निक्षेप 4
From जैनकोष
- स्थापना निक्षेप निर्देश
- स्थापना निक्षेप सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/5/17/4 काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयं इति स्थाप्यमाना स्थापना। = काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदि में ‘यह वह है’ इस प्रकार स्थापित करने की स्थापना कहते हैं। ( राजवार्तिक/1/5/2/28/18 )। राजवार्तिक/1/5/2/28/18 सोऽयनित्यभिसंबंधत्वेन अन्यस्य व्यवस्थापनामात्रं स्थापना। = ‘यह वही है’ इस प्रकार अन्य वस्तु में बुद्धि के द्वारा अन्य का आरोपण करना स्थापना है। ( धवला 4/1,5,1/314/1 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड 53/53 ); ( तत्त्वसार/1/11 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/742 )।
श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लोक 54/263 वस्तुन: कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता। =कर लिया गया है नाम निक्षेप या संज्ञाकारण जिसका ऐसी वस्तु की उन वास्तविक धर्मों के अध्यारोप से ‘यह वही है’ ऐसी प्रतिष्ठा करना स्थापनानिक्षेप माना गया है। - स्थापना निक्षेप के भेद
- सद्भाव व असद्भाव स्थापना रूप दो भेद
श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 54/263 सद्भावेतरभेदेन द्विधा तत्त्वाधिरोपत:। =वह सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना के भेद से दो प्रकार का है। ( धवला 1/1,1,1/20/1 )।
नयचक्र बृहद्/273
सायार इयर ठवणा। =साकार व अनाकार के भेद से स्थापना दो प्रकार है। - काष्ठ कर्म आदि रूप अनेक भेद
षट्खंडागम 9/4,1/ सूत्र 52/248 जा सा ठवणकदी णाम सा कट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेण्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जंति कदि त्ति सा सव्वा ठवण कदी णाम।52।=जो वह स्थापनाकृति है वह काष्ठकर्मों में, अथवा चित्रकर्मों में, अथवा पोतकर्मों में, अथवा लेप्यकर्मों में, अथवा लयनकर्मों में, अथवा शैलकर्मों में, अथवा गृहकर्मों में, अथवा भित्तिकर्मों में, अथवा दंतकर्मों में, अथवा भेंडकर्मों में, अथवा अक्ष या वराटक (कौड़ी व शतरंज का पासा); तथा इनको आदि लेकर अन्य भी जो ‘कृति’ इस प्रकार स्थापना में स्थापित किये जाते हैं, वह सब स्थापना कृति कही जाती है। नोट–(धवला में सर्वत्र प्रत्येक विषय में इसी प्रकार निक्षेप किये गये हैं।) ( षट्खंडागम 13/5,3/ सूत्र 10/9), ( षट्खंडागम ,14/5,6/ सूत्र 9/5)
- सद्भाव व असद्भाव स्थापना रूप दो भेद
- सद्भाव असद्भाव स्थापना के लक्षण
श्लोकवार्तिक 2/1/5/54/263/17 तत्राध्यारोप्यमाणेन भावेंद्रादिना समाना प्रतिमा सद्भावस्थापना मुख्यदर्शिन: स्वयं तस्यास्तद्बुद्धिसंभवात् । कथंचित् सादृश्यसद्भावात् । मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति सप्रत्ययात् । = भाव निक्षेप के द्वारा कहे गये अर्थात् वास्तविक पर्याय से परिणत इंद्र आदि के समान बनी हुई काष्ठ आदि की प्रतिमा में आरोपे हुए उन इंद्रादि की स्थापना करना सद्भावस्थापना है; क्योंकि, किसी अपेक्षा से इंद्र आदि का सादृश्य यहाँ विद्यमान है, तभी तो मुख्य पदार्थ को जीव की तिस प्रतिमा के अनुसार सादृश्य से स्वयं ‘यह वही है’ ऐसी बुद्धि हो जाती है। मुख्य आकारों से शून्य केवल वस्तु में ‘यह वही है’ ऐसी स्थापना कर लेना असद्भाव स्थापना है; क्योंकि मुख्य पदार्थ को देखने वाले भी जीव को दूसरों के उपदेश से ही ‘यह वही है’ ऐसा समीचीन ज्ञान होता है, परोपदेश के बिना नहीं। ( धवला 1/1,1,1/20/1 ), ( नयचक्र बृहद्/273 ) - सद्भाव असद्भाव स्थापना के भेद
धवला 13/5,4,12/42/1 कट्ठकम्मप्पहुडि जाव भेंडकम्मे त्ति ताव एदेहि सब्भावट्ठवणा परूविदा। उवरिमेहि असब्भावट्ठवणा समुद्दिट्ठा। =(स्थापना के उपरोक्त काष्ठकर्म आदि भेदों में से) काष्ठकर्म से लेकर भेंडकर्म तक जितने कर्म निर्दिष्ट हैं उनके द्वारा सद्भाव स्थापना कही गयी है, और आगे जितने अक्ष वराटक आदि कहे गए हैं, उनके द्वारा असद्भावस्थापना निर्दिष्ट की गयी है। ( धवला 9/4,1,52/250/3 )
धवला 9/4,1,52/250/3 एदे सब्भावट्ठणा। एदे देसामासया दस परूविदा। संपहि असब्भावट्ठवणाविसयस्सुवलक्खणट्ठं भणदि–...जे च अण्णे एवमादिया त्ति वयणं दोण्णं अवहारणपडिसेहणफलं। तेण तंभतुला-हल-मूसलकम्मादीणं गहणं। =ये (काष्ठ कर्म आदि) सद्भाव स्थापना के उदाहरण हैं। ये दस भेद देशामर्षक कहे गये हैं, अर्थात् इनके अतिरिक्त भी अनेकों हो सकते हैं। अब असद्भावस्थापना संबंधी विषय के उपलक्षणार्थ कहते हैं–इस प्रकार ‘इन (अक्ष व वराटक) को आदि लेकर और भी जो अन्य हैं’ इस वचन का प्रयोजन दोनों भेदों के अवधारण का निषेध करना है, अर्थात् ‘दो ही है’ ऐसे ग्रहण का निषेध करना है। इसलिए स्तंभकर्म, तुलाकर्म, हलकर्म, मूसलकर्म आदिकों का भी ग्रहण हो जाता है। - काष्ठकर्म आदि भेदों के लक्षण
धवला 9/4,1,52/249/3 देव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साण णच्चण-हसण-गायण-तूर-वीणादिवायणकिरियावावदाणं कट्ठघडिदपडिमाओ कट्ठकम्मं त्ति भणंति। पड-कुड्ड-फलहिसादीसु णच्चणादिकिरिया-वावददेव-णेरइय-तिरिक्खमणुस्साणं पडिमाओ चित्तकम्म, चित्रेण क्रियंते इति व्युत्पत्ते:। पोत्तं वस्त्रम्, तेण कदाओ पडिमाओ पोत्तकम्मं। कड-सक्खर-मट्टियादीणं लेवो लेप्पं, तेण घडिदपडिमाओ लेप्पकम्मं। लेणं पव्वओ, तम्हि घडिदपडिमाओ लेणकम्मं। सेलो पत्थरो, तम्हि घडिदपडिमाओ सेलकम्मं। गिहाणि जिणघरादीणि, तेसु कदपडिमाओ गिहकम्म, हय-हत्थि-णर-वराहादिसरूवेण घडिदघराणि गिहकम्ममिदि वुत्तं होदि। घरकुड्डेसु तदो अभेदेण चिदपडिमाओ भित्तिकम्मं। हत्थिदंतेसु किण्णपडिमाओ दंतकम्मं। भेंडो सुप्पसिद्धो, तेण घडिदपडिमाओ भेडकम्मं। ...अक्खे त्ति वत्ते जूवक्खो सयडक्खो वा घेत्तव्वो। वराडओ त्ति वुत्ते कवडि्डया घेत्तव्वा। =नाचना, हँसना, गाना तथा तुरई एवं वीणा आदि वाद्यों के बजानेरूप क्रियाओं में प्रवृत्त हुए देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों की काष्ठ से निर्मित प्रतिमाओं को काष्ठकर्म कहते हैं। पट, कुडय (भित्ति) एवं फलहिका (काष्ठ आदि का तख्ता) आदि में नाचने आदि क्रिया में प्रवृत्त देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों की प्रतिमाओं को चित्रकर्म कहते हैं; क्योंकि, ‘चित्र से जो किये जाते हैं वे चित्रकर्म हैं’ ऐसी व्युत्पत्ति है। पोत्त का अर्थ वस्त्र है, उससे की गयी प्रतिमाओं का नाम पोत्तकर्म है। कूट (तृण), शर्करा (बालू) व मृत्तिका, आदि के लेप का नाम लेप्य हैं। उससे निर्मित प्रतिमायें लेप्यकर्म कही जाती हैं। लयन का अर्थ पर्वत है, उसमें निर्मित प्रतिमाओं का नाम लयनकर्म है। शैल का अर्थ पत्थर है, उसमें निर्मित प्रतिमाओं का नाम शैलकर्म है। गृहों से अभिप्राय जिनगृह आदिकों से है, उनमें की गयीं प्रतिमाओं का नाम गृहकर्म है। घोड़ा, हाथी, मनुष्य एवं वराह (शूकर) आदि के स्वरूप से निर्मित घर गृहकर्म कहलाते हैं, यह अभिप्राय है। घर की दीवालों में उनसे अभिन्न रची गयी प्रतिमाओं का नाम भित्तिकर्म है। हाथी दाँतों पर खोदी हुई प्रतिमाओं का नाम दंतकर्म है। भेंड सुप्रसिद्ध है। उस पर खोदी गई प्रतिमाओं का नाम भेंडकर्म है। अक्ष ऐसा कहने पर द्यूताक्ष अथवा शकटाक्ष का ग्रहण करना चाहिए (अर्थात् हार जीते के अभिप्राय से ग्रहण किये गये जूआ खेलने के अथवा शतरंज व चौसर आदि के पासे अक्ष हैं) वराटक ऐसा कहने पर कपर्दिका (कौड़ियों) का ग्रहण करना चाहिए। ( धवला 13/5,3,10/9/8 ); ( धवला 14/5,6,9/5/10 ) - नाम व स्थापना में अंतर
राजवार्तिक/1/5/13/29/25 नामस्थापनयोरेकत्वं संज्ञाकर्माविशेषादिति चेत्; न; आदरानुग्रहाकांक्षित्वात् स्थापनायाम् । ...यथा अर्हदिंद्रस्कंदेश्वरादिप्रतिमासु आदरानुग्रहाकांक्षित्वं जनस्य, न तथा परिभाषते वर्तते। ततोऽन्यत्वमनयो:। राजवार्तिक/1/5/23/30/31 यथा ब्राह्मण: स्यान्मनुषयो ब्राह्मणस्य मनुष्यजात्यात्मकत्वात् । मनुष्यस्तु ब्राह्मण: स्यान्न वा, मनुष्यस्य ब्राह्मणजात्यादिपर्यायात्मकत्वादर्शनात् । तथा स्थापना स्यान्नाम, अकृतनाम्न: स्थापनानुपपत्ते:। नाम तु स्थापना स्यान्न वा, उभयथा दर्शनात् ।=- यद्यपि नाम और स्थापना दोनों निक्षेपों में संज्ञा रखी जाती है, बिना नाम रखे स्थापना हो ही नहीं सकती; तो भी स्थापित अर्हंत, इंद्र, स्कंद्व और ईश्वर आदि की प्रतिमाओं में मनुष्य को जिस प्रकार की पूजा, आदर और अनुग्रह की अभिलाषा होती है, उस प्रकार केवल नाम में नहीं होती, अत: इन दोनों में अंतर है। ( धवला 5/1,7,1/ गाथा 1/186), ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लोक 55/264)
- जैसे ब्राह्मण मनुष्य अवश्य होता है; क्योंकि, ब्राह्मण में मनुष्य जातिरूप सामान्य अवश्य पाया जाता है; पर मनुष्य ब्राह्मण हो न भी हो, क्योंकि मनुष्य के ब्राह्मण जाति आदि पर्यायात्मकपना नहीं देखा जाता। इसी प्रकार स्थापना तो नाम अवश्य होगी, क्योंकि बिना नामकरण के स्थापना नहीं होती; परंतु जिसका नाम रखा है उसकी स्थापना हो भी न भी हो, क्योंकि नामवाले पदार्थों में स्थापनायुक्तपना व स्थापनारहितपना दोनों देखे जाते हैं।
धवला 5/1,7,1/ गा.2/186 णामिणि धम्मुवयारो णामंट्ठवणा य जस्स तं थविदं। तद्धम्मे ण वि जादो सुणाम ठवणाणमविसेसं। =नाम में धर्म का उपचार करना नामनिक्षेप है, और जहाँ उस धर्म की स्थापना की जाती है, वह स्थापना निक्षेप है। इस प्रकार धर्म के विषय में भी नाम और स्थापना की अविशेषता अर्थात् एकता सिद्ध नहीं होती।
- सद्भाव व असद्भाव स्थापना में अंतर
देखें निक्षेप - 4.3 (सद्भाव स्थापना में बिना किसी के उपदेश के ‘यह वही है’ ऐसी बुद्धि हो जाती है, पर असद्भाव स्थापना में बिना अन्य के उपदेश के ऐसी बुद्धि होनी संभव नहीं।) धवला 13/5,4,12/42/2 सब्भावासब्भावट्ठवणाणं को विसेसो। बुद्धीए ठविज्जमाणं वण्णाकारादीहि जमणुहरइ दव्वं तस्स सब्भावसण्णा। दव्व-खेत्त-वेयणावेयणादिभेदेहि भिण्णाणं पडिणिभि-पडिणिभेयाणं कधं सरिसत्तमिदि चेण, पाएण सरित्तुवलंभादो। जमसरिसं दव्वं तमसब्भावट्ठवणा। सव्वदव्वाणं सत्त-पमेयत्तादीहि सरिसत्तमुवलब्भदि त्ति चे–होदु णाम एदेहि सरिसत्तं, किंतु अप्पिदेहि वण्ण-कर-चरणादीहि सरिसत्ताभावं पेक्खिय असरिसत्तं उच्चदे। =प्रश्न–सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना में क्या भेद है ? उत्तर–बुद्धि द्वारा स्थापित किया जाने वाला जो पदार्थ वर्ण और आकार आदि के द्वारा अन्य पदार्थ का अनुकरण करता है उसकी सद्भावस्थापना संज्ञा है। प्रश्न–द्रव्य, क्षेत्र, वेदना और अवेदना आदि के भेद से भेद को प्राप्त हुए प्रतिनिभ और ग्रतिनिभेय अर्थात् सदृश और सादृश्य के मूलभूत पदार्थों में सादृश्ता कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, प्राय: कुछ बातों में इनमें सदृशता देखी जाती है। जो असदृश द्रव्य है वह असद्भावस्थापना है। प्रश्न–सब द्रव्यों में सत्त्व और प्रमेयत्व आदि के द्वारा समानता पायी जाती है ? उत्तर–द्रव्यों में इन धर्मों की अपेक्षा समानता भले ही रहे, किंतु विवक्षित वर्ण हाथ और पैर आदि की अपेक्षा समानता न देखकर असमानता कही जाती है।
धवला 13/5,3,10/10/12 कथमत्र स्पृश्यस्पर्शकभाव:। ण, बुद्धीए एयत्तमावण्णेसु तदविरोहादो सत्त-पमेयत्तादीहि सव्वस्ससव्वविसयफोसणुवलंभादो वा। =प्रश्न–यहाँ (असद्भाव स्थापना में) स्पर्श्य-स्पर्शक भाव कैसे हो सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, बुद्धि से एकत्व को प्राप्त हुए उनमें स्पर्श्य-स्पर्शक भाव के होने में कोई विरोध नहीं आता। अथवा सत्त्व और प्रमेयत्व आदि की अपेक्षा सर्व का सर्वविषयक स्पर्शन पाया जाता है।
- स्थापना निक्षेप सामान्य का लक्षण