अनशन
From जैनकोष
यद्यपि भूखा मरना कोई धर्म नहीं, पर शरीर से उपेक्षा हो जाने के कारण, अथवा अपनी चेतन वृत्तियों को भोजन आदि के बन्धनों से मुक्त करने के लिए, अथवा क्षुधा आदिमें भी साम्यरस से च्युत न होने रूप आत्मिक बलकी वृद्धि के लिए किया गया अशन का त्याग मोक्षमार्गी को अवश्य श्रेयस्कर है। ऐसे ही त्याग का नाम अनशन तप है, अन्यथा तो कोरा लंघन है, जिससे कुछ भी सिद्धि नहीं।
१. अनशन सामान्य का निश्चय लक्षण
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या ४४०-४४१ जो मण-इंदिय विज्जई इह-भव-पर-लोय-सोक्खणिरवेक्खो। अप्पाणे विय णिवसई सज्झाय-परायणो होदि ।।४४०।। कम्माण णिज्जरट्ठ आहारं परिहरेइ लोलाए। एग-दिणादि-पमाणं तस्स तवं अणसणं होदि।
= जो मन और इन्द्रियों को जीतता है, इस भव और परभव के विषय सुखकी अपेक्षा नहीं करता, अपने आत्मसुख में ही निवास करता है और स्वाध्याय में तत्पर रहता है ।।४४०।। उक्त प्रकार का जो पुरुष कर्मों की निर्जरा के लिए एक दिन वगैरह का परिमाण करके लीला मात्रसे आहार का त्याग करता है, उसके अनशन नामक तप होता है ।।४४१।।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा संख्या २२७/२७५ यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमवबुद्ध्यमानस्य सकलाशनतृष्णाशून्यत्वात्स्वयमनशन एव स्वभावः। तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात्।
= सदा ही समस्त पुद्गलाहार से शून्य आत्माको जानता हुआ समस्त अनशन तृष्णा रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अन्तरंग की विशेष बलवत्ता है।
२. अनशन सामान्य का व्यवहार लक्षण
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/१९,१/६१८/१७ यत्किंचद् दृष्टफलं मन्त्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनशनमित्युच्यते।
= मन्त्र साधनादि दृष्ट फलकी अपेक्षा के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है।
(चा. सा./१३४/१)।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ६/३२/१४ अनशनं नाम अशनत्यागः। स च त्रिप्रकारः मनसा भुञ्जे, भाजयामि, भोजने व्यापृतस्यानुमति करोमि। भुञ्जे भुङ्क्ष्व, पचनं कुर्विति वचसा। तथा चतुर्विधस्याहारस्याभिसंधिपूर्वकं कायेनादानं हस्तसंज्ञायाः प्रवर्त्तनम् अनुमतिसूचनं कायेन। एतेषां मनोवाक्कायक्रियाणां कर्मोपादानकारणानां त्यागोऽनशनं चारित्रमेव।
= चार प्रकार के आहारों का त्याग करना इसको अनशन कहते हैं। यह अनशन तीन प्रकार का है। मैं भोजन करूँ, भोजन कराऊँ, भोजन करनेवाले को अनुमति देऊँ, इस तरह मनमें संकल्प करना। मैं आहार लेता हूँ, तू भोजन कर, तुम भोजन पकाओ ऐसा वचन से कहना, चार प्रकार के आहार को संकल्प पूर्वक शरीर से ग्रहण करना, हाथसे इशारा करके दूसरे को ग्रहण करने में प्रवृत्त करना, आहार ग्रहण करने के कार्य में शरीर से सम्मति देना ऐसी जो मन, वचन, काय की कर्म ग्रहण करने में निमित्त होने वाली क्रियाएँ उनका त्याग करना उसको अनशन कहते हैं।
धवला पुस्तक संख्या १३/५,४,२६/५५/१ तत्थ चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालस-पक्ख-मास उड्ड-अयण-संवच्छरेसु एसणपरिच्चाओ अणेसणं णाम तवो।
= चौथे, छठे, आठवें, दसवें और बारहवें एषण का ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषण का त्याग करना अनेषण नाम का तप है।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ७/११/६६४ चतुर्थाद्यर्धवर्षान्त उपवासोऽथवामृतेः। सकृद् भुक्तिश्च मुक्त्यथ तपोऽनशनमिष्यते ।।११।।
= कर्मों का क्षय करने के उद्देश्य से भोजन का त्याग करने को अनशन तप कहते हैं।
३. अनशन तप के भेद
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या २०९ अद्धाणसणं सव्वाणसणं दुविहं तु अणसणं भणियं।
= अर्धानशन और सर्वानशन ऐसे अनशन तप के दो भेद हैं।
मू. ला./३४७ इतिरियं जावजोवं दुविहं पुण अणसणं मुणेदव्वं ।।३४७।।
= अनशन तपके दो भेद हैं - इतिरिय तथा यावज्जीव।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/१९,२/६१८/१८ तद् द्विविधमवधृतानवधृतकालभेदात्।
= वह अनशन अनवधृत और अवधृतकाल के भेदसे दो प्रकार का होता है।
(चा. सा./१३४/२)।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ७/११/६६५ = यह दो प्रकार का होता है - सकृद्भुक्तिया प्रोषध तथा दूसरा उपवास। ....उपवास दो प्रकार का माना है - अवधृतकाल और अनवधृतकाल।
४. अनशन के भेदों के लक्षण
१. अवधृत काल अनशन का लक्षण
मूलाचार गाथा संख्या ३४७-३४८ ....इतिरियं साकाङ्क्षम्.... ।।३४७।। छट्ठट्ठमदसमद्वादसेहिं मासद्धमासखमणाणि। कणगेगावलि आदी तवोविहाणाणि णाहारे ।।३४८।।
= कालकी मर्यादा से इतिरिय होता है ।।३४७।। अर्थात् एक दिन में दो भोजन वेला कही हैं। चार भोजन वेला का त्याग उसे चतुर्थ उपवास कहते हैं। छः भोजन वेला का त्याग वह दो उपवास कहे जाते हैं। इसी को षष्ठम तप कहते हैं। षष्टम, अष्टम, दशम, द्वादश, पंद्रह दिन, एक मास त्याग, कनकावली, एकावली, मुरज, मद्यविमानपंक्ति, सिंहनीःक्रीडित इत्यादि जो भेद जहाँ है वह सब साकांक्ष अनशन तप है ।।३४८।। इसी को अवधृत काल अनशन तप कहते हैं।
(चारित्रसार पृष्ठ संख्या १३४/२)।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/१९, २/६१८/२० तत्रावधृतकालं सकृद्भोजनं चतुर्थभक्तादि।
= एक बार भोजन या एक दिन पश्चात् भोजन नियतकालीन अनशन है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या २०९/४२५/१३ कदा तदुभयमित्यत्र कालविवेकमाह-विहरन्तस्य ग्रहणप्रतिसेवनकालयोर्वर्तमानस्य अद्धानशनं।
= ग्रहण और प्रतिसेवना कालमें अद्धानशन तप मुनि करते हैं। दीक्षा ग्रहण कर जब तक संन्यास ग्रहण किया नहीं तब तक ग्रहण काल माना जाता है। तथा व्रतादिकों में अतिचार लगनेपर जो प्रायश्चित्त से शुद्धि करने के लिए कुछ दिन अर्थात् षष्ठम, अष्टम आदि अनशन करना पड़ता है, उसको प्रतिसेवनाकाल कहते हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ७/११/६६५ वह अनशन दो प्रकार का होता है - सकृद्भुक्ति अर्थात् प्रोषध तथा दूसरा उपवास। दिनमें एक बार भोजन करने को प्रोषध और सर्वथा भोजन के परिहार को उपवास कहते हैं। उसमें अवधृतकाल उपवास के चतुर्थ से लेकर षाण्मासिक तक अनेक भेद होते हैं।
२. अनवधृत काल या सर्वानशन का लक्षण
मूलाचार गाथा संख्या ३४९ भत्तपइण्णा इंगिणि पाउवगमणाणि जाणि मरणाणि। अण्णेवि एवमादी बोधव्वा णिरवकखाणि ।।३४९।।
= भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनीमरण, प्रायोपगमनमरण अथवा अन्य भी अनेकों प्रकार के मरणों में जो मरण पर्यन्त आहार का त्याग करना है वह निराकांक्ष कहलाता है।
राजवार्तिक अध्याय संख्या २/१९,२/६१८/२० अनवधृतकालमादेहोपरमात्।
= शरीर छूटने तक उपवास धारण करना अनियमित काल अनशन कहलाता है।
(चारित्रसार पृष्ठ संख्या १३४/३) (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ७/११/६६४) (भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या २०९/४२५)।
५. सर्वानशन तप कब धारण किया जाता है
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या २०९/४२५/१४ परित्यागोत्तरकालो जीवितस्य यः सर्वकालः तस्मिन्ननशनं अशनत्यागः सर्वानशनम्। ...चरिमंते परिणामकालस्यान्ते।
= मरण समय में अर्थात् संन्यास कालमें मुनि सर्वानशन तप करते हैं।
६. अनशन के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ४८७/७०७/१ तपसोऽनशनादेरतिचारः। स्वयं न भुङ्क्ते अन्यं भोजयति, परस्य भोजनमनुजानाति मनसा वचसा कायेन च। स्वयं क्षुधापीडित आहारमभिलषति। मनसा पारणां मम कः प्रयच्छति, क्व वा लपस्यामीति चिन्ता अनशनातिचारः।
= स्वयं भोजन नहीं करता है, परन्तु दूसरों को भोजन कराता है, कोई भोजन कर रहा हो तो उसकी अनुमति देता है, यह अतिचार मनसे, वचनसे और शरीरसे करना। भूखसे पीडित होनेपर स्वयं मनमें आहार की अभिलाषा करना, मेरे को कौन पारणा देगा, किस घरमें मेरा पारणा होगा, ऐसी चिन्ता करना, ये अनशन तपके अतिचार हैं।
७. अनशन शक्ति के अनुसार करना चाहिए
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ५/६५ द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं भावं वीर्यं समीक्ष्य च। स्वास्थ्याय वर्ततां सर्वविद्धशुद्धाशनैः सुधीः ।।६५।।
= विचार पूर्वक आचरण करनेवाले साधुओं को आरोग्य और आत्मस्वरूपमें अवस्थान रखने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छह बातों का अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन, विद्धाशन और शुद्धाशन के द्वारा आहारमें प्रवृत्ति करना चाहिए।
८. अनशन के कारण व प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /९/१९/४३८ दृष्टफलानपेक्षं संयमसिद्धिरागोच्छेदकर्मविनाशध्यानागमावाप्त्यर्थमनशनम्।
= दृष्ट फल मन्त्रसाधना आदिकी अपेक्षा किये बिना संयम की सिद्धि, राग का उच्छेद, कर्मों का विनाश ध्यान और आगम की प्राप्ति के लिए अनशन तप किया जाता है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/१९,१/६१८/१६) (चारित्रसार पृष्ठ संख्या १३४/४)
धवला पुस्तक संख्या १३/५, ४, २६/५५/३ किमट्ठमेसो कीरदे। पाणिंदियसंजमट्ठं, भुत्तीए उहयासंजम अविणाभावदंसणादो।
=
प्रश्न - यह अनेषण किसलिए किया जाता है?
उत्तर - यह प्राणिसंयम और इन्द्रिय संयम की सिद्धि के लिए किया जाता है, क्योंकि भोजन के साथ दोनों प्रकार के असंयम का अविनाभाव देखा जाता है।
९. अनशन में ऐहलौकिक फल की इच्छा नहीं होनी चाहिए
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/१९,१/६१८/१६ यत्किंचिद् दृष्टफलं मन्त्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनसनमित्युच्यते।
= मन्त्र साधनादि कुछ भी दृष्ट फल की अपेक्षा के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है।
(चारित्रसार पृष्ठ संख्या १३४/४)।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/१९,१६/६१९/२४ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः (९/३) इत्यतः सम्यक ग्रहणमनुवर्त्तते, तेन दृष्टफलनिवृत्तिः कृता भवति सर्वत्रा
= `सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः' इस सूत्रमें-से सम्यक् शब्द की अनुवृत्ति होती है। इसी `सम्यक्' पद की अनुवृत्ति आने से सर्वत्र (अनशन तपमें भी) दृष्टफल निरपेक्षता का होना तपों में अनिवार्य है। इसलिए सभी तपों में ऐहलौकिक फल की कामना नहीं होनी चाहिए।
• अधिक से अधिक उपवास करने की सीमा - दे. प्रोषधोपवास।