मैत्री
From जैनकोष
भ. आ./मू. व वि. /१६९६/१५१६/१२ ‘जीवेसु मित्तचिंता मेत्ती’− जीवेसु मित्तचिंता अनंतकालं चतसृषु गतिषु परिभ्रमतो घटीयन्त्रवत्सर्वे प्राणभृतोऽपि बहुशः कृतमहोपकारा इति तेषु मित्रताचिंता मैत्री । = अनन्तकाल से मेरा आत्मा घटीयंत्र के समान इस चतुर्गतिमय संसार में भ्रमण कर रहा है । इस संसार में सम्पूर्ण प्राणियों ने मेरे ऊपर अनेक बार महान् उपकार किये हैं’ ऐसा मन में जो विचार करना, वह मैत्री भावना है ।
स. सि./७/११/३४९/७ परेषां दुःखानुत्पत्तयभिलाषा मैत्री । = दूसरों को दुःख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है। (रा. वा./७/११/१/५३८/१४)।
ज्ञा./२७/५-७ क्षुद्रेतरविकल्पेषु चरस्थिरशरीरिषु । सुखदुःखाद्यवस्थासु संसृतेषु यथायथम् ।५। नानायोनिगतेष्वेषु समत्वेनाविराधिका । साध्वी महत्त्वमापन्ना मतिर्मैत्रीति पठ्यते ।६। जीवन्तु जन्तवः सर्वे क्लेशव्यसनवर्जिताः । प्राप्नुवन्ति सुखं त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम् ।७ । = सूक्ष्म और बादर भेदरूप त्रस स्थावर प्राणी सुख-दुःखादि अवस्थाओं में जैसे-तैसे तिष्ठे हों तथा नाना भेदरूप योनियों में प्राप्त होने वाले जीवों में समानता विराधने वाली न हो ऐसी महत्ता को प्राप्त हुई समीचीन बुद्धि मैत्री भावना कही जाती है ।५-६। इसमें ऐसी भावना रहती है कि−ये सब जीव कष्ट व आपदाओं से वर्जित हो जाओ, तथा वैर, पाप, अपमान को छोड़कर सुख को प्राप्त होओ ।७।