यज्ञ
From जैनकोष
- यज्ञ
दे. पूजा/१/१(याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजाविधि के पर्यायवाचक शब्द हैं)।
म. पु./६७/१९४ यज्ञशब्दाभिधेयोरुदानपूजास्वरूपकात्। धर्मात्पुण्यं समावर्ज्यं तत्पाकाद्दिविजेश्वराः।१९४। = यज्ञ शब्द का वाच्यार्थ जो बहुत भारी दान देना और पूजा करना है, तत्स्वरूप धर्म से ही लोग पुण्य संचय के फल से देवेन्द्रादि होते हैं।१९४।
- यज्ञ के भेद व भेदों के लक्षण
म. पु./६७/२००-२१२/२५८ आर्षानार्षविकल्पेन यागो द्विविध इष्यते।२००। वयोऽग्नयः समुद्दिष्टाः.....। तेषु क्षमाविरागत्वानंशनाहुतिभिर्वने।२०२। स्थित्वर्षियति मुन्यस्तशरणाः परमद्विजाः। इत्यात्मयज्ञमिष्टर्थामष्टमीमवनीं ययुः।२०३। तथा तीर्थगणाधीशशेषकेवलिसद्वपुः।संस्कारमहिताग्नीन्द्रमुकुटोत्थाग्निषु त्रिषु।२०४। परमात्मपदं प्राप्तान्निजान् पितृपितामहान्। उद्दिश्य भाक्तिकाः पुष्पगन्धाक्षतफलादिभिः।२०५। आर्षोपासकवेदोक्तमन्त्रोच्चारणपूर्वकम्। दानादिसत्क्रियोपेता गेहाश्रमतपस्विनः।२०६। यागोऽयमृषिमिः प्रोक्तो यत्यगारिद्वयाश्रयः। आद्यो मोक्षाय साक्षात्स्यात्परम्परया परः।२१०। एवं परम्परामतदेव यज्ञविधिष्विह।...।२११। मुनिसुव्रततीर्थेशसंताने सगरहिृषः। महाकालासुरो हिंसायज्ञमज्ञोऽन्वशादमुम्।२१२। = आर्ष और अनार्ष के भेद से यज्ञ दो प्रकार का माना जाता है।२००। क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि (दे. अग्नि/१) इन तीन अग्नियों में क्षमा, वैराग्य और अनशन की आहुतियाँ देने वाले जो ऋषि, यति, मुनि और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज वन में निवास करते हैं, वे आत्म-यज्ञ कर इष्ट अर्थ को देने वाली अष्टम पृथिवी मोक्षस्थान को प्राप्त होते हैं। (२०२-२०३)। इसके सिवाय तीर्थंकर, गणधर तथा अन्य केवलियों के उत्तम शरीर के संस्कार से उत्पन्न हुई तीन अग्नियों में (दे. मोक्ष/५/१) अत्यन्त भक्त उत्तम क्रियाओं के करने वाले तपस्वी गृहस्थ परमात्मपद को प्राप्त हुए अपने पिता तथा प्रपितामह को उद्देश्यकर वेदमन्त्र के उच्चारण पूर्वक अष्ट द्रव्य की आहुति देना आर्ष यज्ञ है। (२०४-२०७)। यह यज्ञ मुनि और गृहस्थ के आश्रय के भेद से दो प्रकार का निरूपण किया गया, इनमें से पहला मोक्ष का कारण और दूसरा परम्परा मोक्ष का कारण है।२१०। इस प्रकार यह देवयज्ञ की विधि परम्परा से चली आयी है।२११। किन्तु श्री मुनिसुव्रत नाथ तीर्थंकर के तीर्थ में सगर राजा से द्वेष रखने वाला एक महाकाल नाम का असुर हुआ था, उसी अज्ञानी ने इस हिंसायज्ञ का उपदेश दिया है।२१२।