निर्ग्रंथ
From जैनकोष
- <a name="1" id="1">निष्परिग्रह के अर्थ में
ध.९/४,१,६७/३२३/७ ववहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरंग कारणत्तादो। एदस्स परिहरणं णिग्गंथं। णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गंथं। णइगमणएण तिरयणाणुवजोगी बज्झब्भंतरपरिग्गहपरिच्चाओ णिग्गंथं। =व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्रादिक (बाह्य) ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थ (मिथ्यात्वादि) के कारण हैं, और इनका त्याग निर्ग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्वादिक (अभ्यन्तर) ग्रन्थ हैं, क्योंकि, वे कर्मबन्ध के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। नैगमनय की अपेक्षा तो रत्नत्रय में उपयोगी पड़ने वाला जो भी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह (ग्रन्थ) का परित्याग है उसे निर्ग्रन्थता समझना चाहिए।–(बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह के भेदों का निर्देश–देखें - ग्रन्थ ); (नि.सा./ता.वृ./४४)।
भ.आ./वि./४३/१४२/२ तत् त्रितयमिह निर्ग्रन्थशब्देन भण्यते। =सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय को यहा निर्ग्रन्थ शब्द द्वारा कहा गया है। प्र.सा./ता.वृ./२०४/२७८/१५ व्यवहारेण नग्नत्वं यथाजातरूपं निश्चयेन तु स्वात्मरूपं तदित्थंभूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधर: निर्ग्रन्थो जात इत्यर्थ:। =व्यवहारनय से नग्नत्व को यथाजातरूप कहते हैं और निश्चयनय से स्वात्मरूप को। इस प्रकार के व्यवहार व निश्चय यथाजातरूप को धारण करने वाला यथाजातरूपधर कहलाता है। ‘निर्ग्रन्थ होना’ इसका ऐसा अर्थ है। - निर्ग्रन्थ साधु विशेष के अर्थ में
स.सि./९/४६/४६०/१० उदकदण्डराजिवदनभिव्यक्तोदयकर्माण: ऊर्ध्वमुहूर्त्तादुद्भिद्यमानकेवलज्ञानदर्शनभाजो निर्ग्रन्था:। =जिस प्रकार जल में लकड़ी से की गयी रेखा अप्रगट रहती है, इसी प्रकार जिनके कर्मों का उदय अप्रगट हो, और अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही जिन्हें केवलज्ञान व केवलदर्शन प्रगट होने वाला है, वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। (रा.वा./९/४६/४/६३६/२८); (चा.सा./१०२/१)\
नोट–निर्ग्रन्थसाधु की विशेषताए– देखें - साधु / ५ ।