मिश्र गुणस्थान
From जैनकोष
दही व गुड़ के मिश्रित स्वादवत् सम्यक् व मिथ्यारूप मिश्रित श्रद्धान व ज्ञान को धारण करने की अवस्था विशेष सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्रगुणस्थान कहलाता है। सम्यक्त्व से गिरते समय अथवा मिथ्यात्व से चढ़ते समय क्षणभर के लिए इस अवस्था का वेदन होना संभव है।
- मिश्रगुणस्थान निर्देश
- मिश्र गुणस्थान संबंधी शंका समाधान
- ज्ञान व अज्ञान का मिश्रण कैसे संभव है
- जात्यंतर ज्ञान का तात्पर्य
- मिश्रगुणस्थान में अज्ञान क्यों नहीं कहते ?
- संशय व विनय मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व में क्या अंतर है ?
- पर्याप्तक ही होने का नियम क्यों ?
- इस गुणस्थान में क्षायोपशमिकपना कैसे है ?
- मिश्रगुणस्थान की क्षायोपशमिकता में उपरोक्त लक्षण घटित नहीं होते
- सर्वघाती प्रकृति के उदय से होने के कारण इसे क्षायोपशमिक कैसे कह सकते हो ?
- सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व का अंश कैसे संभव है ?
- मिश्रप्रकृति के उदय से होने के कारण इसे औदयिक क्यों नहीं कहते ?
- मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के क्षय व उपशम से इसकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं
- मिश्रगुणस्थान निर्देश
सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का लक्षण
प्रथम या चतुर्थ दो ही गुणस्थानों में जा सकता है
संयम धारने की योग्यता नहीं है
मिश्र गुणस्थान का स्वामित्व
पंचसंग्रह प्राकृत/1/10,169
दहिगुडमिव वामिस्सं पिहुभावं णेव कारिदुं सक्कं। एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो।10। सद्दहणासद्दहणं जस्स य जीवेसु होइ तच्चेसु। विरयाविरएण समो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो। 169।
= 1. जिस प्रकार अच्छी तरह मिला हुआ दही और गुड़, पृथक् पृथक् नहीं किया जा सकता इसी प्रकार सम्यक्त्व व मिथ्यात्व से मिश्रित भाव को सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए।10। ( धवला 1/1, 12/ गाथा 109/170); ( गोम्मटसार जीवकांड/22/47 ) 2. जिसके उदय से जीवों के तत्त्वों में श्रद्धान और अश्रद्धान युगपत् प्रगट हो है, उसे विरताविरत के समान सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए।169। ( गोम्मटसार जीवकांड/655/1102 )।
राजवार्तिक/9/1/14/589/23
सम्यङ्मिथ्यात्वसंज्ञिकायाः प्रकृतेरुदयात् आत्मा क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रवोपयोगापादितेषत्कलुषपरिणामवत् तत्त्वार्थश्रद्धानाश्रद्धानरूप: सम्यग्मिथ्यादृष्टिरित्युच्यते
= क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के उपभोग से जैसे कुछ मिला हुआ मदपरिणाम होता है, उसी तरह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थ का श्रद्धान व अश्रद्धानरूप मिला हुआ परिणाम होता है। यही तीसरा सम्यङ्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है।
धवला 1/1,1,11/166/7
दृष्टि: श्रद्धा रुचि: प्रत्यय इति यावत्। समीचीना च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिः।
= दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम हैं। जिस जीव के समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकार की दृष्टि होती है उसको सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड/21/46
सम्मामिच्छुदयेण य जत्तंतरसव्वघादिकज्जेण। ण य सम्मं मिच्छं पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो।21।
= जात्यंतररूप सर्वघाती सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर जो मिश्ररूप परिणाम होता है, उसको तीसरा मिश्र गुणस्थान कहते हैं।
लब्धिसार/ मूल/107/145
मिस्सुदये सम्मिस्सं दहिगुडमिस्सं व तच्चमियेरेण सद्दहदि एक्कसमये ...।107।
= सम्यग्मिथ्यात्व नामक मिश्र प्रकृति के उदय से यह जीव मिश्र गुणस्थानवर्ती होता है। दही और गुड़ के मिले हुए स्वाद की तरह वह जीव एक ही समय में तत्त्व व अतत्त्व दोनों की मिश्ररूप श्रद्धा करता है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/2 )।
धवला 4/1,5,9/343/8
तस्स मिच्छत्तसम्मत्तसहिदासंजदगुणे मोत्तूण गुणंतरगमणाभावा।
= सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव का मिथ्यात्वसहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को अथवा सम्यक्त्वसहित असंयत गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में गमन का अभाव है।
धवला 4/1,5,17/ गाथा33/349
ण य मरइ णेव संजममुवेइतहं देससंजमं वावि। सम्मामिच्छादिट्ठी ...।33।
= सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न संयम को प्राप्त होता है और न देश संयम को। ( गोम्मटसार जीवकांड/23/48 )।
* मिश्र गुणस्थान में मृत्यु संभव नहीं–देखें मरण - 3।
धवला 5/1,8,12/250/7
सम्मामिच्छत्तगुणं पुण वेदगुवसमसम्मादिट्ठिणो अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिट्ठिणो य पडिवज्जंति।
= सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और मोहकर्म की 28 प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीव भी प्राप्त होते हैं। (अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टि या जिन्होंने सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों की उद्वेलना कर दी है ऐसे मिथ्यादृष्टि ‘सम्यग्मिथ्यादृष्टि’ गुणस्थान को प्राप्त नहीं होते)।
धवला 15/112/8
एइंदिएसु उव्वेल्लिदसम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मस्सेव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणसागरोवममेत्तट्ठिदिसंतकम्मे सेसे सम्मामिच्छत्तग्गहणपाओग्गस्सुवलंभादो। जो पुण तसेसु एइंदियट्ठिदिसंतसमं सम्मामिच्छत्तं कुणइ सो पुव्वमेव सागरोवमपुधत्ते सेसे चेव तदपाओग्गा होदि।
= जिसने एकेंद्रियों में सम्यग्मिथ्यात्व के स्थितिसत्त्व की उद्वेलना की है उसके ही पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन एक सागरोपम मात्र स्थिति सत्त्व के रहने पर सम्यग्मिथ्यात्व के ग्रहण की योग्यता पायी जाती है। परंतु जो त्रस जीवों में एकेंद्रिय के स्थितिसत्त्व के बराबर सम्यग्मिथ्यात्व के स्थिति सत्त्व को करता है, वह पहले ही सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति के शेष रहने पर ही उसके ग्रहण के अयोग्य हो जाता है।
देखें सत् –(इस गुणस्थान में एक संज्ञी पर्याप्तक ही जीव समास संभव है, एकेंद्रियादि असंज्ञी पर्यंत के जीव तथा सर्व ही प्रकार के अपर्याप्तक जीव इसको प्राप्त नहीं कर सकते)।
* अन्य संबंधित विषय
1. जीव समास, मार्गणास्थान आदि के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ।
2. सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ–देखें वह वह नाम।
3. इस गुणस्थान में आय व व्यय का संतुलन–देखें मार्गणा ।
4. इसमें कर्मों का बंध उदय सत्त्व–देखें वह वह नाम
5. राग व विरागता का मिश्रित भाव–देखें उपयोग - II.3।
6. इस गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव होता है–देखें भाव - 2।
5. ज्ञान भी सम्यक् व मिथ्या उभयरूप होता है
राजवार्तिक/9/1/14/589/25
अत एवास्य त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानमिश्राणि इत्युच्यंते।
= इसके तीनों ज्ञान अज्ञान से मिश्रित होते हैं ( गोम्मटसार जीवकांड/302/653 ) (देखें सत् )।
मिश्र गुणस्थान संबंधी शंका समाधान
ज्ञान व अज्ञान का मिश्रण कैसे संभव है ?
जात्यंतर ज्ञान का तात्पर्य
मिश्रगुणस्थान में अज्ञान क्यों नहीं कहते ?
संशय व विनय मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व में क्या अंतर है ?
पर्याप्तक ही होने का नियम क्यों ?
इस गुणस्थान में क्षायोपशमिकपना कैसे है?
मिश्रगुणस्थान की क्षायोपशमिकता में उपरोक्त लक्षण घटित नहीं होते
सर्वघाती प्रकृति के उदय से होने के कारण इसे क्षायोपशमिक कैसे कह सकते हो ?
सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व का अंश कैसे संभव है ?
मिश्रप्रकृति के उदय से होने के कारण इसे औदयिक क्यों नहीं कहते ?
मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के क्षय व उपशम से इसकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं
धवला 1/1,1,119/363/10
यथार्थश्रद्धानुविद्धावगमो ज्ञानम्, अयथार्थश्रद्धानुविद्धावगमोऽज्ञानम्। एवं च सति ज्ञानाज्ञानयोर्भिन्नजीवाधिकरणयोर्न मिश्रणं घटत इति चेत्सत्यमेतदिष्टत्वात्। किंत्वत्र सम्यग्मिथ्यादृष्टावेवं मा ग्रहीः यत: सम्यग्मिथ्यात्वं नाम कर्म न तन्मिथ्यात्वं तस्मादनंतगुणहीनशक्तेस्तस्य विपरीताभिनिवेशोत्पादसामर्थ्याभावात्। नापि सम्यक्त्वं तस्मादनंतगुणशक्तेस्तस्य यथार्थ श्रद्धया साहचर्याविरोधात्। ततो जात्यंतरत्वात् सम्यग्मिथ्यात्वं जात्यंतरीभूतपरिणामस्योत्पादकम्। ततस्तदुदयजनितपरिणामसमवेतबोधो न ज्ञानं यथार्थश्रद्धयाननुविद्धत्वात्। नाप्यज्ञानमयथार्थश्रद्धयासंगत्वात्। ततस्तज्ज्ञानं सम्यग्मिथ्यात्वपरिणामवज्जात्यंतरापंनमित्येकमपि मिश्रमित्युच्यते।
= प्रश्न–यथार्थ श्रद्धा से अनुविद्ध अवगम को ज्ञान कहते हैं और अयथार्थ श्रद्धा से अनुविद्ध अवगम को अज्ञान कहते हैं। ऐसी हालत में भिन्न-भिन्न जीवों के आधार से रहने वाले ज्ञान और अज्ञान का मिश्रण नहीं बन सकता है। उत्तर–यह कहना सत्य है, क्योंकि, हमें यही इष्ट है। किंतु यहाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में यह अर्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्व कर्म मिथ्यात्व तो हो नहीं सकता, क्योंकि, उससे अनंतगुणी हीन शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्व में विपरीताभिनिवेश को उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं पायी जाती है। और न वह सम्यक्प्रकृतिरूप ही है, क्योंकि, उससे अनंतगुणी अधिक शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्व का यथार्थ श्रद्धान के साथ साहचर्य संबंध का विरोध है। इसलिए जात्यंतर होने से सम्यग्मिथ्यात्व (कर्म) जात्यंतररूप परिणामों का ही उत्पादक है। अत: उसके उदय से उत्पन्न हुए परिणामों से युक्त ज्ञान ‘ज्ञान’ इस संज्ञा को प्राप्त हो नहीं सकता है, क्योंकि, उस ज्ञान में यथार्थ श्रद्धा का अन्वय नहीं पाया जाता है। और उसे अज्ञान भी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि, वह अयथार्थ श्रद्धा के साथ संपर्क नहीं रखता है। इसलिए वह ज्ञान सम्यग्मिथ्यात्व परिणाम की तरह जात्यंतर रूप अवस्था को प्राप्त है। अत: एक होते हुए भी मिश्र कहा जाता है।
धवला 1/,1,1,119/364/5
यथायथं प्रतिभासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमो ज्ञानम्। यथायथमप्रतिभासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमोऽज्ञानम्। जात्यंतरीभूतप्रत्ययानुविद्धावगमो जात्यंतरं ज्ञानम्, तदेव मिश्रज्ञानमिति राद्धांतविदो व्याचक्षते।
= यथावस्थित प्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न हुए तत्संबंधी बोध को ज्ञान कहते हैं। न्यूनता आदि दोषों से युक्त यथावस्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न हुए तत्संबंधी बोध को अज्ञान कहते हैं। और जात्यंतररूप कारण से उत्पन्न हुए तत्संबंधी ज्ञान को जात्यंतर ज्ञान कहते हैं। इसी का नाम मिश्रगुणस्थान है, ऐसा सिद्धांत को जाननेवाले विद्वान् पुरुष व्याख्यान करते हैं।
धवला 5/1,7,45,/224/7
तिसु अण्णाणेसु णिरुद्धेसु सम्मामिच्छादिट्ठिभावो किण्ण परूविदो। ण, तस्स सद्दहणासद्दहणेहि दोहिं मि अक्कमेण अणुविद्धस्स संजदासंजदो व्व पत्तजच्चंतरस्स णाणेसु अण्णाणेसु वा अत्थित्तविरोहा।
= प्रश्न–तीनों अज्ञानों को निरुद्ध अर्थात् आश्रय करके उनकी भाव प्ररूपणा करते हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का भाव क्यों नहीं बतलाया। उत्तर–नहीं, क्योंकि, श्रद्धान और अश्रद्धान, इन दोनों से एक साथ अनुविद्ध होने के कारण संयतासंयत के समान भिन्न जातीयता को प्राप्त सम्यग्मिथ्यात्व का पाँचों ज्ञानों में, अथवा तीनों अज्ञानों में अस्तित्व होने का विरोध है।
* युगपत् दो रुचि कैसे संभव है–देखें अनेकांत - 5.1,2।
द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/4
अथ मतं–येन केनाप्येकेन मम देवेन प्रयोजनं तथा सर्वे देवा वंदनीया न च निंदनीया इत्यादि वैनयिकमिथ्यादृष्टि: संशयमिथ्यादृष्टिर्वा तथा मन्यते, तेन सह सम्यग्मिथ्यादृष्टे: को विशेष इति, अत्र परिहार:–स सर्वदेवेषु सर्वसमयेषु च भक्तिपरिणामेन येन केनाप्येकेन मम पुण्यं भविष्यतीति मत्वा संशयरूपेण भक्तिं कुरुते निश्चयो नास्ति। मिश्रस्य पुनरुभयत्र निश्चयोऽस्तीति विशेषः।
= प्रश्न–चाहे जिससे हो, मुझे तो एक देव से मतलब है, अथवा सभी देव वंदनीय हैं, निंदा किसी भी देव की नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार वैनयिक और संशय मिथ्यादृष्टि मानता है। तब उसमें तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि में क्या अंतर है ? उत्तर–वैनयिक तथा संशय मिथ्यादृष्टि तो सभी देवों में तथा सब शास्त्रों में से किसी एक की भी भक्ति के परिणाम से मुझे पुण्य होगा, ऐसा मानकर संशयरूप से भक्ति करता है, उसको किसी एक देव में निश्चय नहीं है। और मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव के दोनों में निश्चय है। बस यही अंतर है।
धवला 1/1,1,95/335/3
कथं। तेन गुणेन सह तेषां मरणाभावात्। अपर्याप्तकालेऽपि सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्योत्पत्तेरभावाच्च नियमेऽभ्युपगम्यमाने एकांतवाद: प्रसजतीति चेन्न, अनेकांतगर्भैकांतस्य सत्त्वाविरोधात्।
= प्रश्न–यह कैसे (अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव पर्याप्त ही होते हैं, सो कैसे)? उत्तर–क्योंकि, तीसरे गुणस्थान के साथ मरण नहीं होता है (देखें मरण - 3/4) तथा अपर्याप्तकाल में भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की उत्पत्ति नहीं होती। प्रश्न–‘तृतीय गुणस्थान में पर्याप्त ही होते हैं’ इस प्रकार नियम के स्वीकार कर लेने पर तो एकांतवाद प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि अनेकांत गर्भित एकांतवाद के मानने में कोई विरोध नहीं आता।
धवला 1/1,1,11/168/1
कथं मिथ्यादृष्टेः सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपद्यमानस्य तावदुच्यते। तद्यथा, मिथ्यात्वकर्मण: सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात्तस्यैव सत उदयाभावलक्षणोपशमात्सम्यग्मिथ्यात्वकर्मण: सर्वघातिस्पर्धकोदयाच्चोत्पद्यत इति सम्यग्मिथ्यात्वगुण: क्षायोपशमिक:।
धवला 1/1,1,11/169/2
अथवा, सम्यक्त्वकर्मणो देशघातिस्पर्धकानामुदयक्षयेण तेषामेव सतामुदयाभावलक्षणोपशमेन च सम्यग्मिथ्यात्वकर्मण: सर्वघातिस्पर्धकोदयेन च सम्यग्मिथ्यात्वगुण उत्पद्यत इति क्षायोपशमिक:। सम्यग्मिथ्यात्वस्य क्षायोपशमिकत्वमेवमुच्यते बालजनव्युत्पादनार्थम्। वस्तुतस्तु सम्यग्मिथ्यात्वकर्मणो निरन्वयेनाप्तागमपदार्थविषयरुचिहननं प्रत्यसमर्थस्योदयात्सदसद्विषयश्रद्धोत्पद्यत इति क्षायोपशमिक: सम्यग्मिथ्यात्वगुण:। अन्यथोपशमसम्यग्दृष्टौ सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपन्ने सति सम्यग्मिथ्यात्वस्य क्षायोपशमिकत्वमनुपपन्नं तत्र, सम्यक्त्वमिथ्यात्वानंतानुबंधिनामुदयक्षयाभावात्।
= प्रश्न–मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव के क्षायोपशमिक भाव कैसे संभव है। उत्तर–1. वह इस प्रकार है, कि वर्तमान समय में मिथ्यात्वकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावीक्षय होने से, सत्ता में रहने वाले उसी मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभाव लक्षण उपशम होने से और सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय होने से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान पैदा होता है, इसलिए वह क्षायोपशमिक है। 2. अथवा सम्यक्त्वप्रकृति के देशघाती स्पर्धकों का उदयक्षय होने से, सत्ता में स्थित उन्हीं देशघाती स्पर्धकों का उदयाभाव लक्षण उपशम होने से और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय होने से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान उत्पन्न होता है इसलिए वह क्षायोपशमिक है। 3. यहाँ इस तरह जो सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को क्षायोपशमिक कहा है वह केवल सिद्धांत के पाठ का प्रारंभ करने वालों के परिज्ञान कराने के लिए ही कहा गया है। (परंतु ऐसा कहना घटित नहीं होता, देखें आगे शीर्षक नं. 7) वास्तव में तो सम्यग्मिथ्यात्व कर्म निरन्वयरूप से आप्त आगम और पदार्थ विषयक श्रद्धा के नाश करने के प्रति असमर्थ है, किंतु उसके उदय से समीचीन और असमीचीन पदार्थ को युगपत् विषय करने वाली श्रद्धा उत्पन्न होती है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान क्षायोपशमिक कहा जाता है। अन्यथा उपशमसम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर उसमें क्षयोपशमपना नहीं बन सकता है, क्योंकि उस जीव के ऐसी अवस्था में सम्यक्प्रकृति, मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी इन तीनों का ही उदयाभावी क्षय नहीं पाया जाता।
धवला 14/5,6,19/21/8
सम्मामिच्छत्तदेसघादिफद्दयाणमुदएण तस्सेव सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण उवसमक्षण्णिदेण सम्मामिच्छत्तमुप्पज्जदि त्ति तदुभयपच्चइयत्तं।
= 4. (सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती नहीं है अन्यथा उसके उदय होने पर सम्यक्त्व के अंश की भी उत्पत्ति नहीं बन सकती–देखें अनुभाग - 4.6.4) इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व के देशघाती स्पर्धकों के उदय से और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों के उपशम संज्ञा वाले उदयाभाव से सम्यग्मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए वह तदुभयप्रत्ययिक अर्थात् उदयोपशमिक कहा जा सकता है, पर क्षायोपशमिक नहीं।
धवला 5/1,7,4/199/4
मिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोसमेण ... त्ति सम्मामिच्छत्तस्स खओवसमियत्तं केई परूवयंति, तण्ण घडदे, मिच्छत्तभावस्स वि खओवसमियत्तप्पसंगा। कुदो। सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदएण मिच्छत्तभावुप्पत्तीए उवलंभा।
= कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि मिथ्यात्व या सम्यक्प्रकृति के उदयाभावी क्षय व सदवस्थारूप उपशम तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से यह गुणस्थान क्षायोपशमिक है–(देखें मिश्र - 2.6.1,2) किंतु उनका यह कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मानने पर तो मिथ्यात्व भाव के भी क्षायोपशमिकता का प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से और सम्यक्त्व प्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदय क्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से अथवा अनुदयरूप उपशम से तथा मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से मिथ्यात्वभाव की उत्पत्ति पायी जाती है। (अत: पूर्वोक्त शीर्षक नं. 6 से कहा गया लक्षण नं. 3 ही युक्त है ) ( धवला 1/1,1,11/170/1 ); (और भी देखें शीर्षक नं - 11)।
धवला 7/2,1,79/110/7
सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदएण सम्मामिच्छादिट्ठी जदो होदि तेण तस्स खओअसमिओ त्ति ण जुज्जदे। ... ण सम्मामिच्छत्तफद्दयाणं सव्वघादित्तमत्थि, ... ण च एत्थ सम्मत्तस्स णिम्मूलविणासं पेच्छामो सब्भूदासब्भूदत्थेसु तुल्लसद्दहणदंसणादो। तदो जुज्जदे सम्मामिच्छत्तस्स खओवसमिओ भावो।
= प्रश्न–चूँकि सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय प्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है (देखें मिश्र - 2.6.1), इसलिए उसके क्षायोपशमिकभाव उपयुक्त नहीं है ? उत्तर–सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के स्पर्धकों में सर्वघातीपना नहीं होता, क्योंकि इस गुणस्थान की उत्पत्ति में हम सम्यक्त्व का निर्मूल विनाश नहीं देखते, क्योंकि, यहां सद्भूत और असद्भूत पदार्थों में समान श्रद्धान होना देखा जाता है (और भी देखें अनुभाग - 4.6)। इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व को क्षायोपशमिक भाव मानना उपयुक्त है।
धवला 5/1,7,4/198/2
पडिबंधिकम्मोदए संते वि जो उवलब्भइ जीवगुणावयवो सो खओवसमिओ उच्चइ। कुदो। सव्वघादणसत्तीए अभावो खओ उच्चदि। खवो चेव उवसमो खओवसमो, तम्हि जादो भावो खओवसमिओ। ण च सम्मामिच्छत्तुदए संते सम्मत्तस्स कणिया वि उव्वरदि, सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादित्तण्णहाणुववत्तीदो। तदो सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि ण घडदे। एत्थ परिहारो उच्चदे–सम्मामिच्छत्तुदए संते सद्दहणासद्दहणप्पओ करंचिओ जीवपरिणामो उप्पज्जइ। तत्थ जो सद्दहणं सो सो सम्मत्तावयवो। तं सम्मामिच्छत्तुदओ ण विणासेदि त्ति सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं। असद्दहणभागेण विणा सद्दहणभागस्सेव सम्मामिच्छत्तववएसो णत्थि त्ति ण सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि चे एवंविहविवक्खाए सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं मा होदु, किंतु अवयव्यवयवनिराकरणानिराकरणं पडुच्च खओवसमियं सम्मामिच्छत्तदव्वकम्मं पि सव्वघादी चेव होदु, जच्चंतरस्स सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्ताभावादो। किंतु सद्दहणभागो असद्दहणभागो ण होदि, सद्दहणासद्दहणाणमेयत्तविरोहादो। ण च सद्दहणभागो कम्मोदयजणिओ तत्थ विवरीयत्ताभावा। ण य तत्थ सम्मामिच्छत्तववएसाभावो समुदाएसु पयट्टाणं तदेगदेसे वि पउत्तिदंसणादो। तदो सिद्धं सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि।
= प्रश्न–प्रतिबंधी कर्म का उदय होने पर जो जीव के गुण का अवयव पाया जाता है, वह गुणांश क्षायोपशमिक कहलाता है, क्योंकि, गुणों के संपूर्ण रूप से घातने की शक्ति का अभाव क्षय कहलाता है। क्षयरूप ही जो उपशम होता है, वह क्षयोपशम कहलाता है (देखें क्षयोपशम - 1)। उस क्षयोपशम में उत्पन्न होने वाला भाव क्षयोपशमिक कहलाता है। किंतु सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के उदय रहते हुए सम्यक्त्व की कणिका भी अवशिष्ट नहीं रहती है, अन्यथा, सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के सर्वघातीपना बन नहीं सकता है। इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक है, यह कहना घटित नहीं होता। उत्तर–सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक कथंचित् अर्थात् शबलित या मिश्रित जीव परिणाम उत्पन्न होता है। उसमें जो श्रद्धानांश है, वह सम्यक्त्व का अवयव है। उसे सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं नष्ट कर सकता है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व भाव क्षायोपशमिक है। प्रश्न–अश्रद्धान भाग के बिना केवल श्रद्धान भाग के ही ‘सम्यग्मिथ्यात्व’ यह संज्ञा नहीं है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व भाव क्षायोपशमिक नहीं है। उत्तर–उक्त प्रकार की विवक्षा होने पर सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक भले ही न होवे, किंतु अवयवी के निराकरण और अवयव के निराकरण की अपेक्षा वह क्षायोपशमिक है। अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व के उदय रहते हुए अवयवीरूप सम्यक्त्व गुण का तो निराकरण रहता है और सम्यक्त्व का अवयवरूप अंश प्रगट रहता है। इस प्रकार क्षायोपशमिक भी वह सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाती ही होवे (और भी दे अनुभाग/4/6) क्योंकि, जात्यंतरभूत सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सम्यक्त्व का अभाव है। किंतु श्रद्धानभाग अश्रद्धानभाग नहीं हो जाता है, क्योंकि श्रद्धान और अश्रद्धान के एकता का विरोध है। और श्रद्धान भाग कर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि, इसमें विपरीतता का अभाव है। और न उनमें सम्यग्मिथ्यात्व संज्ञा का ही अभाव है, क्योंकि, समुदायों में प्रवृत्त हुए शब्दों की उनके एकदेश में भी प्रवृत्ति देखी जाती है, इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक भाव है।
धवला 5/1,7,12/208/2
सम्मामिच्छत्तभावे पत्तपजच्चंतरे अंसांसीभावो णत्थि त्ति ण तत्थ सम्मद्दंसणस्स एगदेस इदि चे, होदु णाम अभेदविवक्खाए जच्चंतरत्तं। भेदे पुण विवक्खिदे सम्मद्दंसणभागो अत्थि चेव, अण्णहा जच्चंतरत्तविरोहा। ण च सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघाइत्तमेवं संते निरुज्झइ, पत्तजच्चंतरे सम्मद्दंसणंसाभावादो तस्स सव्वघाइत्ताविरोहा।
= प्रश्न–जात्यंतर भाव को प्राप्त सम्यग्मिथ्यात्व भाव में अंशांशी भाव नहीं है, इसलिए उसमें सम्यग्दर्शन का एकदेश नहीं है ? उत्तर–अभेद की विवक्षा में सम्यग्मिथ्यात्व के भिन्नजातीयता भले ही रही आवे, किंतु भेद की विवक्षा करने पर उसमें सम्यग्दर्शन का अंश है ही। यदि ऐसा न माना जाये तो, उसके जात्यंतरत्व के मानने में विरोध आता है। और ऐसा मानने पर सम्यग्मिथ्यात्व के सर्वघातीपना भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि उसके भिन्नजातीयता प्राप्त होने पर सम्यग्दर्शन के एकदेश का अभाव है, इसलिए उसके सर्वघातीपना मानने में कोई विरोध नहीं आता है।
धवला 1/1,1,11/168/3
सतामपि सम्यग्मिथ्यात्वोदयेन औदयिक इति किमिति न व्यपदिश्यत इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयादिवात: सम्यक्त्वस्य निरन्वयविनाशानुपलंभात्।
= प्रश्न–तीसरे गुणस्थान में सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय होने से वहाँ औदयिक भाव क्यों नहीं कहा है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जिस प्रकार सम्यक्त्व का निरन्वय नाश होता है उस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का निरन्वय नाश नहीं पाया जाता है, इसलिए तीसरे गुणस्थान में औदयिकभाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है।
धवला 1/1,1,11/168/7
मिथ्यात्वक्षयोपशमादिवानंतानुबंधिनामपि सर्वघातिस्पर्धकक्षयोपशमाज्जातमिति सम्यग्मिथ्यात्वं किमिति नोच्यत इति चेन्न, तस्य चारित्रप्रतिबंधकत्वात्। ये त्वनंतानुबंधिक्षयोपशमादुत्पत्तिं प्रतिजानते तेषां सासादनगुण औदयिक स्यात्, न चैवमनभ्युपगमात् ।
= प्रश्न–जिस तरह मिथ्यात्व के क्षयोपशम से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की उत्पत्ति बतलायी है, उसी प्रकार वह अनंतानुबंधी कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम से होता है, ऐसा क्यों नहीं कहा। उत्तर–नहीं, क्योंकि अनंतानुबंधी कषाय चारित्र का प्रतिबंध करती है (और इस गुणस्थान में श्रद्धान की प्रधानता है) जो आचार्य अनंतानुबंधीकर्म के क्षयोपशम से तीसरे गुणस्थान की उत्पत्ति मानते हैं, उनके मत से सासादन गुणस्थान को औदयिक मानना पड़ेगा। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि दूसरे गुणस्थान को औदयिक नहीं माना गया है।
देखें क्षयोपशम - 2.4 (मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी और सम्यक्त्व प्रकृति इन तीनों का उदयाभाव रूप उपशम होते हुए भी मिश्रगुणस्थान को औपशमिक नहीं कह सकते।)
*14 मार्गणाओं में संभव मिश्र गुणस्थान विषयक शंका समाधान–देखें वह वह नाम ।