निर्वेद
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/442-443 संवेगो विधिरूप: स्यान्निर्वेदश्च (स्तु) निषेधनात् । स्याद्विवक्षावशाद्द्वैतं नार्थादर्थांतरं तयो:।442। त्याग: सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो लक्षणात्तथा। स संवेगोऽथवा धर्म: साभिलाषो न धर्मवान् ।443। =संवेग विधिरूप होता है और निषेध को विषय करने के कारण निर्वेद निषेधात्मक होता हे। उन संवेग व निर्वेद में विवक्षा वश ही भेद है, वास्तव में कोई भेद नहीं है।442। सब अभिलाषाओं का त्याग निर्वेद कहलाता है और धर्म तथा धर्म के फल में अनुराग होना संवेग कहलाता है। वह संवेग भी सर्व अभिलाषाओं के त्यागरूप पड़ता है; क्योंकि, सम्यग्दृष्टि अभिलाषावान् नहीं होता।443।
पुराणकोष से
शरीर, भोग और संसार से विरक्ति । संसार नाशवान् है, लक्ष्मी चंचल है, यौवन, देह, नीरोगता और ऐश्वर्य अशाश्वत है, ऐसे भाव निर्वेद में उत्पन्न होते हैं । महापुराण 10. 157, 17.11-13