हरने में समर्थ हैं तो फिर अपना ही मृत्युरूपी दुःख क्यों नहीं नष्ट कर लेते हैं ॥49॥
इसलिए भाई ! स्वर्ग को जाओ और अपने पुण्य का फल भोगो । मैं भी आयु के अंत में मोक्ष का कारण जो मनुष्यपर्याय है उसे प्राप्त करूँगा ॥50॥ हम दोनों उस मनुष्य-पर्याय में तप करेंगे और जिनशासन की सेवा से कर्मो का क्षय कर मोक्ष प्राप्त करेंगे ॥51॥ हाँ, एक काम आप अवश्य करें कि भरत क्षेत्र में हम दोनों को लोग पुत्र आदि से सहित तथा महावैभव से युक्त देखें और हम लोगों को देखकर दूसरों के चित्त आश्चर्य से व्याप्त हो जावें ॥52॥ मेरी कीर्ति की वृद्धि के लिए आप शंख, चक्र तथा गदा हाथ में लिये मेरी प्रतिमाओं के मंदिरों से समस्त भरत क्षेत्र को व्याप्त कर दें । बलदेव का जीव देवेंद्र कृष्ण के पूर्वोक्त वचन स्वीकार कर तथा उसे सम्यग्दर्शन में शुद्धता रखने का उपदेश दे भरत क्षेत्र आया ॥53-54॥ भाई के स्नेह के वशीभूत हुए उस देव ने कृष्ण का कहा सब काम किया । उसने दिव्य विमान में स्थित कृष्ण और बलदेव का सबको दर्शन कराया ॥ 55 ॥ तथा नगर-ग्राम आदि में बनवाये हुए कृष्ण के मंदिरों से संसार को कृष्णविषयक मोह से तन्मय कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि स्नेह से क्या-क्या चेष्टा नहीं होती है ? ॥56॥
तदनंतर देव ने ब्रह्मस्वर्ग जाकर जिनेंद्र भगवान् की पूजा को और वहाँ वह स्त्रियों के समूह से आवृत हो देवों के सुख का उपभोग करता हुआ रहने लगा ॥57॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो स्नेह की अधिकता से यह जीव उच्च स्थान में स्थित होता हुआ भी भयपूर्ण पाताल के मूल में जाता है श्रेष्ठ संसार के सारभूत प्राप्त हुए विषयसुख का उपभोग नहीं करता है पहले अध्ययन हुए शास्त्र का स्मरण नहीं रखता है और विपरीत काम करने लगता है इसलिए स्वर्ग और मोक्ष सुख के बाधक प्राणियों के अत्यधिक स्नेह संबंधी मोह को धिक्कार हो ॥ 58 ॥ तदनंतर मोह को नष्ट करने वाले नेमिजिनेंद्र के उस प्रचलित तीर्थ मैं वरदत्त नामक मुनि को केवलज्ञान हुआ और हरिवंश की संतति को धारण करनेवाला धीर-वीर जरत्कुमार धुरंधर राजलक्ष्मी को रक्षा करता हुआ राज्य का भार संभालने लगा ॥59॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिननाचार्य रचित हरिवंशपुराण में भगवान् नेमिनाथ के निर्वाण का वर्णन करनेवाला पैसठवां सर्ग समाप्त हुआ ॥65॥