दर्शन ज्ञान चारित्र में कथंचित् एकत्व
From जैनकोष
- दर्शन ज्ञान चारित्र में कथंचित् एकत्व
- तीनों वास्तव में एक आत्मा ही है
समयसार/7, 16, 277 ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्तदंसणं णाणं। णवि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।7। दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।16। आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च। आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो।277। = ज्ञानी के चारित्र, दर्शन व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं, निश्चय से ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है और दर्शन भी नहीं है अर्थात् ये कोई तीन पृथक्-पृथक् स्वतंत्र पदार्थ नहीं हैं। ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है।7। ( नयचक्र बृहद्/263 )। साधु पुरुष को दर्शन ज्ञान और चारित्र सदा सेवन करने योग्य हैं और उन तीनों को निश्चय नय से एक आत्मा ही जानो।16। ( मोक्षपाहुड़/105 ); ( तिलोयपण्णत्ति/9/23 ); ( द्रव्यसंग्रह/39 )। निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन है और चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान है, मेरा आत्मा ही संवर और योग है।277।
पंचास्तिकाय/ मूल/162 जो चरदि णादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं। सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि। = जो आत्मा अनन्यमय आत्मा को आत्मा से आचरता है, जानता है, देखता है, वह (आत्मा ही) चारित्र है, ज्ञान है और दर्शन है, ऐसा निश्चित है। ( तत्त्वानुशासन/32 )।
दर्शनपाहुड़/ मूल/20 जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं। ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं।20। = जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान करना जिनेंद्र भगवान् ने व्यवहार से सम्यक्त्व कहा है, निश्चय से आत्मा ही सम्यग्दर्शन है। ( परमात्मप्रकाश/मूल/1/96 )।
योगसार/अमितगति/1/41-42 आचारवेदनं ज्ञानं सम्यक्त्वं तत्त्वरोचनं। चारित्रं च तपश्चर्या व्यवहारेण गद्यते।41। सम्यक्त्वज्ञानचारित्र-स्वभावः परमार्थतः। आत्मा रागविनिर्मुक्ता मुक्तिमार्गो विनिर्मलः।42। = व्यवहारनय से आचारों का जानना ज्ञान, तत्त्वों में रुचि रखना सम्यक्त्व और तपों का आचरण करना सम्यक्चारित्र है।41। परंतु निश्चयनय से तो जो आत्मा रागद्वेष रहित होने के कारण स्वयं सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र स्वभावस्वरूप है वही निर्दोष मोक्षमार्ग है।42।
- तीनों को एक आत्मा कहने का कारण
समयसार / आत्मख्याति/12/ कलश 6 एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः, पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्यः पृथक्। सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसंततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः।6। = इस आत्मा को अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना ही नियम से सम्यग्दर्शन है, यह आत्मा अपने गुण पर्यायों में व्याप्त रहने वाला है और शुद्धनय से एकत्व में निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघन है। एवं जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है, इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हैं, कि इस नव तत्त्व की परिपाटी को छोड़कर वह आत्मा ही हमें प्राप्त हो।
द्रव्यसंग्रह/मूल/40 रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मइत्तु अण्णइवियम्हि। तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा। = आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों में रत्नत्रय नहीं रहता, इस कारण वह रत्नत्रयमय आत्मा ही निश्चय से मोक्ष का कारण है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/4/14, 15 दर्शनं निश्चयः पुंसि बोधस्तद्वोध इष्यते। स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः।14। एकमेव हि चैतन्यं शुद्धनिश्चयतोऽथवा। कोऽवकाशो विकल्पानां तत्राखंडैकवस्तुनि।15। = आत्मस्वरूप के निश्चय को सम्यग्दर्शन, उसके ज्ञान को सम्यग्ज्ञान तथा उसी आत्मा में स्थिर होने को सम्यक्चारित्र कहा जाता है। इन तीनों का संयोग मोक्ष का कारण होता है।14। परंतु शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से ये तीनों एक चैतन्य स्वरूप ही हैं, कारण उस एक अखंड वस्तु में भेदों के लिए स्थान ही कहाँ है।15।
- ज्ञानमात्र ही मोक्षमार्ग है
बोधपाहुड़/ मूल/20 संजम संजुत्तस्स य सुज्झाण जीयस्स मोक्खमग्गस्स। णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं। = संयम से संयुक्त तथा ध्यान के योग्य मोक्षमार्ग का लक्ष्य क्योंकि ज्ञान से प्राप्त होता है, इसलिए इसको जानना चाहिए ।
समयसार / आत्मख्याति/155 मोक्षहेतुः, किल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि। तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम्। जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम्। रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् चारित्रम्। तदेवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम्। ततो ज्ञानमेव परमार्थमोक्षहेतुः। = मोक्ष का कारण वास्तव में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र है, उसमें जीवादि-पदार्थों के श्रद्धान स्वभाव स्वरूप ज्ञान का परिणमन करना सम्यग्दर्शन है, उन पदार्थों के ज्ञान स्वभाव स्वरूप ज्ञान का परिणमन करना सम्यग्ज्ञान है और उस ज्ञान का ही रागादि के परिहार स्वभाव स्वरूप परिणमन करना सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र ये तीनों एक ज्ञान का ही परिणमन हैं । इसलिए ज्ञान ही परमार्थ मोक्ष का कारण है।
समयसार / आत्मख्याति/ परि./कलश/265 के पश्चात् - आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यते एव; तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात्। तत्र यत्साधकं रूपं स उपायः, यत्सिद्धं रूपं स उपेयः। अतोऽस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात्संसरतः....सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपाकप्रकर्षपरंपरया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाणस्यांतर्मग्ननिश्चयसम्यग्दर्शज्ञानचारित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा..... रत्नत्रयातिशयप्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्खलितविमलस्वभावभावतया सिद्धरूपेण च स्वयं परिणम-मानज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति। = आत्मवस्तु को ज्ञानमात्र होने पर भी उसे उपाय-उपेयभाव है ही। क्योंकि वह एक होने पर भी स्वयं साधक रूप से और सिद्धरूप से दोनों प्रकार से परिणमित होता है। (आत्मा परिणामी है और साधकत्व व सिद्धत्व उसके परिणाम हैं। तहाँ भी पूर्व पर्याययुक्त आत्मा साधक और उत्तरपर्याययुक्त आत्मा साध्य है।) उसमें जो साधकरूप है वह उपाय है और जो सिद्धरूप है वह उपेय है। इसलिए अनादिकाल से मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र द्वारा स्वरूप से च्युत होने के कारण संसार में भ्रमण करते हुए, व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र के पाक के प्रकर्ष की परंपरा से क्रमशः स्वरूप में आरोहण करता है। तदनंतर अंतर्मग्न जो निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र उनकी तद्रूपता के द्वारा स्वयं साधक रूप से परिणमित होता है। और अंत में रत्नत्रय की अतिशयता से प्रवर्तित जो सकल कर्म के क्षय से प्रज्वलित अस्खलित विमल स्वभाव, उस भाव के द्वारा स्वयं सिद्ध रूप से परिणमित होता है। ऐसा एक ही ज्ञानमात्र उपाय-उपेय भाव को सिद्ध करता है।
- तीनों के भेद व अभेद का समन्वय
तत्त्वसार/9/21 स्यात् सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूपः, पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः। एको ज्ञाता सर्वदैवाद्वितीयः, स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्गः।21। = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र इन तीनों में भेद करना सो पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से मोक्षमार्ग है। इन सर्व पर्यायों में ज्ञाता जीव एक ही रहता है। पर्याय तथा जीव में कोई भेद न देखते हुए रत्नत्रय से आत्मा को अभिन्न देखना, सो द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से मोक्षमार्ग है।
- ज्ञान कहने से यहाँ पारिणामिक भाव इष्ट है
नयचक्र बृहद्/373 सद्धाणणणचरणं जाव ण जीवस्स परमसब्भावो। ता अण्णाणी मूढो संसारमहोवहिं भमइ। = जब तक जीव को निज परम स्वभाव (पारिणामिकभाव) में श्रद्धान ज्ञान व आचरण नहीं होता तब तक वह अज्ञानी व मूढ रहता हुआ संसार महासागर में भ्रमण करता है।
समयसार / आत्मख्याति 204 यदेत्तत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थः साक्षान्मोक्षोपायः। न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिंदंति, किंतु तेऽपीदमेवैकं पदमभिनंदंति। = यह ज्ञान नाम का एक पद परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्ष का उपाय है। यहाँ मतिज्ञानादि (ज्ञान के) भेद इस एक पद को नहीं भेदते, किंतु वे भी इस एक पद का अभिनंदन करते हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/41 पंचानां भावानां मध्ये क्षायिकभावः....सिद्धस्य भवति। औदयिकौपशमिकक्षयोपशमिकभावाः संसारिणामेव भवंति न मुक्तानाम्। पूर्वोक्तभावचतुष्टयं सावरणसंयुक्तत्वात् न मुक्तिकारणम्। त्रिकालनिरूपाधिस्वरूप...पंचमभावभावनया पंचमगतिं मुमुक्षवो यांति यास्यंति गताश्चेति। = पाँच भावों में से क्षायिक भाव सिद्धों को होता है और औदयिक औपशमिक व क्षयोपशमिक भाव संसारियों को होते हैं, मुक्तों को नहीं। ये पूर्वोक्त चार भाव आवरण सहित होने से मुक्ति के कारण नहीं हैं। त्रिकाल-निरूपाधिस्वरूप पंचमभाव (पारिणामिकभाव) की भावना से ही मुमुक्षुजन पंचम गति को प्राप्त करते हैं, करेंगे और किया है।
- दर्शनादि तीनों-चैतन्य की ही दर्शन ज्ञानरूप सामान्य विशेष परिणति हैं
पंचास्तिकाय/154, 159 जीवसहावं णाणं अप्पडिहददंसणं अण्णाणमयं। चरियं च तेसु णियदं अत्थित्तमणिंदियं भणियं।154। चरियं चरदि संग सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा। दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो।159। = जीव का स्वभाव ज्ञान और अप्रतिहत दर्शन है, जो कि अनन्यमय है। उन ज्ञान व दर्शन में नियत अस्तित्व जो कि अनिंदित है, उसे चारित्र कहा है।154। जो परद्रव्यात्मक भावों से रहित स्वरूप वाला वर्तता हुआ दर्शन ज्ञानरूप भेद को आत्मा से अभेदरूप आचरता है वह स्वचारित्र को आचरता है।159।
राजवार्तिक/1/1/62/16/19 ज्ञानदर्शनयोरनेन विधिना अनादिपारिणामिकचैतन्यजीवद्रव्यार्थादेशात् स्यादेकत्वम्, यतो द्रव्यार्थादेशाद् यथा ज्ञानपर्याय आत्मद्रव्यं तथा दर्शनमपि। तयोरेव प्रतिनियतज्ञानदर्शनपर्यायार्थार्पणात् स्यादन्यत्वम्, यस्मादन्यो ज्ञानपर्यायोऽन्यश्च दर्शनपर्यायः। = (ज्ञान, दर्शन चारित्र के प्रकरण में) ज्ञान और दर्शन में, अनादि पारिणामिक चैतन्यमय जीवद्रव्य की विवक्षा होने पर अभेद है, क्योंकि वही आत्मद्रव्य ज्ञानरूप होता है और वही दर्शनरूप। जब हम उन उन पर्यायों की विवक्षा करते है। तब ज्ञानपर्याय भिन्न है और दर्शनपर्याय भिन्न है।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/154 जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्गः। जीवस्वभावो हि ज्ञानदर्शने अनन्यमयत्वात्। अनन्यमयत्वं च तयोविशेष-सामान्यचैतन्यस्वभावजीवनिर्वृत्तत्वात्। अथ तज्जीवस्वरूपभूतयोर्ज्ञानदर्शनयोर्यन्नियतमवस्थितमुत्पादव्ययध्रौव्यरूपवृत्तिमयमस्तित्वं रागादिपरिणत्यभावादनिंदितं तच्चरितं। तदेव मोक्षमार्ग इति। = जीवस्वभाव नियत चारित्र मोक्षमार्ग है, जीवस्वभाव वास्तव में ज्ञान दर्शन है, क्योंकि वे अनन्यमय हैं। और उसका भी कारण यह है कि विशेष चैतन्य (ज्ञान) और सामान्य चैतन्य (दर्शन) जिसका स्वभाव है ऐसे जीव से वे निष्पन्न हैं। अब जीव के स्वरूपभूत ऐसे उन ज्ञान दर्शन में नियत अर्थात् अवस्थित ऐसा जो उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वृत्तिमय अस्तित्व, जो कि रागादि परिणाम के अभाव के कारण अनिंदित है, वह चारित्र है। वही मोक्षमार्ग है।
(देखें सम्यग्दर्शन - I.1); ((सम्यग्दर्शन में दर्शन शब्द का अर्थ कथंचित् सत्तावलोकन रूप दर्शन भी ग्रहण किया गया है, जो कि चैतन्य की सामान्य शक्ति है)।
- तीनों वास्तव में एक आत्मा ही है