उपकार
From जैनकोष
उपकार का सामान्य अर्थ निमित्त रूप से सहायक होना है। वह दो प्रकार है-स्वोपकार व परोपकार। यद्यपि व्यवहार मार्ग में परोपकार की महत्ता है, पर अध्यात्म मार्ग में स्वोपकार ही अत्यंत इष्ट हैं, परोपकार नहीं।
1. उपकार सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/17/282/2
उपक्रियत इत्युपकारः। कः पुनरसौ। गत्युपग्रहः स्थित्युपग्रहश्च।
= उपकार की व्युत्पत्ति `उपक्रियते' है। प्रश्न-यह उपकार क्या है? उत्तर-(धर्म द्रव्य का) गति उपग्रह और (अधर्म द्रव्य का) स्थिति उपग्रह, यही उपकार है।
2. स्व व पर उपकार
(और भी देखें आगे नं - 3)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/38/372/13
स्वपरोपकारऽनुग्रहः।....स्वोपकारः पुण्यसंचयः परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धिः।
= स्वयं अपना अथवा दूसरे का उपकार करना अनुग्रह है। दान देने से जो पुण्य का संचय होता है वह अपना उपकार है (क्योंकि उसका फल भोग स्वयं को प्राप्त होता है); तथा जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यग्ज्ञानादि की वृद्धि होती है, यह पर का उपकार है (क्योंकि इसका फल दूसरे को प्राप्त होता है)।
(राजवार्तिक अध्याय 7/38/1/559/15)।
3. उपकार व कर्तृत्व में अंतर
राजवार्तिक अध्याय 5/17/16/462/5
स्यादेतत्-गतिस्थित्योः धर्मा-धर्मौ कर्तारौ इत्ययमर्थः प्रसक्त इतिः तन्नः किं कारणम्। उपकारवचनात्। उपकारो बलाधानम् अवलंबनमित्यनर्थांतरं। तेन धर्माधर्मयोः गतिस्थितिनिर्वर्तने प्रधानकर्तृत्वमपोदितं भवति। यया अंधस्येतरस्य वा स्वजङ्वाबलाद्गच्छतः यष्ट्याद्युपकारकं भवति न तु प्रेरकं तथा जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति।
= प्रश्न - धर्म और अधर्म द्रव्यों को गति-स्थिति का उपकारक कहने से उनको गति-स्थिति कराने का कर्तापना प्राप्त हो जाएगा? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, `उपकार' शब्द दिया गया है। उपकार, बलाधान व अवलंबन इन शब्दों का एक ही अर्थ होता है अतः इसके द्वारा धर्म और अधर्म द्रव्यों का गति स्थिति उत्पन्न करने में प्रधान कर्तापने का निषेध कर दिया गया। जैसे कि स्वयं अपने जंघाबल से चलने वाले अंधे के लिए लाठी उपकारक है प्रेरक नहीं, उसी प्रकार अपनी अपनी शक्ति से चलने अथवा ठहरने वाले जीव व पुद्गल द्रव्यों को धर्म और अधर्म उपकारक हैं प्रेरक नहीं।
4. उपकार करके बदला चाहना योग्य नहीं
कुरल काव्य परिच्छेद 22/1
नोपकारपराः संतः प्रतिदानजिघृक्षया। समृद्धः किमसौ लोको मेघाय प्रतियच्छति ।1।
= महापुरुष जो उपकार करते हैं, उसका बदला नहीं चाहते। भला संसार जल-बरसाने वाले बादलों का बदला किस प्रकार चुका सकता है।
5. शरीर का उपकार अपना अपकार है और इसका अपकार अपना उपकार है।
इष्टोपदेश 19
यज्जीवस्योपकाराय तत्देहस्यापकारकम्। यद्देहस्योपकराय तज्जीवस्यापकारकम् ।19।
= जो तपादिक आचरण जीव का उपकारक है वह शरीर का अपकारक है। और जो धनादिक शरीर के उपकारक हैं वे जीव के अपकारक हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार 4/141-142/457
योगाय कायमनुपालयतोऽपियुक्त्या, क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽंयथाक्षसुखजीवीतरंध्रलाभात् तृष्णासरिद्विधुरयिष्यति सत्तपोऽद्रिम् ।141। नैर्ग्रंथ्यव्रतमास्थितोपि वपुषि स्निह्यन्नसह्यव्यथा, भीरुर्जीवितवित्तलालसतया पंचत्वचेक्रीयितम्। यांचादैन्यमुपेत्य विश्वमहितां न्यककृत्य देवों त्रपां, निर्मानो धनिनिष्ण्य संघटनयास्पृश्यां विधत्ते गिरम् ।142।
= हे चारित्रमात्रगात्र भिक्षो! योगसिद्धि के लिए पालते हुए भी इस शरीर को, युक्ति के साथ-शक्ति को न छिपाकर ममत्व बुद्धि दूर करने के लिए क्लेश देकर कृश कर देना चाहिए। अन्यथा यह निश्चित जान कि यह तृष्णारूपी नदी, ऐंद्रिय-सुख और जीवन स्वरूप दो छिद्रों को पाकर समीचीन तपरूपी पर्वत को जर्जरित कर डालेगी ।141। नैर्ग्रंथ्य व्रत को भी प्राप्त करके भी जो साधु शरीर के विषय में स्नेह करता है, वह अवश्य ही सदा असह्य दुःखों से भयभीत रहता है। और इसीलिए वह जीवन व धन में तीव्र लालसा रखकर याचना जनित दीनता को प्राप्त कर, अत्यंत प्रभावयुक्त देवी लज्जा का अभिभव करके, अपनी जगपूज्य वाणी को अंत्यजनों के समान, दयादाक्षिण्यादि से रहित धनियों से संपर्क कराकर अस्पृश्य बना देता है ।142।
6. निश्चय से कोई किसी का उपकार या अपकार नहीं कर सकता
समयसार / मूल 266
दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि। जा एसा मूढमई णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ।266।
= हे भाई! मैं जीवों को दुःखी-सुखी करता हूँ, बाँधता हूँ तथा छुड़ाता हूँ, ऐसी जो तेरी यह मूढ़मति है वह निरर्थक होने से वास्तव में मिथ्या है।
योगसार अमितगति| योगसार अधिकार 5/10
निग्रहानुग्रहौ कर्तुं कोऽपि शक्तोऽस्ति नात्मनः। रोषतोषौ न कुत्रापि कर्त्तव्याविति तात्त्विकैः।
= इस आत्मा का निग्रह या अनुग्रह करने में कोई भी समर्थ नहीं है, अतः किसी से भी राग या द्वेष नहीं करना चाहिए।
7. स्वोपकार के सामने परोपकार का निषेध
मोक्षपाहुड़/ मूल/16
परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सग्गई हवइ। इण णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ।16।
= परद्रव्य से दुर्गति और स्वद्रव्य से सुगति होती है, ऐसा जानकर स्वद्रव्य में रति करनी चाहिए और परद्रव्य से विरत रहना चाहिए।
इष्टोपदेश / मूल या टीका गाथा 32
परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव। उपकुर्वन्परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ।32।
= हे आत्मन! तू लोक के समान मूढ़ बनकर दृश्यमान शरीरादि परपदार्थों का उपकार कर रहा है, यह सब तेरा अज्ञान है। अब तू पर के उपकार की इच्छा न कर, अपने ही उपकार में लीन हो।
महापुराण सर्ग संख्या 38/176
निःसंगवृत्तिरेकाकी विहरन् स महातपः। चिकीर्षुरात्मसंस्कारं नान्यं संस्कर्तुमर्हति ।176।
= जिसकी वृत्ति समस्त परिग्रह से रहित है, जो अकेला ही विहार करता है, महातपस्वी है, जो केवल अपने आत्मा का ही संस्कार करना चाहता है, उसे किसी अन्य पदार्थ का संस्कार नहीं करना चाहिए, अर्थात् अपने आत्मा को छोड़कर किसी अन्य साधु या गृहस्थ के सुधार की चिंता में नहीं पड़ना चाहिए।
8. परोपकार व स्वोपकार में स्वोपकार प्रधान है
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 154/351 में उद्धृत
"अप्पहियं कायव्वं जइ सक्कइ परहियं च कायव्वं। अप्पहियपरहियादो अप्पहिदं सुट्ठु कादव्वं।"
= अपना हित करना चाहिए। शक्य हो तो पर का भी हित करना चाहिए, परंतु आत्महित और परहित इन दोनों में-से कौन-सा मुख्यतया करना चाहिए ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर अवश्य ही उत्तम प्रकार से आत्महित करना चाहिए।
(अनगार धर्मामृत अधिकार 1/12/35 में उद्धृत), (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 804 में उद्धृत)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 804, 809
धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्त्तव्योऽनुग्रहः परे। नात्मव्रतं विहायस्तु तत्परः पररक्षणे ।804। तद्द्विधाथ च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात्। प्रधानं स्वात्मसंबंधि गुणो यावत्परात्मनि ।809।
= धर्म के आदेश और उपदेश के द्वारा ही दूसरे जीवों पर अनुग्रह करना चाहिए। किंतु अपने व्रतों को छोड़कर दूसरे जीवों की रक्षा करने में तत्पर नहीं होना चाहिए ।804। तथा वह वात्सल्य अंग भी स्व व पर के विषय के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से अपनी आत्मा से संबंध रखने वाला वात्सल्य प्रधान है तथा संपूर्ण पर-आत्माओं से संबंध रखने वाला जो वात्सल्य है वह गौण है ।809।
(लांटी संहिता अधिकार 4/305)
9. परोपकार की कथंचित् प्रधानता
कुरल काव्य परिच्छेद 11/1,2/22/10
या दया क्रियते भव्यैराभारस्थापनं बिना। स्वर्ग्यमर्त्यावुभौ तस्याः प्रतिपादनाय न क्षमौ ।1। शिष्टैरवसरं वीक्ष्य यानुकंपा विधीयते। स्वल्पापि दर्शने किंतु विश्वस्मात् सा गरीयसी ।2। उपकारो विनाशेन सहितोऽपि प्रशस्यते। विक्रोयापि निजात्मानं भव्योत्तम विधेहितम् ।10।
= आभारी बनाने की इच्छा से रहित होकर जो दया दिखाई जाती है, स्वर्ग और पृथिवी दोनों मिलकर भी उसका बदला नहीं चुका सकते ।1। अवसर पर जो उपकार किया जाता है, वह देखने में छोटा भले ही हो, पर जगत् में सबसे भारी है ।2। यदि परोपकार करने के फलस्वरूप सर्वनाश उपस्थित हो तो दासत्व में फँसने के लिए आत्मविक्रय करके भी उसको संपादन करना उचित है।
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 483/704
आदट्ठमेव चिंतेदुमुट्ठिदा जे परट्ठमवि लोए। कडुय फुरुसेहिं साहेंति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।483।
= जो पुरुष आत्महित करने के लिए कटिबद्ध होकर आत्महित के साथ कटु और कठोर वचन तक सहकर परहित भी साधते हैं, वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।
महापुराण सर्ग संख्या 38/169-171
श्रावकानार्यिकासंघं श्राविकाः संयतानपि। सन्मार्गे वर्तयन्नेष गणपोषणमाचरेत् ।169। श्रुतार्थिभ्यः श्रुतं दद्याद् दीक्षार्थिभ्यश्च दीक्षणम्। धर्मार्थिभ्योऽपि सद्धर्मं स शश्वत् प्रतिपाद येत् ।170। सद्वृत्तान् धारयन् सूरिरसद्वृत्तान्निवारयन्। शोधयंश्च कृतादागोमलात् स बिभृयाद् गणम् ।171।
= आचार्य को चाहिए कि वे मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओं को समीचीन मार्ग में लगाते हुए अच्छी तरह संघ का पोषण करे ।169। उन्हें यह भी चाहिए कि वह शास्त्राध्ययन की इच्छा करने वाले को शास्त्र पढ़ावे तथा दीक्षार्थियों को दीक्षा देवे और धर्मार्थियों के लिए धर्म का प्रतिपादन करे ।170। वे आचार्य सदाचार धारण करने वालों को प्रेरित करे और दुराचारियों को दूर हटावे। और किये हुए स्वकीय अपराधरूपी मल को शोधते हुए अपने आश्रितगण की रक्षा करे ।171।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 357/561/18
किन्न वेत्ति स्वयमपि इति नोपेक्षितव्यम्। परोपकारः कार्य एवेति कथयति। तथाहि-तीर्थकृतः विनेयजनसंबोधनार्थं एव तीर्थविहारं कुर्वंति। महत्ता नामैवं यत्-परोपकारबद्धपरिकरता ॥ तथा चोक्तं-"क्षुद्राः संति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोद्यताः स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः ॥ दुष्पूरोदरपूरणाय पिबति स्रोत्रःपतिं बाडवो जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगत्संतापबिच्छित्तिये ॥"
= 'क्या दूसरा मनुष्य अपना हित स्वयं नहीं जानता है?' ऐसा विचार करके दूसरों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। परोपकार करने का कार्य करना ही चाहिए। देखो तीर्थंकर परमदेव भव्य जनों को उपदेश देने के लिए ही तीर्थ विहार करते हैं। परोपकार के कार्य में कमर कसना यही बड़प्पन है। कहा भी है-"जगत् में अपना कार्य करने में ही तत्पर रहने वाले मनुष्य हजारों हैं, परंतु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है, ऐसा सत्पुरुषों में अग्रणी पुरुष एकाध ही है। बड़वानल अपना दुर्भर पेट भरने के लिए समुद्र का सदा पान करता है, क्योंकि वह क्षुद्र मनुष्य के समान स्वार्थी है। किंतु मेघ ग्रीष्मकाल की उष्णता से पीडित समस्त प्राणियों का संताप मिटाने के लिए समुद्र का पान करता है। मेघ परोपकारी है और बड़वानल स्वार्थी है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 1/11/35 पर उद्धृत
स्वदुःखनिर्घृणारंभाः परदुःखेषु दुःखिता। निर्व्यपेक्षं परार्थेषु बद्धकक्षा मुमुक्षवः ॥
= मुमुक्षु पुरुष अपने दुःखों कों दूर करने के लिए अधिक प्रयत्न नहीं करते, किंतु दूसरों के दुःखों को देखकर अधिक दुःखी होते हैं। और इसलिए वे किसी भी प्रकार की अपेक्षा न रखकर परोपकार करने में दृढ़ता के साथ सदा तत्पर रहते हैं।
10. अन्य संबंधित विषय
• स्वोपकार व परोपकार का समन्वय - देखें उपकार - 9
• उपकारार्थ धर्मोपदेश का विधि निषेध - देखें उपदेश
• उपकार की अपेक्षा द्रव्य में भेदाभेद - देखें सप्तभंगी - 5
• उपकारक निमित्तकारण - देखें निमित्त - 1
• छः द्रव्यों में परस्पर उपकार्य-उपकारक भाव - देखें कारण - III.2
• उपकार्य उपकारक संबंध निर्देश - देखें संबंध