निश्चय व व्यवहार का कथंचित् मुख्यता गौणता तथा समन्वय
From जैनकोष
- निश्चय व व्यवहार का कथंचित् मुख्यता गौणता तथा समन्वय
- निश्चयमार्ग की कथंचित् प्रधानता
स. सा./आ./१५३ ज्ञानमेव मोक्षहेतुः, तदभावः स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनां....शुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात्। = ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान के अभाव में स्वयं ही अज्ञानरूप होने वाले अज्ञानियों के अन्तरंग में व्रत नियम आदि शुभ कर्मों का सद्भाव होने पर भी मोक्ष का अभाव है। अज्ञान ही बन्ध का कारण है, क्योंकि उसके अभाव में स्वयं ही ज्ञानरूप होने वाले ज्ञानियों के बाह्य व्रतादि शुभकर्मों का असद्भाव होने पर भी मोक्ष का सद्भाव है। (स. सा./आ./१५१, १५२)।
प्र. सा./त. प्र./२३८ आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम्। = आगमज्ञान, तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम सम्मत करना।
नि. सा./ता. वृ./२ ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ इति वचनात्, मार्गस्तावच्छुद्धरत्नत्रयं.......। = ‘सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र मोक्षमार्ग है’ ऐसा वचन होने से मार्ग तो शुद्ध रत्नत्रय है।
- निश्चय ही एक मार्ग है अन्य नहीं
प्र. सा./मू. ब्र. त. प्र./१९९ एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं स मुट्ठि समणा। जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स।१९९। यतः सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थंकराःअचरमशरीरमुमुक्षुश्चामुनैवयथोदितेन शुद्धात्मप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा बभूवुः न पुनरन्यथा। ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गो न द्वितीय इति। = जिनेन्द्र और श्रमण अर्थात् तीर्थंकर और अन्य सामान्य मुनि इस पूर्वोक्त प्रकार से मार्ग में आरूढ़ होते हुए सिद्ध हुए हैं। नमस्कार हो उन्हें और उस निर्वाण मार्ग को। सभी सामान्य चरमशरीर, तीर्थंकर और अचरमशरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धात्म तत्त्ववृत्तिलक्षण विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुए हैं, किन्तु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी विधि से भी सिद्ध हुए हों। इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्ष का मार्ग है, दूसरा नहीं। (प्र. सा./मू. व. त. प्र./८२)।
स. सा./आ./४१२/क. २४० एको मोक्षपन्थो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति अन्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति। तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन्, सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति।२४०। = दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, उसी में जो पुरुष स्थिति प्राप्त करता है, उसी का निरन्तर ध्यान करता है, उसी का अनुभव करता है और अन्य द्रव्यों को स्पर्श न करता हुआ उसी में निरन्तर विहार करता है, वह पुरुष नित्य-उदित-समयसार को अल्पकाल में ही अवश्य प्राप्त करता है अर्थात् उसका अनुभव करता है।
यो. सा./अ./८/८८ एक एव सदा तेषां पन्थाः सम्यक्त्वपरायिणाम्। व्यक्तीनामिव सामान्यं दशाभेदोऽपि जायते।८८। = जिस प्रकार व्यक्ति सामान्य रूप से एक होता हुआ भी अवस्था भेद से ब्राह्मण क्षत्रिय आदि कहलाता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग एक होते हुए भी अवस्थाभेद से औपशमिक क्षायिक आदि कहलाता है।
नि. सा./ता. वृ./१८/क ३४ असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो नः, सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम्। हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं, न खलु न खलु मुक्तिर्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात्।३४। = विभाव हो अथवा न हो उसकी हमें चिन्ता नहीं है। हम तो हृदयकमल में स्थित सर्व कर्मों से विमुक्त, एक शुद्धात्मा का ही अनुभवन करते हैं। क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है ।
- केवल उसका प्ररूपण ही अनेक प्रकार से किया जाता है
प्र. सा./त. प्र./२४२/क १६ इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकीभवंस्त्रैलक्षण्यमथैकतामुपगतो मार्गोऽपवर्गस्य यः। दृष्ट्टज्ञातृनिबद्धवृत्तिमचलं लोकस्तमास्कन्दतामास्कन्दत्वचिराद्विकाशमतुलं येनोल्लसन्त्याश्चितेः।१६। = इस प्रकार प्रतिपादक के वश, एक होने पर भी अनेक होता हुआ, एकलक्षणता को तथा त्रिलक्षणता को प्राप्त जो मोक्ष का मार्ग है, उसे लोक द्रष्टा ज्ञाता में परिणति बाँधकर, अचलरूप से अवलम्बन करे, जिससे कि वह उल्लसित चेतना के अतुल विश्वास को अल्पकाल में प्राप्त हो।
मो. मा. प्र./१७/३६५/२० सो मोक्षमार्ग दोय नाहीं। मोक्षमार्ग का निरूपण दोय प्रकार का है।...एक निश्चय मोक्षमार्ग और एक व्यवहार मोक्षमार्ग है, ऐसै दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। (द. पा./पं. जयचन्द/२)।
- व्यवहारमार्ग की कथंचित् गौणता
न. च. वृ./३७६ भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो वि य सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा।३७६। = अभेद रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के भेद व उपचार में जीव जब तक वर्तता है तब तक वह शुभ व अशुभ के आधीन रहता हुआ ‘कर्ता’ कहलाता है। इसलिए वह आत्मा संसारी है।
स. सा./आ./२७६−२७७ आचारादि शब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रयत्वाद्दर्शनं, षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाच्चारित्रमिति व्यवहारः। शुद्धात्मा ज्ञानाश्रयत्वाज्ज्ञानं, शुद्धात्मा दर्शनाश्रयत्वाद्दर्शनं, शुद्धात्मा चारित्राश्रयत्वाच्चारित्रमिति निश्चयः। तत्राचारादीनां ज्ञानाद्यस्याश्रयत्वस्यानैकान्तिकत्वाद्वयवहारनयः प्रतिषेध्यः। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः। तथा हि नाचारादिशब्दश्रुतमेकान्तेन ज्ञानास्याश्रय:....शुद्धात्मैव ज्ञानस्याश्रयः....। = आचारांगादि शब्द श्रुतज्ञान का आश्रय होने से ज्ञान हैं, जीवादि नवपदार्थ दर्शन का आश्रय होने से दर्शन हैं और छह जीवनिकाय चारित्र का आश्रय होने से चारित्र हैं, इस प्रकार तो व्यवहार मार्ग है। शुद्धात्मा ही ज्ञान का, दर्शन का व चारित्र का आश्रय होने से ज्ञान दर्शन व चारित्र है, इस प्रकार निश्चयमार्ग है। तहाँ आचारांगादि को ज्ञानादि का आश्रयपना व्यभिचारी होने से व्यवहारमार्ग निषेध्य है और शुद्धात्मा को ज्ञानादि का आश्रयपना निश्चित होने से निश्चयमार्ग उसका निषेधक है। वह इस प्रकार कि आचारांगादि एकान्त से ज्ञानादि के आश्रय नहीं हैं और शुद्धात्मा एकांत से ज्ञान का आश्रय है। (क्योंकि आचारांगादि के सद्भाव में भी अभव्य को ज्ञानादि का अभाव है और उनके सद्भाव अथवा असद्भाव में भी सम्यग्दृष्टि को ज्ञानादि का सद्भाव है)।
नि. सा./ता. वृ./९१/क १२२ त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्गरत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदो। शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं, श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे।१२२। = समस्त विभाव को तथा व्यवहारमार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर निजतत्त्ववेदी मतिमान् पुरुष शुद्धात्मतत्त्व में नियत, ऐसा जो एक निजज्ञान, श्रद्धान व चारित्र, उसका आश्रय करता है।
- व्यवहारमार्ग निश्चय का साधन है
प. प्र./मू./२/१४ जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु। तं परियाणहिं जीव तुहुँ ज̐ परु होइ पवित्तु।१४। = हे जीव ! व्यवहारनय जो दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीन रूप रत्नत्रय को कहता है, उसको तू जान। जिससे कि तू पवित्र हो जावे।
आराधना सार/७/३० जीवोऽप्रविश्य व्यवहारमार्गं न निश्चयं ज्ञातुमपैतिशक्तिम्। प्रभाविकाशे क्षणमन्तरेण भानूदयं को वदते विवेकी। = व्यवहारमार्ग में प्रवेश किये बिना जीव निश्चयमार्ग को जानने में समर्थ नहीं हो सकता। जैसे कि प्रभात हुए बिना सूर्य का उदय नहीं हो सकता।
त. सा./९/२ निश्चव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम्। = निश्चय व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार है। तहाँ निश्चयमार्ग तो साध्यरूप है और व्यवहारमार्ग उसका साधन है। (न. च. वृ./३४१ में उदृधृत गाथा नं. २); (त. अनु./२८); (प. प्र./टी./२/१२/१२६/५; २/१४/१२९/१)।
पं. का./त. प्र./१५९ न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात्सुवर्णपाषाणवत्। = (निश्चय द्वारा अभिन्न साध्यसाधनभाव से तथा व्यवहार द्वारा भिन्न साध्यसाधन भाव से जो मोक्षमार्ग का दो प्रकार प्ररूपण किया गया है) इनमें परस्पर विरोध आता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणवत् निश्चय व व्यवहार को साध्यसाधनपना है [अर्थात् जैसे सुवर्ण पाषाण अग्नि के संयोग से शुद्ध सुवर्ण बन जाता है, वैसे ही जीव व्यवहारमार्ग के संयोग से निश्चयमार्ग को प्राप्त हो जाता है। (दे. पं . का./ता. वृ./१६०/२३२/१४); (द्र. सं./टी./३९/१६२/११)]।
अन. ध./१/९२/१०१ उद्योतोद्यवनिर्वाहसिद्धिनिस्तरणैर्भजनम्। भव्यो मुक्तिपथं भाक्तं साध्यत्येव वास्तवम्।९२। उद्योत, उद्यव, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरण इन उपायों के द्वारा भेदरत्नत्रयरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आराधक भव्य पुरुष वास्तविक मोक्षमार्ग को नियम से प्राप्त करता है।
पं. का./ता. वृ./१०५/१६७ निश्चयमोक्षमार्गस्य परंपरया कारणभूतव्यवहारमोक्षमार्गम्। = व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का परम्परा कारण है।
प. प्र./टी./२/१४/१२८/१० हे जीव ! .....निश्चमोक्षमार्गसाधकं व्यवहारमोक्षमार्गं जानीहि। त्वं येन ज्ञातेन कथंभूतोः भविष्यसि। परम्परया पवित्रः परमात्मा भविष्यसि। = हे जीव ! तू निश्चय मोक्षमार्ग के साधक व्यवहार मोक्षमार्ग को जान। उसको जानने से तू परम्परा में जाकर परमात्मा हो जायेगा।
- दोनों के साध्य-साधन भाव की सिद्धि
न. च./श्रुत/पृ. ५५ व्यवहारप्रसिद्ध्यैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति। सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात्। = व्यवहार की प्रसिद्धि के साथ निश्चय की सिद्धि बतलायी गयी है, अन्य प्रकार से नहीं, क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा समीचीन प्रकार से सिद्ध कर लिये गये तत्त्व के सेवन से व्यवहाररत्नत्रय की समीचीन सिद्धि होती है।
प. प्र./टी./२/१४/१२९/१ अत्राह शिष्यः। निश्चमोक्षमार्गो निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गो नास्ति कथं साधको भविष्यतीति। अत्र परिहारमाह। भूतनैगमनयेन परम्परया भवतीति। अथवा सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चयमोक्षमार्गो द्विधा, तत्रानन्तज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्पसाधको भवति, निर्विकल्पसमाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थः। सविकल्पनिर्विकल्पनिश्चयमोक्षमार्ग विषये संवादगाथामाह−जं पुण सगयं तच्चं सवियप्पं होइ तह य अवियप्पं। सवियप्पं सासवयं निरासवं विगयसंकप्पं। = प्रश्न−निश्चय मोक्षमार्ग निर्विकल्प है, उसके होते हुए सविकल्प (व्यवहार) मोक्षमार्ग नहीं होता। तब वह निश्चय का साधक कैसे हो सकता है ? उत्तर−भूतनैगमनय की अपेक्षा परम्परा से वह साधक हो जाता है। अथवा दूसरे प्रकार से यों समझ लीजिए कि सविकल्प व निर्विकल्प के भेद से दो प्रकार का मोक्षमार्ग है। तहाँ ‘मैं अनन्त ज्ञानस्वरूप हूँ’ इत्यादि रूप सविकल्प मार्ग तो साधक होता है और निर्विकल्प समाधिरूप साध्य होता है, ऐसा भावार्थ है। (पं. का./ता. वृ./१५९/२३०/१०)।
पं. का./पं. हेमराज/१६१/२३३/१७= प्रश्न−जो आप ही से निश्चय मोक्षमार्ग होय तो व्यवहार साधन किसलिये कहाँ ? उत्तर−यह आत्मा अनादि अविद्या से युक्त है, जब काललब्धि पाने से उसका नाश होय, उस समय व्यवहार मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति होती है।...(तब) अज्ञान रत्नत्रय (मिथ्यादर्शनादि) के नाश का उपाय....सम्यक् रत्नत्रय के ग्रहण करने का विचार होता है। इस विचार के होने पर जो (अविद्या) अनादि का ग्रहण था, उसका तो त्याग होता है और जिस (सम्यग्दर्शन) का त्याग था, उसका ग्रहण होता है । तत्पश्चात् कभी आचरण में दोष होय तो दंडशोधनादिक करि उसे दूर करते हैं और जिस काल में शुद्धात्म-तत्त्व का उदय होता है, तब...ग्रहण त्यजन की बुद्धि मिट जाती है....स्वरूप गुप्त होता है।...तब यह जीव निश्चय मोक्षमार्ग कहाता है। इस कारण ही निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को साध्यसाधन भाव की सिद्धि होती है।
- निश्चयमार्ग की कथंचित् प्रधानता