द्रव्य व भाव वेदों में परस्पर संबंध
From जैनकोष
- द्रव्य व भाव वेदों में परस्पर सम्बन्ध
- दोनों के कारणभूत कर्म भिन्न हैं
पं.सं./प्रा./१/१०३ उदयादु णोकसायाण भाववेदो य होइ जंतूणं । जोणी य लिंगमाई णामोदय दव्ववेदो दु ।१०३। = नोकषायों के उदय से जीवों के भावेद होता है । तथा योनि और लिंग आदि द्रव्यवेद नामकर्म के उदय से होता है ।१०३। (त.सा./२/७९), (गो.जी./मू./२७१/५९१), (और भी दे.वेद/१/३ तथा वेद/२) ।
- दोनों कहीं समान होते हैं और कहीं असमान
पं.सं./प्रा./१/१०२, १०४ तिव्वेद एव सव्वे वि जीवा दिट्ठा हु दव्वभावादो । ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाकमं सव्वे ।१०२। इत्थी पुरिस णउंसय वेया खलु द्रव्वभावदो होंति । ते चेव य विवरीया हवंति सव्वे जहाकमसो ।१०४। = द्रव्य और भाव की अपेक्षा सर्व ही जीव तीनों वेदवाले दिखाई देते हैं और इसी कारण वे सर्व ही यथाक्रम से विपरीत वेदवाले भी सम्भव हैं ।१०२। स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते है । और वे सर्व ही विभिन्न नोकषायों के उदय होने पर यथाक्रम से विपरीत वेद वाले भी परिणत होते हैं ।१०४। [अर्थात् कभी द्रव्य से पुरुष होता हुआ भाव से स्त्री और कभी द्रव्य से स्त्री होता हुआ भाव से पुरुष भी होता है–दे. वेद/२/१]
गो.जी./मू./२७१/५९१ पुरिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंडओ भावे । णामोदयेण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा ।२७१। = पुरुष स्त्री और नपुंसक वेदकर्म के उदय से जीव पुरुष स्त्री और नपुंसक रूप भाववेदों को प्राप्त होता है और निर्माण नामक नामकर्म के उदय से द्रव्य वेदों को प्राप्त करता है । तहाँ प्रायः करके तो द्रव्य और भाव दोनों वेद समान होते हैं, परन्तु कहीं-कहीं परिणामों की विचित्रता के कारण ये असमान भी हो जाते हैं ।२७१। (विशेष दे. वेद/२/१) ।
- चारों गतियों की अपेक्षा दोनों में समानता व असमानता
गो.जी./जी.प्र./२७१/५९२/२ एते द्रव्यभाववेदाः प्रायेण प्रचुरवृत्त्या देवनारकेषु भोगभूमिसर्वतिर्यग्मनुष्येषु च समाः द्रव्यभावाभ्यां समवेदोदयाङ्किता भवन्ति । क्वचित्कर्मभूमि-मनुष्यतिर्यग्गतिद्वये विषमाः-विसदृशा अपि भवन्ति । तद्यथा-द्रव्यतः पुरुषे भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकं । द्रव्यस्त्रियां भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुसकं । द्रव्यनपुंसके भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकं इति विषमत्वं द्रव्यभावयोरनियमः कथितः । कुतः द्रव्यपुरुषस्य क्षपकश्रेण्यारूढानिवृत्तिकरणसवेदभागपर्यन्तं वेदत्रयस्य परमागमे ‘‘सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते दु सिज्झंति ।’’ इति प्रतिपादकत्वेन संभवात् । = ये द्रव्य और भाववेद दोनों प्रायः अर्थात् प्रचुररूप से देव नारकियों में तथा सर्व ही भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंचों में समान ही होते हैं, अर्थात् उनके द्रव्य व भाव दोनों ही वेदों का समान उदय पाया जाता है । परन्तु क्कचित् कर्मभूमिज मनुष्य व तिर्यंच इन दोनों गतियों में विषम या विसदृश भी होते हैं । वह ऐसे कि द्रव्यवेद से पुरुष होकर भाववेद से पुरुष, स्त्री व नपुंसक तीनों प्रकार का हो सकता है । इसी प्रकार द्रव्य से स्त्री और भाव से स्त्री, पुरुष व नपुंसक तथा द्रव्य से नपुंसक और भाव से पुरुष स्त्री व नपुंसक । इस प्रकार की विषमता होने से तहाँ द्रव्य और भाववेद का कोई नियम नहीं है । क्योंकि आगम में नवें गुणस्थान के सवेदभाग पर्यन्त द्रव्य से एक पुरुषवेद और भाव से तीनों वेद है ऐसा कथन किया है ।–दे.वेद/७ । (पं.ध./उ./१०९२-१०९५) ।
- भाववेद में परिवर्तन सम्भव है
ध.१/१, १, १०७/३४६/७ कषायवन्नान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेदो आजन्मः आमरणात्तदुदयस्य सत्त्वात् । = [पर्यायरूप होने के कारण तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रम से होती है–(दे. वेद/२/४); परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि] जैसे विवक्षित कषाय केवल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहती है, वैसे सभी वेद केवल एक-एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही नहीं रहते हैं, क्योंकि जन्म से लेकर मरणतक भी किसी एक वेद का उदय पाया जाता है ।
ज.४/१, ५, ६१/३६९/४ वेदंतरसंकंतीए अभावादो । = भोगभूमि में वेद परिवर्तन का अभाव है ।
- द्रव्य वेद में परिवर्तन सम्भव नहीं
गो.जी./जी.प्र./२७१/५९१/१८ पुंवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनोकर्मोदयवशेन श्मश्रुकूर्च्चशिश्ना-दिलिङ्गङ्कितशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यंतं द्रव्यपुरुषो भवति ।..... भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यस्त्री भवति ।.....भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकं जीवो भवति । = पुरुषवेद के उदय से तथा निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त अंगोपांग नामकर्म के उदय के वश से मूँछ दाढ़ी व लिंग आदि चिह्नों से अंकित शरीर विशिष्ट जीव, भव के प्रथम समय को आदि करके उस भव के अन्तिम समय तक द्रव्य पुरुष होता है । इसी प्रकार भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के अन्तिम समय तक द्रव्य-स्त्री व द्रव्य नपुंसक होता है ।
- दोनों के कारणभूत कर्म भिन्न हैं