रति
From जैनकोष
स. सि./८/९/३८५/१३ यदुदयाद्देशादिष्वौत्सुक्यं सा रतिः । अरतिस्तद्विपरीता । = जिसके उदय से देशादि में उत्सुकता होती है, वह रति है । अरति इससे विपरीत है । (रा. वा./८/९/४/५७४/१७); (गो. क./जी. प्र./३३/२८/७) ।
ध. ६/१, ९-१, २४/४७/५ रमणं रतिः, रम्यते अनया इति वा रतिः । जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण दव्व-खेत-काल-भावेसु रदी समुप्पज्जइ, तेसिं रदि त्ति सण्णा । दव्व-खेत-काल-भावेसु जेसिमुदएण जीवस्स अरई समुप्पज्जइ तेसिमरदि त्ति सण्णा । = रमने को रति कहते हैं अथवा जिसके द्वारा जीव विषयों में आसक्त होकर रमता है उसे रति कहते हैं । जिन कर्म स्कन्धों के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों में राग उत्पन्न होता है, उनकी ‘रति’ यह संज्ञा है । जिन कर्म स्कन्धों के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों में जीव के अरुचि उत्पन्न होती है, उनकी अरति संज्ञा है । (ध. १३/५, ५, ९६/३६१/९)।
ध. १२/४, २, ८, १०/२८५/६ नप्तृ-पुत्र-कलत्रादिषु रमणं रतिः । तत्प्रतिपक्षा अरतिः । = नाती, पुत्र एवं स्त्री आदिकों में रमण करने का नाम रति है । इसकी प्रतिपक्षभूत अरति कही जाती है ।
नि. सा./ता. वृ./६ मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेव रतिः । = मनोहर वस्तुओं में परम प्रीति सो रति है ।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- रति राग है ।−दे. कषाय/४ ।
- रति प्रकृति का बन्ध उदय व सत्त्व ।−दे. वह वह नाम ।
- रति प्रकृति के बन्ध योग्य परिणाम ।−दे. मोहनीय/३/६ ।
रति उत्पादक वचन−दे. वचन ।