निक्षेप 3
From जैनकोष
- निक्षेपों का नैगमादि नयों में अंतर्भाव
- निक्षेपों का नैगमादि नयों में अंतर्भाव
- नयों के विषयरूप से निक्षेपों का निर्देश
षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 6/39 णेगम-ववहार-संगहा सव्वाणि।6। =नैगम, व्यवहार और संग्रहनय सब कर्मों को (नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि कर्मों को) स्वीकार करते हैं। ( षट्खंडागम/10/4,2,2/ सूत्र 2/10); ( षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 6/198); ( षट्खंडागम/14/5,6,6/ सूत्र4/3); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र72/52); ( कषायपाहुड़/1/1,13-14/211/ चूर्णसूत्र/259); ( धवला 1/1,1,1/14/1 )।
षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 7/39 उजुसुदो ट्ठवणकम्मं णेच्छदि।7। =ऋजुसूत्र नय स्थापना कर्म को स्वीकार नहीं करता। अर्थात् अन्य तीन निक्षेपों को स्वीकार करता है। ( षट्खंडागम/10/4,2,2/ सूत्र 3/11); ( षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 7/199); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र 5/3); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र 73/53); ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/212/ चूर्णसूत्र/262); ( धवला 1/1,1,1/16/1 )।
षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 8/40 सद्दणओ णामकम्मं भावकम्मं च इच्छदि। =शब्दनय नाम कर्म और भाव कर्म को स्वीकार करता है।( षट्खंडागम/10/4,2,2/ सूत्र 4/11); ( षट्खंडागम/13/5,5/ सूत्र 8/200); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र 6/3); ( षट्खंडागम/14/5,6/ सूत्र 74/53); ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/214/ चूर्ण सूत्र/264)।
धवला 1/1,1,1/16/5 सद्द-समभिरूढ-एवंभूद-णएसु वि णाम-भाव-णिक्खेवा हवंति तेसिं चेय तत्थ संभवादो। =शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय में भी नाम और भाव ये दो निक्षेप होते हैं, क्योंकि ये दो ही निक्षेप वहाँ पर संभव हैं, अन्य नहीं। ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/240/ चूर्ण सूत्र/285)।
- तीनों द्रव्यार्थिक नयों के सभी निक्षेप विषय कैसे ?
धवला 1/1,1,1/14/1 तत्थ णेगम-संगह-ववहारणएसु सव्वे एदे णिक्खेवा हवंति तव्विसयम्मि तब्भव-सारिच्छ-सामण्णम्हि सव्वणिक्खेवसंभवादो। =नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीनों नयों में सभी निक्षेप होते हैं; क्योंकि इन नयों के विषयभूत तद्भवसामान्य और सादृशसामान्य में सभी निक्षेप संभव हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/211/259/8 )।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/236/283/6 णेगमो सव्वे कसाए इच्छदि। कुदो। संगहासंगहसरूवणेगम्मि विसयीकयसयललोगववहारम्मि सव्वकसायसंभवादो। =नैगमनय सभी (नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव) कषायों को स्वीकार करता है; क्योंकि वह भेदाभेदरूप है और समस्त लोकव्यवहार को विषय करता है।
देखें निक्षेप - 2.3-7 (इन द्रव्यार्थिक नयों में भावनिक्षेप सहित चारों निक्षेपों के अंतर्भाव में हेतु)
- ऋजुसूत्र का विषय नाम निक्षेप कैसे
धवला 1/1,1,1/16/4 ण तत्थ णामणिक्खेवाभावो वि सद्दोवलद्धि काले णियत्तवाचयत्तुवलंभादो। =(जिस प्रकार ऋजुसूत्र में द्रव्य निक्षेप घटित होता है) उसी प्रकार वहाँ नामनिक्षेप का भी अभाव नहीं है; क्योंकि जिस समय शब्द का ग्रहण होता है, उसी समय उसकी नियत वाच्यता अर्थात् उसके विषयभूत अर्थ का भी ग्रहण हो जाता है।
धवला 9/4,1,49/243/10 उजुसुदणओणामपज्जवट्ठियो, कधं तस्स णाम-दव्व—गणणगंथकदी होंति त्ति, विरोहादो। ...एत्थ परिहारो वुच्चदे-उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो चेदि। तत्थ सुद्धो विसईकय अत्थपज्जाओ...। एदस्स भावं मोत्तूण अण्ण कदीओ ण संभवंति, विरोहादो। तत्थ जो सो असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्खुपासियवेंजणपज्जयविसओ। ...तम्हा उजुसुदे ठवणं मोत्तूण सव्वणिक्खेवा संभवंति त्ति वुत्तं। =प्रश्न–ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिक है, अत: वह नामकृति, द्रव्यकृति, गणनकृति और ग्रंथकृति को कैसे विषय कर सकता है, क्योंकि इसमें विरोध है ? उत्तर–यहाँ इस शंका का परिहार करते हैं–ऋजुसूत्र नय शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है। उनमें अर्थपर्याय को विषय करने वाले शुद्ध ऋजुसूत्र में तो भावकृति को छोड़कर अन्य कृतियाँ विषय होनी संभव नहीं हैं; क्योंकि इसमें विरोध है। परंतु अशुद्ध ऋजुसूत्रनय चक्षु इंद्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्यायों को विषय करने वाला है। इस कारण उसमें स्थापना को छोड़कर सब निक्षेप संभव है ऐसा कहा गया है। (विशेष देखें नय - III.5.6)।
कषायपाहुड़/1/1,13-14/228/278/3 दव्वट्ठियणयमस्सिदूण ट्ठिदणामं कथमुजुसुदे पज्जवट्ठिए संभवइ। ण; अत्थणएसु सद्दस्स अत्थाणुसारित्ताभावादो। सद्दववहारेचप्पलए संते लोगववहारो सयलो वि उच्छिज्जदि त्ति चे; होदि तदुच्छेदो, किंतु णयस्स विसओ अम्मेहि परूविदो। =प्रश्न–नामनिक्षेप द्रव्यार्थिकनय का आश्रय लेकर होता है और ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक है, इसलिए उसमें नामनिक्षेप कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, अर्थनय में शब्द अपने अर्थ का अनुसरण नहीं करता है (अर्थ शब्दादि नयों की भाँति ऋजुसूत्रनय शब्दभेद से अर्थभेद नहीं करता है, केवल उस शब्द के संकेत से प्रयोजन रखता है) और नाम निक्षेप में भी यही बात है। अत: ऋजुसूत्रनय में नामनिक्षेप संभव है। प्रश्न–यदि अर्थनयों में शब्द अर्थ का अनुसरण नहीं करते हैं तो शब्द व्यवहार को असत्य मानना पड़ेगा, और इस प्रकार समस्त लोकव्यवहार का व्युच्छेद हो जायेगा? उत्तर–यदि इससे लोक व्यवहार का उच्छेद होता है तो होओ, किंतु यहाँ हमने नय के विषय का प्रतिपादन किया है।
और भी देखें निक्षेप - 3.6 (नाम के बिना इच्छित पदार्थ का कथन न हो सकने से इस नय में नामनिक्षेप संभव है।)
- ऋजुसूत्र का विषय द्रव्य निक्षेप कैसे
धवला 1/1,1,1/16/3 कधमुज्जुसुदे पज्जवट्ठिए दव्वणिक्खेवो त्ति। ण, तत्थ वट्टमाणसमयाणंतगुणण्णिद-एगदव्व-संभवादो। =प्रश्न–ऋजुसूत्र तो पर्यायार्थिक नय है, उसमें द्रव्य निक्षेप कैसे घटित हो सकता है ? उत्तर–ऐसी शंका ठीक नहीं है; क्योंकि ऋजुसूत्र नय में वर्तमान समयवर्ती पर्याय से अनंत गुणित एक द्रव्य ही तो विषय रूप से संभव है। (अर्थात् वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्य ही तो विषय होता है, न कि द्रव्य-विहीन केवल पर्याय।)
धवला 13/5,5,7/199/8 कधं उजुसुदे पज्जवट्ठिए दव्वणिक्खेवसंभवो। ण असुद्धपज्जवट्ठिए वंजणपरजायपरतंते सुहुमपज्जायभेदेहि णाणत्तमुवगए तदविरोहादो। =प्रश्न–ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिक है, उसका विषय द्रव्य निक्षेप होना कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जो व्यंजन पर्यायों के आधीन है और जो सूक्ष्म पर्यायों के भेदों के आलंबन से नानात्व को प्राप्त है, ऐसे अशुद्ध पर्यायार्थिक नय का विषय द्रव्य निक्षेप है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता है। ( धवला 13/5,4,7/40/2 )।
कषायपाहुड़/1/1,13-14/213/263/4 ण च उजुसुदो (सुदे) [पज्जवट्ठिए] णए दव्वणिक्खेवो ण संभवइ; [वंजणपज्जायरूवेण] अवट्ठियस्स वत्थुस्स अणेगेसु अत्थविंजणपज्जाएसु संचरंतस्स दव्वभावुवलंभादो। ...सव्वे (सुद्धे) पुण उजुसुदे णत्थि दव्वं य पज्जायप्पणाये तदसंभवादो। =यदि कहा जाय कि ऋजुसूत्र नय तो पर्यायार्थिक है, इसलिए उसमें द्रव्य निक्षेप संभव नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ अर्पित (विवक्षित) व्यंजन पर्याय की अपेक्षा अवस्थित है और अनेक अर्थपर्याय तथा अवांतर व्यंजनपर्यायों में संचार करता है (जैसे मनुष्य रूप व्यंजनपर्याय बाल, युवा, वृद्धादि अवांतर पर्यायों में) उसमें द्रव्यपने की उपलब्धि होती ही है, अत: ऋजुसूत्र में द्रव्य निक्षेप बन जाता है। परंतु शुद्ध ऋजुसूत्रनय में द्रव्य निक्षेप नहीं पाया जाता है, क्योंकि उसमें अर्थपर्याय की प्रधानता रहती है। ( कषायपाहुड़/1/1,13-14/228/279/3 )। (और भी देखें निक्षेप - 3.3 तथा नय/III/5/6)।
- ऋजुसूत्र में स्थापना निक्षेप क्यों नहीं
धवला 9/4,1,49/245/2 कधं ट्ठवणणिक्खेवो णत्थि। संकप्पवसेण अण्णस्स दव्वस्स अण्णसरूवेण परिणामाणुवलंभादो सरिसत्तणेण दव्वाणमेगत्ताणुवलंभादो। सारिच्छेण एगत्ताणब्भुवगमे कधं णाम-गणण-गंधक-दीणं संभवो। ण तब्भाव-सारिच्छसामण्णेहि विणा वि वट्टमाणकालविसेसप्पणाए वि तासिमत्थित्तं पडि विरोहाभावादो। =प्रश्न–स्थापना निक्षेप ऋजुसूत्रनय का विषय कैसे नहीं ? उत्तर–क्योंकि एक तो संकल्प के वश से अर्थात् कल्पनामात्र से एक द्रव्य का अन्यस्वरूप से परिणमन नहीं पाया जाता (इसलिए तद्भव सामान्य रूप एकता का अभाव है); दूसरे सादृश्य रूप से भी द्रव्यों के यहाँ एकता नहीं पायी जाती, अत: स्थापना निक्षेप यहाँ संभव नहीं है। ( धवला 13/5,5,7/199/6 )। प्रश्न–सादृश्य सामान्य से एकता के स्वीकार न करने पर इस नय में नामकृति गणनाकृति और ग्रंथकृति की संभावना कैसे हो सकती है ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, तद्भावसामान्य और सादृश्य सामान्य के बिना भी वर्तमानकाल विशेष की विवक्षा से भी उनके अस्तित्व के प्रति कोई विरोध नहीं है।
कषायपाहुड़/1/1,13-14/212/262/2 उजुसुदविसए किमिद ठवणा च चत्थि (णत्थि)। तत्थ सारिच्छलक्खणसामण्णाभावादो। ण च दोण्हं लक्खणसंताणम्मि वट्टमाणाणं सारिच्छविरहिएण एगत्तं संभवइ; विरोहादो। असुद्धेसु उजुसुदेसु बहुएसु घडादिअत्थेसु एगसण्णिमिच्छंतेसु सारिच्छलक्खणसामण्णमत्थि त्ति ठवणाए संभवो किण्ण जायदे। होदु णाम सारित्तं; तेण पुण [णियत्तं]; दव्व-खेत्त-कालभावेहि भिण्णाणमेयत्तविरोहादो। ण च बुद्धीए भिण्णत्थाणमेयत्तं सक्किज्जदे [काउं तहा] अणुवलंभादो। ण च एयत्तेण विणा ठवणा संभवदि, विरोहादो। =प्रश्न–ऋजुसूत्र के विषय में स्थापना निक्षेप क्यों नहीं पाया जाता है ? उत्तर–क्योंकि, ऋजुसूत्रनय के विषय में सादृश्य सामान्य नहीं पाया जाता है। प्रश्न–क्षणसंतान में विद्यमान दो क्षणों में सादृश्य के बिना भी स्थापना का प्रयोजक एकत्व बन जायेगा ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, सादृश्य के बिना एकत्व के मानने में विरोध आता है। प्रश्न–‘घट’ इत्याकारक एक संज्ञा के विषयभूत व्यंजनपर्यायरूप अनेक घटादि पदार्थों में सादृश्यसामान्य पाया जाता है, इसलिए अशुद्ध ऋजुसूत्र नयों में स्थापना निक्षेप क्यों संभव नहीं ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, इस प्रकार उनमें सादृश्यता भले ही रही आओ, पर इससे उनमें एकत्व नहीं स्थापित किया जा सकता है; क्योंकि, जो पदार्थ (इस नय की दृष्टि में) द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा भिन्न हैं (देखें नय - IV.3) उनमें एकत्व मानने में विरोध आता है। प्रश्न–भिन्न पदार्थों को बुद्धि अर्थात् कल्पना से एक मान लेंगे ? उत्तर–यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, भिन्न पदार्थों में एकत्व नहीं पाया जाता है, और एकत्व के बिना स्थापना की संभावना नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। ( कषायपाहुड़/1/1,13-14/228/278/1 ); ( धवला 13/5,5,7/199/6 )। - शब्दनयों का विषय नामनिक्षेप कैसे
धवला 9/4,1,50/245/9 होदुं भावकदो सद्दणयाणं विसओ, तेसिं विसए दव्वादीणमभावादो। किंतु ण तेसिं णामकदी जुज्जदे, दव्वट्ठियणयं मोत्तूण अण्णत्थ सण्णासण्णिसंबंधाणुववत्तीदो ? खणक्खइभावमिच्छंताणं सण्णासंबंधा माघडंतु णाम। किंतु जेण सद्दणया सद्दजणिदभेदपहाणा तेण सण्णासण्णिसंबंधाणमघडणाए अणत्थिणो। सगब्भुवगमम्हि सण्णासण्णिसंबंधो अत्थि चेवे त्ति अज्झवसायं काऊण ववहरणसहावा सद्दणया, तेसिमण्णहा सद्दण्यात्ताणुववत्तीदो। तेण तिसु सद्दणएसु णामकदी वि जुज्जदे। =प्रश्न–भावकृति शब्द नयों की विषय भले ही हो; क्योंकि, उनके विषय में द्रव्यादिक कृतियों का अभाव है। परंतु नामकृति उनकी विषय नहीं हो सकती; क्योंकि, द्रव्यार्थिक नय को छोड़कर अन्य (शब्दादि पर्यायार्थिक) नयों में संज्ञा-संज्ञी संबंध बन नहीं सकता। (विशेष देखें नय - IV.3/8/5) उत्तर–पदार्थ को क्षणक्षयी स्वीकार करने वालों के यहाँ (अर्थात् पर्यायार्थिक नयों में) संज्ञा-संज्ञी भले ही घटित न हो; किंतु चूँकि शब्द नयें शब्द जनित भेद की प्रधानता स्वीकार करते हैं (देखें नय - I.4.5) अत: वे संज्ञा-संज्ञी संबंधों के (सर्वथा) अघटन को स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए (उनके) स्वमत संज्ञा-संज्ञीसंबंध है ही, ऐसा निश्चय करके शब्दनय भेद करने रूप स्वभाव वाले हैं; क्योंकि, इसके बिना उनके शब्दनयत्व ही नहीं बन सकता। अतएव तीनों शब्दनयों में नामकृति भी उचित है।
धवला 14/5,6,7/4/1 कधं णामबंधस्स तत्थ संभवो। ण, णामेण विणा इच्छिदत्थपरूवणाए अणुववत्तीदो। =प्रश्न–इन दोनों (ऋजुसूत्र व शब्द) नयों में नामबंध कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, नाम के बिना इच्छित पदार्थ का कथन नहीं किया जा सकता; इस अपेक्षा नामबंध को इन दोनों (पर्यायार्थिक) नयों का विषय स्वीकार किया है। ( धवला 13/5,4,8/40/5 )। कषायपाहुड़/1/1,13-14/229/279/7 अणेगेसु घडत्थेसु दव्व-खेत्त-काल-भावेहि पुधभूदेसु एक्को घडसद्दो वट्टमाणो उवलब्भदे, एवमुवलब्भमाणे कधं सद्दणए पज्जवट्ठिए णामणिक्खेवस्स संभवो त्ति। ण; एदम्मि णए तेसिं घडसद्दाणं दव्व-खेत्त-काल-भाववाचियभावेण भिण्णाणमण्णयाभावादो। तत्थ संकेयग्गहणं दुग्घडं त्ति चे। होदु णाम, किंतु णयस्स विसओ परूविज्जदे, ण च सुणएसु किं पि दुग्धडमत्थि। प्रश्न–द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा भिन्न-भिन्न अनेक घटरूप पदार्थों में (सादृश्य सामान्य रूप) एक घट शब्द प्रवृत्त होता हुआ पाया जाता है। जब कि ‘घट’ शब्द इस प्रकार उपलब्ध होता है तब पर्यायार्थिक शब्दनय में नाम निक्षेप कैसे संभव हैं; (क्योंकि पर्यायार्थिक नयों में सामान्य का ग्रहण नहीं होता देखें नय - IV.3)। उत्तर–नहीं; क्योंकि, इस नय में द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावरूप वाच्य से भेद को प्राप्त हुए उन अनेक घट शब्दों का परस्पर अन्वय नहीं पाया जाता है, अर्थात् वह नय द्रव्य क्षेत्रादि के भेद से प्रवृत्त होने वाले घट शब्दों को भिन्न मानता है और इसलिए उसमें नामनिक्षेप बन जाता है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो शब्दनय में संकेत का ग्रहण करना कठिन हो जायेगा ? उत्तर–ऐसा होता है तो होओ, किंतु यहाँ तो शब्दनय के विषय का कथन किया है।
दूसरे सुनयों की प्रवृत्ति, क्योंकि, सापेक्ष होती है, इसलिए उनमें कुछ भी कठिनाई नहीं है। (विशेष देखें आगम - 4.4)। - शब्दनयों में द्रव्य निक्षेप क्यों नहीं
धवला 10/4,2,2,4/12/1 किमिदि दव्वं णेच्छदि। पज्जायंतरसंकंतिविरोहादो सद्दभेएण अत्थपढणवावदम्मि वत्थुविसेसाणं णाम-भावंमोत्तूण पहाणत्ताभावादो।=प्रश्न–शब्दनय द्रव्य निक्षेप को स्वीकार क्यों नहीं करता ? उत्तर–एक तो शब्दनय की अपेक्षा दूसरी पर्याय का संक्रमण मानने में विरोध आता है। दूसरे, वह शब्दभेद से अर्थ के कथन करने में व्यापृत रहता है (देखें नय - I.4.5), अत: उसमें नाम और भाव की ही प्रधानता रहती है, पदार्थों के भेदों की प्रधानता नहीं रहती; इसलिए शब्दनय द्रव्य निक्षेप को स्वीकार नहीं करता। धवला 13/5,5,8/200/3 णामे दव्वाविणभावे संते वितत्थ दव्वम्हि तस्स सद्दणयस्स अत्थित्ताभावादो। सद्ददुवारेण पज्जयदुवारेण च अत्थभेदमिच्छंतए सद्दणए दो चेव णिक्खेवा संभवंति त्ति भणिदं होदि। =यद्यपि नाम द्रव्य का अविनाभावी है (और वह शब्दनय का विषय भी है) तो भी द्रव्य में शब्दनय का अस्तित्व नहीं स्वीकार किया गया है। अत: शब्द द्वारा और पर्याय द्वारा अर्थभेद को स्वीकार करने वाले (शब्दभेद से अर्थभेद और अर्थभेद से शब्दभेद को स्वीकार करने वाले) शब्द नय में दो ही निक्षेप संभव हैं।
कषायपाहुड़/1/1,13-14/214/264/4 दव्वणिक्खेवो णत्थि, कुदो। लिंगादे (?) सद्दवाचियाणमेयत्ताभावे दव्वाभावादो। वंजणपज्जाए पडुच्च सुद्धे वि उजुसुदे अत्थि दव्वं, लिंगसंखाकालकारयपुरिसोवग्गहाणं पादेक्कमेयत्तब्भुवगमादो। =शब्द नय में द्रव्यनिक्षेप भी संभव नहीं हैं; क्योंकि, इस नय की दृष्टि में लिंगादि की अपेक्षा शब्दों के वाच्यभूत पदार्थों में एकत्व नहीं पाया जाता है। किंतु व्यंजनपर्याय की अपेक्षा शुद्धसूत्रनय में भी द्रव्यनिक्षेप पाया जाता है; क्योंकि, ऋजुसूत्रनय लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह में से प्रत्येक का अभेद स्वीकार करता है। (अर्थात् ऋजुसूत्र में द्रव्य निक्षेप बन जाता है परंतु शब्द नय में नहीं)।
- नयों के विषयरूप से निक्षेपों का निर्देश