उपचार विनय विधि
From जैनकोष
- उपचार विनय विधि
- विनय व्यवहार में शब्दप्रयोग आदि सम्बन्धी कुछ नियम
सू.पा./मू./१२-१३ जे बावीसपरीसह सहंति सत्तीसएहिं संजुत्त। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू।१२। अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्त। चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय।१३। = सैंकड़ों शक्तियों से संयुक्त जो २२ परीषहों को सहन करते हुए नित्य कर्मों की निर्जरा करते हैं, ऐसे दिगम्बर साधु वन्दना करने योग्य हैं।१२। और शेष लिंगधारी, वस्त्र धारण करने वाले परन्तु जो ज्ञान दर्शन से संयुक्त हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं।१३।
मू.आ./१३१, १९५ संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे। जोग्गग्गहणादीसु अ इच्छाकारी दु कादव्वो।१३१। पञ्च छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊणज्झाओ गवासणेणेक्वंदंति।१९५। = संयमोपकरण, ज्ञानोपकरण तथा अन्य भी जो उपकरण उनमें औषधादि में, आतापन आदि योगों में इच्छाकार करना चाहिए।१३१। आर्यिकाएँ आचार्यों को पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से और साधुओं को सात हाथ दूर से गवासन से बैठकर वन्दना करती हैं।१९५।
मो.पा./टी./१२/३१४ पर उद्धृत गा.- ‘‘वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू। अभिगमणं-वंदण-णमंसणेण विणएण सो पुज्जे।१। = सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका के द्वारा भी आज का नवदीक्षित साधु अभिगमन, वन्दन, नमस्कार व विनय से पूज्य है। (प्र.सा./ता.वृ./२२५ प्रक्षेपक ८/३०४/२७)।
मो.पा./टी./१२/३१३/१९ मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वन्दनापि न युक्ता। यदि ता वन्दन्ते तदा मुनिभिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, किं तर्हि वक्तव्यं। समाधिकर्मक्षयोऽस्त्विति। = मुनिजन व आर्यिकाओं के बीच परस्पर वन्दना भी युक्त नहीं है। यदि वे वन्दन करें तो मुनि को उनके लिए ‘नमोऽस्तु’ शब्द नहीं कहना चाहिए, किन्तु ‘समाधिरस्तु’ या ‘कर्मक्षयोऽस्तु’ कहना चाहिए।
- विनय व्यवहार के योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ
मू.आ./५९७-५९९ वखित्तपराहुतं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो। आहारं च करं तो णीहारं वा जदि करेदि।५९७। आसणे आसणत्थं च उवसंतं च उवट्ठिदं। अणुविण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदेः।५९८। आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए। अवराधे य गुरुणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।५९९। = व्याकुल चित्त वाले को, निद्रा, विकथा आदि से प्रमत्त दशा को प्राप्त को तथा आहार व नीहार करते को वन्दना नहीं करनी चाहिए।५९७। एकान्त भूमि में पद्मासनादि से स्वस्थ चित्तरूप से बैठे हुए मुनि को वन्दना करनी चाहिए और वह भी उनकी विज्ञप्ति लेकर।५९८। आलोचना के समय, प्रश्न के समय, पूजा व स्वाध्याय के समय तथा क्रोधादि अपराध के समय आचार्य उपाध्याय आदि की वन्दना करनी चाहिए।५९९। (अन.ध./७/५३-५४/७७२)।
भ.आ./वि./११६/२७५/९ वसतेः, कायभूमितः, भिक्षातः, चैत्यात्, गुरुसकाशात्, ग्रामान्तराद्वा आगमनकालेऽभ्यु-त्थातव्यम्। गुरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्युत्थानं कार्यम्। अनया दिशा यथागममि-तरदप्यनुगन्तव्यम्। = वसतिका स्थान से, कायभूमि से (?) भिक्षा लेकर लौटते समय, चैत्यालय से आते समय, गुरु के पास से आते समय अथवा ग्रामान्तर से आते समय अथवा गुरुजन जब बाहर जाते हैं या बाहर से आते हैं, तब तब अभ्युत्थान करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी जानना चाहिए।
- उपचार विनय की आवश्यकता ही क्या
भ.आ./मू.व वि./७५६-७५७/९२० ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि संसारमुच्छिन्दन्ति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्यशङ्कायामाह–जो भावणमोक्कारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतवा। ण हु ते होंति समत्था संसारुच्छेदणं कादुं।७५६। यद्येवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सूत्रेण विरुध्यते। नमस्कारमात्रमेव कर्मणां विनाश ने उपाय इत्येकमुक्तिमार्गकथनादित्याशङ्कायामाह–चदुरंगाए सेणाए णायगो जह पवत्तवो हादि। तह भावणमोक्कारो मरणे तवणाणचरणाणं।७५७। = प्रश्न–सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप संसार का नाश करते हैं, इसलिए नमस्कार की क्या आवश्यकता है? उत्तर–भाव नमस्कार के बिना सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप संसार का नाश करने में समर्थ नहीं होते हैं। प्रश्न–यदि ऐसा है तो ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा, क्योंकि आपके मत के अनुसार नमस्कार अकेला ही कर्मविनाश का उपाय है? उत्तर–चतुरंगी सेना का जैसे सेनापति प्रवर्तक माना जाता है, वैसे यह भाव नमस्कार भी मरण समय में तप, ज्ञान, चारित्र का प्रवर्तक है।
- विनय व्यवहार में शब्दप्रयोग आदि सम्बन्धी कुछ नियम