ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 58
From जैनकोष
पर नित्य उत्सव और अनंत कल्याणों के एक स्थान स्वरूप समवशरण में जब धर्म सुनने के इच्छुक जीव हाथ जोड़कर बैठ गये तब वरदत्त गणधर ने वक्ताओं में श्रेष्ठ श्री नेमि जिनेंद्र को नमस्कार कर समस्त भव्यजीवों का हित पूछा । भावार्थ-हे भगवन् ! समस्त जीवों के लिए हितरूप क्या है, ऐसा प्रश्न किया ॥1-2॥ गणधर के उक्त प्रश्न के अनंतर भगवान् की दिव्य ध्वनि खिरने लगी । भगवान् की वह दिव्यध्वनि चारों दिशाओं में दिखने वाले चार मुखों से निकलती थी; चार पुरुषार्थरूप चार फल को देने वाली थी, सार्थक थी, चार वर्ण और आश्रमों को आश्रय देने वाली थी, चारों ओर सुनाई पड़ती थी, चार अनुयोगों की एक माता थी, आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेजिनी और निर्वेदिनी इन चार कथाओं का वर्णन करने वाली थी, चार गतियों का निवारण करने वाली थी । एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ और नौ का स्थान थी, अर्थात् सामान्य रूप से एक जीव का वर्णन करने वाली होने से एक का स्थान थी, श्रावक मुनि के भेद से दो प्रकार के धर्म का अथवा चेतन-अचेतन और मूर्तिक-अमूर्तिक के भेद से दो द्रव्यों का निरूपक होने से दो का स्थान थी, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्ररूपी रत्नत्रय अथवा चेतन, अचेतन और चेतनाचेतन द्रव्यों का वर्णन करने वाली होने से तीन का स्थान थी, चार गति, चार कषाय अथवा मिथ्यात्वादि चार प्रत्ययों का निरूपण करने वाली होने से चार का स्थान थी, पांच अस्ति काय अथवा प्रमाद-सहित मिथ्यात्वादि पांच प्रत्ययों का वर्णन करने वाली होने से पांच का स्थान थी, छह द्रव्यों का वर्णन करने वाली होने से छह का स्थान थी, सात तत्त्वों की निरूपक होने से सात का स्थान थी, आठ कर्मों का निरूपण करने वाली होने से आठ का स्थान थी और सात तत्त्व तथा पुण्य-पाप इन नौ पदार्थों का वर्णन करने वाली होने से नौ का स्थान थी । पर्याय-रहित होने पर भी सत्ता के समान अनंत पर्यायों को उत्पन्न करने वाली थी, अहित को नष्ट करने वाली थी, सदा हित की रुचि उत्पन्न करने वाली थी, हित का स्थापन करने वाली थी, पात्र में यथायोग्य हित को अपने प्रभाव से धारण करने वाली थी, अशुभ से शीघ्र हटाने वाली थी, उत्कृष्ट शुभ को पूर्ण करने वाली थी, अजित कर्म को शिथिल करने वाली अथवा बिलकुल ही नष्ट करने वाली थी । जहाँ भगवान् विराजमान थे वहाँ से चारों ओर एक योजन के घेरा में इतनी स्पष्ट सुनाई पड़ती थी जैसे यहीं उत्पन्न हो रही हो । वह दिव्य ध्वनि जैसी उत्पत्तिस्थान में सुनाई पड़ती थी वैसी ही एक योजन के घेरा में सर्वत्र सुनाई पड़ती थी-उसमें हीनाधिकता नहीं मालूम होती थी, मधुर
स्निग्ध, गंभीर, दिव्य, उदात्त और स्पष्ट अक्षरों से युक्त थी, अनन्यरूप थी, एक थी और साध्वी अतिशय निर्मल थी ॥3-9॥
भगवान् की उस दिव्यध्वनि में जगत् की वह स्थिति दिख रही थी जो भाव और अभाव के अद्वैत-भाव से बंधी हुई है अर्थात् द्रव्यार्थिकनय से भावरूप और पर्यायार्थिकनय से अभावरूप है, अहेतुक है― किसी कारण से उत्पन्न नहीं है, अनादि है और पारिणामिकी है―स्वतःसिद्ध है ॥10॥ आत्मा है, परलोक है, धर्म और अधर्म है, यह जीव उनका कर्ता है, भोक्ता है तथा संसार के सब पदार्थ अस्तिरूप और नास्तिरूप हैं, यह कथन भी उसी दिव्यध्वनि में दिखाई देता था ॥11॥ यह जीव स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वयं संसार में घूमता है और स्वयं उससे मुक्त होता है ॥12॥ अविद्या तथा राग से संक्लिष्ट होता हुआ संसार-सागर में बार-बार भ्रमण करता है और विद्या तथा वैराग्य से शुद्ध होता हुआ पूर्ण स्वभाव में स्थित हो सिद्ध हो जाता है ॥ 13 ॥ इस अध्यात्म-विशेष को प्रकट करने के लिए वह दीपिका के समान थी तथा रूप आदि गुणों के विषय में जो अज्ञानांधकार विस्तृत था उसे शीघ्र ही दूर कर रही थी ॥14॥ जिस प्रकार आकाश से बरसा पानी एकरूप होता है परंतु पृथिवी पर पड़ते ही वह नानारूप दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान् की वह वाणी यद्यपि एकरूप थी तथापि सभा में पात्र के गुणों के अनुसार वह नानारूप दिखाई दे रही थीं ॥15 ॥ संसार के जीवादि समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाली भगवान् की वह दिव्यध्वनि सूर्य को पराजित करने वाली थी तथा सावधान होकर बैठी हुई सभा के अंतःकरण में स्थित आवरण-सहित अज्ञानांधकार को खंड-खंड कर रही थी ॥16॥
भगवान् कह रहे थे कि संसार के मार्ग का जो पथिक भव्यता रूपी शुद्धि से युक्त होता है उसी के मोक्ष पुरुषार्थ देखा गया है । भावार्थ― मोक्ष की प्राप्ति भव्यजीव को ही होती है ॥17॥ उस मोक्ष का उपाय ध्यान और अध्ययनरूप एक हेतु से प्राप्त होता है तथा सबसे पूर्व वह, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्̖चारित्र इन तीन के समुदायरूप है ॥18॥ उनमें जीवादि सात तत्त्वों का, निर्मल तथा शंका आदि समस्त अंतरंग मलों के संबंध से रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है ॥19॥ वह सम्यग्दर्शन, दर्शन मोहरूपी अंधकार के क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, क्षायिक आदि के भेद से तीन प्रकार का है और निसर्गज तथा अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है ॥20॥ जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं; इनका अपने-अपने लक्षणों से श्रद्धान करना चाहिए ॥ 21 ॥ जीव का लक्षण उपयोग है और वह उपयोग आठ प्रकार का है । उपयोग के आठ भेदों में मति, श्रुत और अवधि ये तीन, सम्यग्ज्ञान तथा मिथ्याज्ञान― दोनों रूप होते हैं ॥ 22 ॥ इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख और दुःख ये सब चिदात्मक हैं ये ही जीव के लक्षण हैं; क्योंकि इनसे ही चैतन्यरूप जीव की पहचान होती है ॥ 23 ॥
पृथिवी आदि भूतों की आकृति मात्र को जीव नहीं कहते क्योंकि वह तो इसके शरीर की अवस्था है । शरीर का चैतन्य के साथ अनेकांत है अर्थात शरीर यहीं रह जाता है और चैतन्य दूर हो जाता है ॥ 24 ॥ आटा, किण्व (मदिरा का बीज) तथा पानी आदि मदिरा के अंगों में मद उत्पन्न करने वालो शक्ति का अंश पृथक् होता है, परंतु शरीर के अवयवों में चैतन्य शक्ति पृथक नहीं होती । भावार्थ-आटा आदि मदिरा के कारणों को पृथक-पृथक कर देने पर भी उनमें जिस प्रकार मादक शक्ति का कुछ अंश बना रहता है उस प्रकार शरीर के अंगों को पृथक-पृथक् करनेपर उनमें चैतन्य शक्ति का कुछ अंश नहीं रहता इससे सिद्ध होता है कि चैतन्य शरीर के अंगों का धर्म नहीं है, किंतु उनसे पृथक् द्रव्य है ॥25॥ जो पृथिवी आदि चार भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति मानते हैं उनके मत में बालू आदि से तेल को उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति क्यों नहीं मान ली जाती है ? भावार्थ― जिस प्रकार बालू आदि से तेल की उत्पत्ति और अभिव्यक्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति और अभिव्यक्ति नहीं हो सकती ॥26॥
यह जीव इस संसार में अनादि निधन है, निज कर्म से परवश हुआ यह यहाँ दूसरी गति से आता है और कर्म के परवश हुआ दूसरी गति को जाता है ॥27॥ जितना यह प्रत्यक्ष गोचर दिखाई देता है इतना ही जीव है― अतीत अनागत काल में इसकी संतति नहीं चलती इत्यादि कथन निज-पर का अहित करनेवाले जीवों का ही विरुद्ध कथन है ॥28॥ क्षण-क्षण में जो संविद् (ज्ञान) उत्पन्न होता है उतना ही आत्मा है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि संवित्ति को क्षणिक मान लेने पर आगे-पीछे की कड़ी जोड़ने वाली बुद्धि का लोप हो जायेगा और उसके लोप होनेपर लेने-देने तथा कर्ता-कर्म आदि व्यवहार का हो लोप हो जायेगा ॥29॥ इससे सिद्ध होता है कि यह जीव स्वयं द्रव्यरूप है, ज्ञाता है, द्रष्टा है, कर्ता है, भोक्ता है, कर्मों का नाश करने वाला है, उत्पाद-व्ययरूप है, सदा गुणों से सहित है, असंख्यात प्रदेशी है, संकोच विस्ताररूप है, अपने शरीर प्रमाण है और वर्णादि बीस गुणों से रहित है ॥30-31॥ न यह आत्मा सावां के कण के बराबर है, न आकाश के बराबर है, न परमाणु के बराबर है, न अंगूठा के पोरा के बराबर है और न पांच सौ योजन प्रमाण है ॥32॥ यदि आत्मा को सावां के कण, अंगुष्ठ-पर्व अथवा परमाणु के समान छोटा माना जायेगा तो आत्मा प्रत्येक शरीर में उसके खंड-खंड रूप प्रदेशों के साथ ही रह सकेगा, समस्त प्रदेशों के साथ नहीं और इस दशा में जहाँ आत्मा न रहेगा वहाँ की स्पर्शन इंद्रिय अपना कार्य नहीं कर सकेगी । जिस प्रकार चक्षुरादि इंद्रियां शरीर के किसी निश्चित स्थान में ही कार्य कर सकती हैं उसी प्रकार स्पर्शन इंद्रिय भी जहाँ आत्मा होगा वहीं कार्य कर सकेगी सर्वत्र नहीं । इसी प्रकार आत्मा का परिमाण यदि शरीर से अधिक माना जायेगा तो अनेकों योजनों तक जहाँ कि शरीर नहीं है, मात्र आत्मा के प्रदेश हैं, वहाँ सब ओर क्या पदार्थ का स्पर्शन होने लगेगा ? और इस दशा में जिस प्रकार चक्षु के द्वारा योजनों की दूरी तक पदार्थों का अवलोकन होता है उसी प्रकार योजनों की दूरी तक पदार्थ का स्पर्शन भी होने लगेगा और ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनों से विरोध आता है इसलिए शरीर के प्रमाण ही आत्मा को मानना चाहिए । सबका अनुभव भी इसी प्रकार का है ॥33-35॥
वह जीव गति, इंद्रिय, छह काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, सम्यक्त्व, लेश्या, दर्शन, संज्ञित्व, भव्यत्व और आहार इन चौदह मार्गणाओं से खोजा जाता है तथा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुण स्थानों से उसका कथन किया गया है ॥36-37॥ प्रमाण, नय, निक्षेप, सत्, संख्या और निर्देश आदि से संसारी जीव का तथा अनंत ज्ञान आदि आत्मगुणों से मुक्त जीव का निश्चय करना चाहिए ॥38॥ वस्तु के अनेक स्वरूप हैं उनमें से किसी एक निश्चित स्वरूप को ग्रहण करनेवाला ज्ञान नय कहलाता है । इसके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के भेद से दो भेद हैं । इनमें द्रव्यार्थिक नय यथार्थ है और पर्यायार्थिक नय अयथार्थ है ॥39॥ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये ही दो मूल नय हैं तथा दोनों ही परस्पर सापेक्ष माने गये हैं । अच्छी तरह देखे गये नैगम, संग्रह आदि नय इन्हीं दोनों नयों के भेद हैं ॥ 40॥ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं ॥41॥ इनमें प्रारंभ के तीन नय द्रव्यार्थिक नय के भेद हैं और वे सामान्य को विषय करते हैं तथा अवशिष्ट चार नय पर्यायार्थिक नय के भेद हैं और वे विशेष को विषय करते हैं ॥42॥ पदार्थ के संकल्पमात्र को ग्रहण करनेवाला नय नैगम नय कहलाता है । प्रस्थ तथा ओदन आदि इसके स्पष्ट उदाहरण हैं । भावार्थ-जो नय अनिष्पन्न पदार्थ के संकल्पमात्र को विषय करता है वह नैगम नय कहलाता है, जैसे कोई प्रस्थ की लकड़ी लेने के लिए जा रहा है उससे कोई पूछता है कि कहाँ जा रहे हो, तो वह उत्तर देता है कि प्रस्थ लेने जा रहा है । यद्यपि जंगल में प्रस्थ नहीं मिलता है वहाँ से लकड़ी लाकर प्रस्थ बनाया जाता है तथापि नैगम नय संकल्प मात्र का ग्राहक होने से ऐसा कह देता है कि प्रस्थ लेने के लिए जा रहा हूँ । इसी प्रकार कोई ओदन-भात बनाने के लिए लकड़ी, पानी आदि सामग्री इकट्ठी कर रहा है उस समय कोई पूछता है कि क्या कर रहे हो ? तो वह उत्तर देता है कि ओदन बना रहा हूँ । यद्यपि उस समय वह ओदन नहीं बना रहा है तथापि उसका संकल्प है इसलिए नैगम नय ऐसा कह देता है कि ओदन बना रहा हूँ ॥43॥ अनेक भेद और पर्यायों से युक्त पदार्थ को एकरूपता प्राप्त कराकर समस्त पदार्थ का ग्रहण करना संग्रह नय है; जैसे सत् अथवा द्रव्य । भावार्थ-संसार के पदार्थ अनेक रूप हैं उन्हें एकरूपता प्राप्त कराकर सत् शब्द से कहना । इसी प्रकार जीव, अजीव आदि अनेक भेदों से युक्त पदार्थों को द्रव्य इस सामान्य शब्द से कहना यह संग्रह नय है ॥ 44॥
संग्रह नय के विषयभूत सत्ता आदि पदार्थों के विशेष रूप से भेद करना व्यवहार नय है, क्योंकि व्यवहार नय सत्ता के भेद करता-करता उसे अंतिम भेद तक ले जाता है । भावार्थ― जैसे संग्रह नयने जिस सत् को ग्रहण किया था व्यवहार नय कहता है कि वह सत्, द्रव्य और गुण के भेद से दो प्रकार का है । अथवा संग्रह नयने जिस द्रव्य को विषय किया था व्यवहार नय कहता है कि उस द्रव्य के जीव और अजीव के भेद से दो भेद हैं । इस प्रकार यह नय पदार्थ में वहाँ तक भेद करता जाता है जहाँ तक भेद करना संभव है ॥ 45॥
पदार्थ की भूत-भविष्यत् पर्याय को वक्र और वर्तमान पर्याय को ऋजु कहते हैं । जो नय पदार्थ को भूत-भविष्यत् रूप वक्र पर्याय को छोड़कर सरल सूत्रपात के समान मात्र वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्र नय कहलाता है । भावार्थ-इसके सूक्ष्म और स्थूल के भेद से दो भेद हैं । जीव की समय-समय में होने वाली पर्याय को ग्रहण करना सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय का विषय है और देव, मनुष्य आदि बहुसमयव्यापी पर्याय को ग्रहण करना स्थूल ऋजुसूत्रनय का विषय है ॥ 46॥ योगिक अर्थ का धारक होने से शब्द नय, लिंग, साधन-कारक, संख्या-वचन, काल और उपग्रह पद के व्यभिचार को नहीं चाहता अर्थात् लिंग संख्या आदि के भेद से होने वाले दोष को वह सदा दूर करता है । वह व्याकरणशास्त्र के अधीन रहता है । भावार्थ― जैसे लिंग व्यभिचार― ‘पुष्य स्तार का नक्षत्रम्’ यहाँ पुंलिंग पुष्य का, स्त्रीलिंग तार का अथवा नपुंसक लिंग नक्षत्र के साथ संबंध हो जाता है, लिंग भेद होने पर भी विशेषण-विशेष्यभाव में अंतर नहीं आता । साधनव्यभिचार साधन कारक को कहते हैं, इसका उदाहरण सेना पर्वतमधिवसति है । यहाँ पर्वत शब्द अधि करणकारक है अतः उसमें सामान्य नियम के अनुसार सप्तमी विभक्ति आना चाहिए तथापि अधि उपसर्गपूर्वक वस् धातु का प्रयोग होने से कर्मकारक में आने वाली द्वितीया विभक्ति हो गयी फिर भी अर्थ अधिकरणकारक के अनुसार ही―‘सेना पर्वत पर रहती है’ होता है । संख्याव्यभिचार―संख्या वचन को कहते हैं, इसके उदाहरण हैं ‘जलमापो, वर्षाः ऋतुः, आम्राः वनम्, वरणाः नगरम्’ यहाँ पर ‘जलम्’ एकवचन है फिर भी उसका पर्याय ‘आपः’ यह नित्य बहुवचनांत शब्द दिया जा सकता है । ‘वर्षाः’ बहुवचन है और ऋतुः एकवचन है फिर भी इनका विशेष्य विशेषण भाव हो सकता है । इसी प्रकार शेष उदाहरण भी समझ लेना चाहिए ।
कालव्यभिचार― भूत, भविष्यत् और वर्तमान के भेद से काल के तीन भेद हैं इनमें परस्पर विरुद्ध कालों का भी प्रयोग होता है, जैसे ‘विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता’ यह उदाहरण है । यहाँ विश्वदृश्वा का अर्थ होता है ‘विश्वं दृष्टवान्’ इति विश्वदृश्वा― जिसने विश्व को देख लिया परंतु यहाँ पर विश्वदृश्वा इस भूतकालिक कर्म का जनिता इस भविष्यत्कालिक क्रिया के साथ संबंध जोड़ा गया है । उपग्रहव्यभिचार― आत्मनेपद, परस्मैपद आदि पदों को उपग्रह कहते हैं । शब्दनय परस्मै पद के स्थानपर आत्मनेपद और आत्मनेपद के स्थानपर परस्मैपद के प्रयोग को जो कि व्याकरण के अनुसार होता है स्वीकृत कर लेता है । जैसे तिष्ठति, संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, रमते, विरमति, उपर मति आदि । यहाँ ‘तिष्ठति’ में परस्मैपद का प्रयोग होता है परंतु सम् और प्र उपसर्ग लग जाने से संतिष्ठते तथा प्रतिष्ठते में आत्मनेपद हो गया । रमते यह आत्मनेपद का प्रयोग है परंतु विर मति में वि उपसर्ग और ‘उपरमति’ में उप उपसर्ग लग जाने से परस्मैपद प्रयोग हो जाता है । लिंगादि के व्यभिचार के समान शब्दनय पुरुष व्यभिचार को भी नहीं मानता जैसे ‘एहि मन्ये रथेन यास्यति, नहि यास्यति, यातस्ते पिता’― यहाँ पर ‘मन्यसे’ इस मध्यमपुरुष के बदले हास्य में मन्ये इस उत्तमपुरुष का प्रयोग किया गया है । तात्पर्य यह है कि शब्दनय व्याकरण के नियमों के अधीन है, अतः वह सामान्य नियमों के विरुद्ध प्रयोग होने से आने वाले दोष को स्वीकृत नहीं करेगा ॥47॥
जो शब्दभेद होने पर अर्थभेद स्वीकृत करता है अर्थात् एक पदार्थ के लिए अनेक पर्यायात्मक शब्द प्रयुक्त होने पर उनके पृथक्-पृथक् अर्थ को स्वीकृत करता है वह समभिरूढ़नय है, जैसे लोक में देवेंद्र के लिए इंद्र, शक्र और पुरंदर शब्द का प्रयोग आता है परंतु समभिरूढ़नय इन सबके पृथक्-पृथक् अर्थ को ग्रहण करता है । वह कहता है कि जो परम ऐश्वर्य का अनुभव करता है वह इंद्र है, जो शक्ति संपन्न है वह शक्र है और जो पुरों का विभाग करने वाला है वह पुरंदर है, इसलिए इन भिन्न-भिन्न पर्याय शब्दों से सामान्य देवेंद्र का ग्रहण न कर उसकी भिन्न-भिन्न विशेषताओं का ग्रहण करता है । अथवा जो नाना अर्थों का उल्लंघन कर एक अर्थ को मुख्यता से ग्रहण करता है वह समभिरूढनय है, जैसे गो शब्द कोश में वचन आदि अनेक अर्थो में प्रसिद्ध है किंतु लोक में वह अधिकता से पशु अर्थ में ही प्रयुक्त होता है । अथवा जो शब्द के निरुक्त-प्रकृति-प्रत्यय के संयोग से सिद्ध होनेवाले अर्थ को न मानकर उसके चालू वाच्यार्थ को ही मानता है वह समभिरूढनय है, जैसे गौ शब्द का निरुक्त अर्थ गच्छतीति गौः जो चले वह है, परंतु लोक में इस अर्थ की उपेक्षा कर पशु विशेष को गौ कहते हैं, वह चलती हो तब भी गौ है और बैठी या खड़ी हो तब भी गौ है ॥48॥
जो पदार्थ जिस क्षण में जैसी क्रिया करता है उसी क्षण में उसको उसरूप कहना, अन्य क्षण में नहीं, यह एवंभूतनय है । यह नय पदार्थ के यथार्थस्वरूप को कहता है जैसे ‘इंदतीतिइंद्रः’ जिस समय इंद्र ऐश्वर्य का अनुभव करता है उसी समय इंद्र कहलाता है अन्य समय में नहीं ॥49॥
द्रव्य की अनंत शक्तियां हैं । ये सातों नय प्रत्येक शक्ति के भेदों को स्वीकृत करते हुए उत्तरोत्तर सूक्ष्म पदार्थ को ग्रहण करते हैं ॥50॥ इन नयों में कितने ही नय अर्थप्रधान हैं और कितने ही शब्दप्रधान हैं, इसलिए प्रारंभ से लेकर शब्दनय तक पांच प्रकार के नय और संग्रह को आदि लेकर अंत तक छह प्रकार के नय अर्थात् नेगमादि सातों नयों में प्रत्येक सैकड़ों प्रकार के हैं ॥51॥ क्योंकि जितने वचन के मार्ग-भेद हैं उतने नय हैं इसलिए नय इतने हैं । इस प्रकार यथार्थ में नयों की संख्या निश्चित नहीं है ॥52॥
धर्म, अधर्म, आकाश, पुद̖गल और काल ये पांचों अजीव तत्त्व हैं तथा सम्यग्दर्शन के विषय भूत हैं ॥53 ॥ इनमें से धर्म और अधर्म द्रव्य क्रम से गति और स्थिति के निमित्त हैं अर्थात् धर्म द्रव्य जीव और पुद̖गल के गमन में निमित्त है तथा अधर्म द्रव्य उन्हीं की स्थिति में निमित्त है । आकाश, जीव और अजीव दोनों द्रव्यों के अवगाह में निमित्त है ॥54॥ पुद̖गल द्रव्य पूरण गलन क्रिया करता हुआ वर्णादि अनेक गुणों से युक्त है । उसके दो भेद हैं, स्कंध और परमाणु । बहुत से परमाणुओं के संयोग से स्कंध बनता है और स्कंध में भेद होते-होते परमाणु की उत्पत्ति होती है ॥55॥ जो वर्तना लक्षण से सहित है वह काल द्रव्य है । इसके समय आदि अनेक भेद हैं । परिवर्तनरूप धर्म से सहित होने के कारण काल द्रव्य परत्व और अपरत्व व्यवहार से युक्त है ॥56॥
काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं । वह योग ही आस्रव कहलाता है । उसके शुभ और अशुभ के भेद से दो भेद हैं । उनमें शुभयोग शुभास्रव का और अशुभयोग अशुभास्रव का कारण है ॥ 57॥ आस्रव के स्वामी दो हैं-सकषाय ( कषायसहित ) और अकषाय ( कषाय रहित ) । इसी प्रकार आस्रव के दो भेद हैं-सांपरायिक आस्रव और ईर्यापथ आस्रव । मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर सूक्ष्म कषाय गुणस्थान तक के जीव सकषाय हैं और वे प्रथम सांपरायिक आस्रव के स्वामी हैं तथा उपशांतकषाय को आदि लेकर सयोगकेवली तक के जीव अकषाय हैं और ये अंतिम ईर्यापथ आस्रव के स्वामी हैं । [ चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली भी अकषाय हैं परंतु उनके योग का अभाव हो जाने से आस्रव नहीं होता ] ॥58-59 ॥ पाँच इंद्रियाँ, चार कषाय, हिंसा आदि पाँच अव्रत और पचीस क्रियाएं ये सांपरायिक आस्रव के द्वार हैं ॥60 ॥ इनमें पांच इंद्रियाँ, चार कषाय और पाँच अव्रत प्रसिद्ध हैं, अतः इन्हें छोड़कर पचीस क्रियाओं का स्वरूप कहते हैं । प्रतिमा, शास्त्र, अर्हंत देव तथा सच्चे गुरु आदि की पूजा, भक्ति आदि करना सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली सम्यक्त्वक्रिया है ॥ 61 ॥ पाप के उदय से अन्य देवताओं की स्तुति आदि में प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व को बढ़ाने वाली मिथ्यात्व क्रिया है ॥62॥ गमनागमनादि में प्रवृत्ति करना सो प्रायः असंयम को बढ़ाने वाली प्रयोग क्रिया है ॥ 63 ॥ संयमी पुरुष का प्रायः असंयम की ओर सम्मुख होना प्रमाद को बढ़ाने वाली समादान क्रिया है ॥ 64॥ जो क्रिया ईर्यापथ में निमित्त है वह ईर्यापथ क्रिया है । ये पांच क्रियाएँ सांपरायिक आस्रव की हेतु हैं ॥65 ॥
क्रोध के आवेश से जो क्रिया होती है वह प्रादोषिकी क्रिया है । दोष से भरा मनुष्य जो उद्यम करता है वह कायिकी क्रिया है ॥66 ॥ हिंसा के उपकरण-शस्त्र आदि के ग्रहण से जो क्रिया होती है वह तब उसके दर्शन क्रिया होती है ॥69॥ वही मनुष्य जब अत्यधिक प्रमादी बन स्पर्श करने योग्य पदार्थ का बार-बार चिंतन करता है तब कर्मबंध में कारणभूत स्पर्शन क्रिया होती है ꠰꠰70॥ पाप के नये-नये कारण उत्पन्न करने से पाप का आस्रव करने वाली जो क्रिया होती है वह प्रत्यायिकी क्रिया कही गयी है ॥71॥ स्त्री-पुरुष और पशुओं के मिलने-जुलने आदि के योग्य स्थानपर शरीर-संबंधी मल-मूत्रादि को छोड़ना समंतानुपातिनी क्रिया है । यह क्रिया साधुजनों के अयोग्य है ॥72॥ बिना शोधी, बिना देखी भूमि पर शरीरादि का रखना अनाभोग क्रिया है । ये पाँचों ही क्रियाएं दुष्क्रियाएं कहलाती हैं ॥73॥ दूसरे के द्वारा करने योग्य क्रिया को स्वयं अपने हाथ से करना यह पूर्वोक्त आस्रव को बढ़ाने वाली स्वहस्तक्रिया है ॥ 74॥ पापोत्पादक वृत्तियों को स्वयं अच्छा समझना निसर्गक्रिया है, यह स्वभाव से ही आस्रव को बढ़ाने वाली है ॥75 ॥ दूसरे के द्वारा आचरित पापपूर्ण क्रियाओं का प्रकट करना यह दूसरे की बुद्धि को विदारण करने वाली विदारण क्रिया है ॥76 ॥ आगम की आज्ञा के अनुसार आवश्यक आदि क्रियाओं के करने में असमर्थ मनुष्य का मोह के उदय से उनका अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है ॥77॥ अज्ञान अथवा आलस्य के सहित होने के कारण शास्त्रोक्त विधियों के करने में अनादर करना अनाकांक्षा क्रिया है, इस प्रकार ये पाँच क्रियाएँ हैं ॥78॥
दूसरों के द्वारा किये जानेवाले आरंभ में प्रमादी होकर स्वयं हर्ष मानना अथवा छेदन-भेदन आदि क्रियाओं में अत्यधिक तत्पर रहना प्रारंभ क्रिया है ॥ 79 ॥ परिग्रह में तत्पर जो क्रिया है वह पारिग्रहिकी क्रिया है । ज्ञान, दर्शन आदि के विषय में जो छलपूर्ण प्रवृत्ति है वह माया क्रिया है ॥ 80॥ प्रोत्साहन आदि के द्वारा दूसरे को मिथ्यादर्शन के प्रारंभ करने तथा उसके दृढ़ करने में तत्पर जो क्रिया है वह मिथ्यादर्शन क्रिया है ॥ 81 ॥ कर्मोदय के वशीभूत होने से पाप से निवृत्ति नहीं होना अप्रत्याख्यान क्रिया है । इस प्रकार आस्रव को बढ़ाने वाली ये पाँच क्रियाएं हैं । इस प्रकार पाँच-पाँच के पचीस क्रियाओं का वर्णन किया ॥82 ॥
जीवों के परिणाम मंद, मध्य और तीव्र होते हैं इसलिए हेतु में भेद होने से आस्रव भी मंद, मध्यम और तीव्र होता है ॥43॥ जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण के भेद से आस्रव के दो भेद हैं । जीवाधिकरण आस्रव के मूल में तीन भेद हैं― 1 संरंभ, 2 समारभ्भ और 3 आरंभ । इनमें से प्रत्येक के कृत, कारित, अनुमोदना― तीन, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तीन और क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषाय-चार इनसे परस्पर गुणित होनेपर छत्तीस-छत्तीस भेद होते हैं । तीनों के मिलाकर एक सौ आठ भेद हो जाते हैं । भावार्थ― किसी कार्य के करने का मन में विचार करना संरंभ है । उसके साधन जुटाना समारंभ है और कार्यरूप में परिणत करना आरंभ है । स्वयं कार्य करना कृत है, दूसरे से कराना कारित है और कोई करे उसमें हर्ष मानना अनुमति है । मन से किसी कार्य का विचार करना मनोयोग है, वचन से प्रकट करना वचनयोग है और काय से कार्य करना काययोग है । क्रोध कषाय से प्रेरित हो किसी कार्य को करना क्रोध कषाय है, मान से प्रेरित हो करना मान कषाय है, माया से प्रेरित हो करना माया कषाय है और लोभ से प्रेरित होकर करना लोभकषाय है । मूल में संरंभ आदि के भेद से आस्रव तीन प्रकार का होता है, इनमें से प्रत्येक का भेदकृत, कारित अनुमोदना को अपेक्षा तीन प्रकार का होता है, फिर यही तीन भेद तीन योग के निमित्त से होते हैं, इसलिए तीन का तीन में गुणा करने पर नौ भेद होते हैं । तदनंतर यही नौ भेद क्रोधादि कषाय की अपेक्षा चार-चार प्रकार के होते हैं इसलिए नौ में चार का गुणा करने पर छत्तीस भेद होते हैं । छत्तीस भेद संरंभ के, छत्तीस समारंभ के और छत्तीस आरंभ के, तीनों को मिलाकर एक सौ आठ भेद होते हैं । अथवा दूसरी तरह से संरंभादि तीन में कृत, कारितादि का गुणा करने पर नौ भेद हुए, उनमें तीन योग का गुणा करने पर सत्ताईस हुए और उसमें क्रोधादि चार कषाय का गुणा करने पर एक सौ आठ भेद होते हैं । ये सब परिणाम जीवकृत हैं अतः इन्हें जीवाधिकरण आस्रव कहते हैं ॥ 84-85 ॥ दो प्रकार की निर्वर्तना, चार प्रकार का निक्षेप, दो प्रकार का संयोग और तीन प्रकार का निसर्ग ये अजीवाधिकरण आस्रव के भेद हैं ॥86॥ मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना के भेद से निर्वर्तना के दो भेद हैं । शरीर, वचन, मन तथा श्वासोच्छ̖वास आदि की रचना होना मूलगुण निर्वर्तना है और काष्ठ, पाषाण, मिट्टी आदि से चित्राम आदि का बनाना उत्तरगुण निर्वर्तना है ॥87॥ सहसा निक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमुष्ट निक्षेपाधिकरण, अनाभोग निक्षेपाधिकरण और अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण इन चार भेदों से निक्षेपाधिकरण चार प्रकार का होता है । शीघ्रता से किसी वस्तु को रख देना सहसानिक्षेप है । दुष्टता पूर्वक साफ की हुई भूमि में किसी वस्तु को रखना दुष्प्रमृष्ट निक्षेप है । अव्यवस्था के साथ चाहे जहाँ किसी वस्तु को रख देना अनाभोग निक्षेप है और बिना देखी-शोधी भूमि में किसी वस्तु को रख देना अप्रत्यवेक्षित निक्षेप है ॥88॥ भक्तपान संयोग और उपकरण संयोग के भेद से संयोगाधिकरण आस्रव दो प्रकार का कहा गया है । भोजन और पान को अन्य भोजन तथा पान में मिलाना भक्तपान संयोग है तथा बिना विवेक के उपकरणों का परस्पर मिलना उपकरण संयोग है जैसे शीतस्पर्शयुक्त पीछी से घाम में संतप्त कर्मंडलु का सहसा पोंछना आदि ॥ 89 ॥ वानिसर्ग, मनोनिसर्ग और कायनिसर्ग के भेद से निसर्गाधिकरण आस्रव तीन रूपता को प्राप्त होता है । वचन को स्वच्छंद प्रवृत्ति को वा निसर्ग कहते हैं, मन की स्वच्छंद प्रवृत्ति को मनोनिसर्ग कहते हैं और काय को स्वच्छंद प्रवृत्ति को काय निसर्ग कहते हैं ॥90॥ इस प्रकार यह सामान्य रूप से कौरवों का भेद कहा । अब ज्ञानावरणादि के भेद से युक्त विशिष्ट कर्मो के आस्रव का भेद कहा जाता है ॥91॥ ज्ञान के विषय में किये हुए प्रदोष, निह्नव, आदान, विघ्न, आसादन और दूषण ज्ञानावरण के आस्रव हैं और दर्शन के विषय में किये हुए प्रदोष आदि दर्शनावरण के आस्रव हैं । मोक्ष के साधनभूत तत्त्वज्ञान का निरूपण होनेपर कोई मनुष्य चुपचाप बैठा है परंतु भीतर ही भीतर उसका परिणाम कलुषित हो रहा है इसे प्रदोष कहते हैं । किसी कारण से मेरे पास नहीं है अथवा मैं नहीं जानता हूँ इत्यादि रूप से ज्ञान को छिपाना निह्नव है । मात्सर्य के कारण देने योग्य ज्ञान भी दूसरे को नहीं देना सो अदान है । ज्ञान में अंतराय डाल देना विघ्न है । दूसरे के द्वारा प्रकाश में आने योग्य ज्ञान को काय और वचन से रोक देना आसादन है और प्रशस्त ज्ञान में दोष लगाना दूषण है ॥ 92॥
वेदनीय कर्म के दो भेद हैं― 1 असातावेदनीय और 2 सातावेदनीय । इनमें से निज, पर और दोनों के विषय में होनेवाले दुःख, शोक, वध, आक्रंदन, ताप और परिदेवन ये असाता वेदनीय के आस्रव हैं । पीड़ारूप परिणाम को दुःख कहते हैं । अपने उपकारक पदार्थों का संबंध नष्ट हो जाने पर परिणामों में विकलता उत्पन्न होना शोक है । आयु, इंद्रिय तथा बल आदि प्राणों का वियोग करना वध है । संताप आदि के कारण अश्रुपात करते हुए रोना आक्रंदन है । लोक में अपनी निंदा आदि के फैल जाने से हृदय में तीव्र पश्चात्ताप होना ताप है । और उपकारी का वियोग होनेपर उसके गुणों का स्मरण तथा कीर्तन करते हुए इस तरह विलाप करना जिससे सुननेवाले दयार्द्र हो जावें उसे परिदेवन कहते हैं ॥93॥ समस्त प्राणियों पर दया करना, व्रती जनों पर अनुराग रखना, सरागसंयम, दान, क्षमा, शौच, अर्हंत भगवान् की पूजा में तत्पर रहना और बालक तथा वृद्ध तपस्वियों की वैयावृत्ति आदि करना सातावेदनीय के आस्रव हैं ॥94-95 ॥
केवली, श्रुत, संघ, धर्म तथा देव का अवर्णवाद करना― झूठे दोष लगाना दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव के हेतु कहे गये हैं । केवली कवलाहार से जीवित रहते हैं इत्यादि असद्भूत दोषों का निरूपण करना केवली का अवर्णवाद है । शास्त्र में मांसभक्षण आदि निषिद्ध कार्यों का उल्लेख है इत्यादि कहना श्रुत का अवर्णवाद है । ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों का समूह संघ कहलाता है― इनके दोष कहना अर्थात् ये शरीर से अपवित्र हैं, शूद्र-तुल्य हैं, नास्तिक हैं, आदि कहना संघ का अवर्णवाद है । जिनेंद्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ धर्म निर्गुण है और उसके पालन करने वाले असुर होते हैं इत्यादि कहना धर्म का अवर्णवाद है और देव मांस-मदिरा का सेवन करते हैं, इत्यादि कहना देव का अवर्णवाद है ॥ 96 ॥ कषाय के उदय से जो तीव्र परिणाम होता है वह चारित्रमोह के नाना प्रकार के आस्रवों का कारण है ॥ 97॥
चारित्रमोहनीय के कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय की अपेक्षा दो भेद हैं । इनमें से निज तथा पर को कषाय उत्पन्न कर उद्धत वृत्ति का धारण करना तथा तपस्विजनों के सम्यक्̖चारित्र में दूषण लगाना कषायवेदनीय के आस्रव हैं । धर्म का उपहास आदि करने से हास्यरूप स्वभाव का होना अर्थात् धर्म की हंसी उड़ाकर प्रसन्नता का अनुभव करना हास्य अकषायवेदनीय का आस्रव है ॥98-100꠰। दूसरों को अरति उत्पन्न करना, रति को नष्ट करना और दुष्ट स्वभाव के धारक जनों की सेवा करना रति नामक अकषायवेदनीय के आस्रव हैं ॥101॥ अपने-आपको शोक उत्पन्न करना तथा दूसरों के शोक की वृद्धि देख प्रसन्नता का अनुभव करना शोक अकषायवेदनीय के आस्रव हैं ॥102॥ दूसरों को भय उत्पन्न करना तथा अपने भय की चिंता करना भय अकषावेदनीय के आस्रव हैं ॥ 103 ॥ उत्तम आचरण करने वाले मनुष्यों के आचार में ग्लानि करना तथा उनकी निंदा करना जुगुप्सा अकषायवेदनीय का आस्रव है ॥104॥ दूसरे को धोखा देने में अत्यधिक तत्पर रहना, असत्य बोलना तथा राग की अधिकता होना स्त्री अकषायवेदनीय के आस्रव हैं ॥105॥ नम्रता से सहित होना, क्रोध की न्यूनता होना और अपनी स्त्री में संतोष रखना ये संसार में पुंवेद अकषायवेदनीय के आस्रव माने गये हैं ॥106॥ कषायों की प्रचुरता होना, गुह्य अंगों का छेदन करना तथा परस्त्री में आसक्ति रखना ये नपुंसक अकषायवेदनीय के आस्रव हैं ॥ 107॥
बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह रखना नरकायु का आस्रव है । मायाचार तिर्यंच आयु का आस्रव है ॥ 108॥ थोड़ा आरंभ और थोड़ा परिग्रह रखने से मनुष्य आयु का आस्रव होता है । संतोष धारण करते हुए अव्रत अवस्था होना तथा स्वभाव से कोमल परिणामी होना भी मनुष्यायु के आस्रव हैं ॥109॥ सम्यग्दर्शन, व्रतीपना, बालतप तथा अकामनिर्जरा ये देवायु के आस्रव हैं ॥110॥
अपने योगों की कुटिलता और दूसरों के साथ विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं और अपने योगों की सरलता तथा विसंवाद का अभाव होना शुभ नाम का आस्रव है ॥111 ॥ नामकर्म का विशेष भेद जो तीर्थंकर प्रकृति है उसके आस्रव, अत्यंत निर्मलता को प्राप्त दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाएं हैं ॥112॥ दूसरों के विद्यमान गुणों को छिपाना, अपनी प्रशंसा करना तथा अपने अविद्यमान गुणों का कथन करना ये नीचगोत्रकर्म के आस्रव हैं ॥113 ॥ विनयपूर्ण प्रवृत्ति करना तथा अहंकार नहीं करना उच्चगोत्र के आस्रव हैं और दान आदि में विघ्न करना अंतरायकर्म के आस्रव हैं ॥ 114 ॥
पुण्यकर्म का जो शुभास्रव होता है उसका सामान्यरूप से वर्णन ऊपर किया जा चुका है । शिक्षाव्रत अब उसकी विशेष प्रतीति के लिए यह प्रतिपादन किया जा रहा है ॥115 ॥ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और अपरिग्रह इन पाँच पापों से विरक्त होना सो व्रत है । वह व्रत अणुव्रत और महाव्रत के भेद से दो प्रकार का है । उक्त पापों से एकदेश विरत होना अणुव्रत है और सर्वदेश विरत होना महावत है ॥116॥ महाव्रत और अणुव्रत से युक्त मनुष्यों को अपने व्रत में स्थिर रखने के लिए उक्त पांचों व्रतों में प्रत्येक की पाँच-पांच भावनाएं कही जाती हैं ॥117॥ सम्यक् वचनगुप्ति, सम्यग्मनोगुप्ति, भोजन के समय देखकर भोजन करना ( आलोकितपान भोजन), ईर्या- समिति और आदाननिक्षेपण समिति ये पांच अहिंसा व्रत की भावनाएँ हैं ॥118॥ अपने क्रोध, लोभ, भय और हास्य का त्याग करना तथा प्रशस्त वचन बोलना (अनुवीचिभाषण) ये पांच सत्यव्रत को भावनाएं हैं ॥119॥ शून्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोवाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये पांच अचौर्य व्रत की भावनाएं हैं ॥120॥ स्त्री-रागकथा श्रवण त्याग, अर्थात् स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं के सुनने का त्याग करना, उनके मनोहर अंगों के देखने का त्याग करना, शरीर की सजावट का त्याग करना, गरिष्ठ रस का त्याग करना एवं पूर्व काल में भोगे हुए रति के स्मरण का त्याग करना ये पाँच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएँ हैं ॥ 121॥ पंच इंद्रियों के इष्ट अनिष्ट विषयों में यथायोग्य राग-द्वेष का त्याग करना ये पांच अपरिग्रह व्रत की भावनाएं हैं ॥122 ॥ बुद्धिमान् मनुष्यों को व्रतों की स्थिरता के लिए यह चिंतवन भी करना चाहिए कि हिंसादि पाप करने से इस लोक तथा परलोक में नाना प्रकार के कष्ट और पापबंध होता है ॥123 ॥ अथवा नीति के जानकार पुरुषों को निरंतर ऐसी भावना करनी चाहिए कि ये हिंसा आदि दोष दुःख रूप ही हैं । यद्यपि ये दुःख के कारण हैं दुःखरूप नहीं परंतु कारण और कार्य में अभेद विवक्षा से ऐसा चिंतवन करना चाहिए ॥124॥ मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य ये चार भावनाएं क्रम से प्राणी-मात्र, गुणाधिक, दुःखी और अविनेय जीवों में करना चाहिए । भावार्थ-किसी जीव को दुःख न हो ऐसा विचार करना मैत्री भावना है । अपने से अधिक गुणी मनुष्यों को देखकर हर्ष प्रकट करना प्रमोद भावना है । दुःखी मनुष्यों का देखकर हृदय में दयाभाव उत्पन्न होना करुणा भावना है और अविनेय मिथ्यादृष्टि जीवों में मध्यस्थ भाव रखना माध्यस्थ्य भावना है ॥125 ॥ अपनी आत्मा में संवेग और वैराग्य उत्पन्न करने के लिए संसार से भयभीत रहनेवाले विचारक मनुष्यों को सदा संसार और शरीर के स्वभाव का चिंतवन करना चाहिए ॥126 ॥
इस संसार में प्राणियों के लिए यथासंभव इंद्रियादि दश प्राण प्राप्त हैं । प्रमादी बनकर उनका विच्छेद करना सो हिंसापाप है ॥127॥ प्राणियों के दुःख का कारण होने से प्रमादी मनुष्य जो किसी के प्राणों का वियोग करता है वह अधर्म का कारण है― पापबंध का निमित्त है परंतु समितिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले प्रमादरहित जीव के कदाचित् यदि किसी जीव के प्राणों का वियोग हो जाता है तो वह उसके लिए बंध का कारण नहीं होता है ॥128॥ प्रमादी आत्मा अपनी आत्मा का अपने-आपके द्वारा पहले घात कर लेता है पीछे दूसरे प्राणियों का वध होता भी है और नहीं भी होता है ॥129॥ विद्यमान अथवा अविद्यमान वस्तु को निरूपण करने वाला प्राणि-पीड़ा कारक वचन असत्य अथवा अनृत वचन कहलाता है । इसके विपरीत जो वचन प्राणियों का हित करने वाला है वह ऋतु अथवा सत्य वचन कहलाता है ॥130॥ बिना दी हुई वस्तु का स्वयं ले लेना चोरी कही जाती है । परंतु जहाँ संक्लेश परिणाम पूर्वक प्रवृत्ति होती है वहीं चोरी होती है ॥131॥ जिसमें अहिंसादि गुणों की वृद्धि हो वह वास्तविक ब्रह्मचर्य है । इससे विपरीत संभोग के लिए स्त्री-पुरुषों की जो चेष्टा है वह अब्रह्म है ॥132॥ गाय, घोड़ा, मणि, मुक्ता आदि चेतन, अचेतनरूप बाह्य धन में तथा रागादिरूप अंतरंग विकार में ममता भाव रखना परिग्रह है । यह परिग्रह छोड़ने योग्य है ॥133॥ इन हिंसादि पाँच पापों से विरत होना सो अहिंसा आदि पाँच व्रत हैं । ये व्रत महाव्रत और अणुव्रत के भेद से दो प्रकार के हैं तथा जिसके ये होते हैं वह व्रती कहलाता है ॥ 134॥ व्रत का संबंध रहने पर भी जो निःशल्य होता है वही व्रती माना गया है । माया, निदान और मिथ्यात्व के भेद से शल्य तीन प्रकार की है । यह शल्य, शल्य अर्थात् कांटों के समान दुःख देने वाली है ॥135॥
सागार और अनगार के भेद से व्रती दो प्रकार के माने गये हैं । इनमें अणुव्रतों के धारी सागार कहलाते हैं और महाव्रतों के धारक महाव्रती कहे जाते हैं ॥136॥ जो मनुष्य राग-भाव में स्थित है वह किसी तरह वन में रहने पर भी सागार-गृहस्थ है और जिसका रागभाव दूर हो गया है वह घर में रहने पर भी अनगार है ॥137 ॥ त्रस और स्थावर के भेद से जीव दो प्रकार के हैं । इनमें से त्रसकायिक जीवों के विघात से विरत होना पहला अहिंसाणुव्रत कहा गया है ॥138॥ जिसमें राग, द्वेष, मोह से प्रेरित हो पर-पीड़ा कारक असत्यवचन से विरति होती है वह दूसरा सत्याणुव्रत है ॥139॥ दूसरे का गिरा-पडा या भुला हुआ द्रव्य चाहे अधिक हो चाहे थोड़ा, बिना दी हुई दशा में उसको नहीं लेना तीसरा अचौर्याणुव्रत है ॥140॥ परस्त्रियों में राग छोड़कर अपनी स्त्रियों में ही जो संतोष होता है वह चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत है ॥141॥ सुवर्ण, दास, गृह तथा खेत आदि पदार्थों का बुद्धिपूर्वक परिमाण कर लेना इच्छा परिमाण नाम का पाँचवाँ अणुव्रत है ॥ 142 ॥
पाँच अणुव्रतों के धारक सद̖गृहस्थ के तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत भी होते हैं ॥143 ॥ दिशाओं और विदिशाओं में प्रसिद्ध चिह्नों द्वारा की हुई अवधि का उल्लंघन नहीं करना सो दिग्व्रत नाम का पहला गुणव्रत है ॥ 144॥ दिग्व्रत के भीतर यावज्जीवन के लिए किये हुए बृहत् परिमाण के अंतर्गत कुछ समय के लिए जो ग्राम-नगर आदि की अवधि की जाती है उससे बाहर नहीं जाना सो देशव्रत नाम का दूसरा गुणव्रत है ॥ 145॥ पापोपदेश, अपध्यान, प्रमादाचरित, हिंसादान और दुःश्रुति ये पाँच प्रकार के अनर्थदंड हैं । जो पाप के उपदेश का कारण है वह अपकार करने वाला अनर्थदंड है उससे विरत होना सो अनर्थदंड-त्याग नाम का तीसरा गुणव्रत है ॥ 146-147 ॥ वणिक् तथा वधक आदि के सावद्य कार्यों में आरंभ कराने वाले जो पाप पूर्ण वचन हैं वह पापोपदेश अनर्थदंड है ॥148॥ अपनी जय, दूसरे की पराजय तथा वध, बंधन एवं धन का हरण आदि किस प्रकार हो ऐसा चिंतन करना सो अपध्यान है ॥149॥ वृक्षादिक का छेदना, पृथिवी का कूटना, पानी का सींचना आदि अनर्थक कार्य करना प्रमादाचरित नाम का अनर्थदंड है ॥150॥ विष, कंटक, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, दंड तथा कोड़ा आदि हिंसा के उपकरणों का देना सो हिंसादान नाम का अनर्थदंड है ॥151॥ हिंसा तथा रागादि को बढ़ाने वाली दुष्ट कथाओं के सुनने तथा दूसरों को शिक्षा देने में जो पापबंध के कारण एकत्रित होते हैं वह पाप से युक्त दुःश्रुति नाम का अनर्थदंड है ॥152 ॥
देवता के स्मरण में स्थित पुरुष के सुख-दुःख तथा शत्रु-मित्र आदि में जो माध्यस्थ्य भाव की प्राप्ति है उसे सामायिक नाम का पहला शिक्षाव्रत जानना चाहिए ॥153॥ दो अष्टमी चतुर्दशी इन चार पर्व के दिनों में निरारंभ रहकर चार प्रकार के आहार का त्याग करना सो प्रोषधोपवास नाम का दूसरा शिक्षाव्रत है । जिसमें इंद्रियां बाह्य-संसार से हटकर आत्मा के समीप वास करती हैं वह उपवास कहलाता है॥154॥ गंध माला अन्न, पान आदि उपभोग हैं और आसन आदिक परिभोग हैं । पास जाकर जो भोगा जाता है वह उपभोग कहलाता है और जो एक बार भोगकर छोड़ दिया जाता है तथा पुनः भोगने में आता है वह परिभोग कहलाता है । जिसमें उपभोग तथा परिभोग का यथाशक्ति परिमाण किया जाता है वह उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत है ॥155-156 ॥ मांस, मदिरा, मधु, जुआ, वेश्या तथा रात्रिभोजन से विरत होना एवं काम आदि जीवों का त्याग करना सो नियम कहलाता है ॥ 157॥ जो संयम की वृद्धि के लिए निरंतर भ्रमण करता रहता है वह अतिथि कहलाता है उसे शुद्धिपूर्वक आगमोक्त विधि से आहार आदि देना अतिथिसंविभाग व्रत है ॥ 158॥ भिक्षा, औषध, उपकरण और आवास के भेद से अतिथि संविभाग चार प्रकार का कहा गया है ॥159 ॥ मृत्यु के कारण उपस्थित होनेपर बहिरंग में शरीर और अंतरंग में कषायों का अच्छी तरह कृश करनी सल्लेखना कहलाती है । व्रती मनुष्य को मरणांतकाल में यह सल्लेखना अवश्य ही करनी चाहिए ॥160॥ जब अंत अर्थात् मरण का किसी तरह परिहार न किया जा सके तब रागादि को अनुत्पत्ति के लिए आगमोक्त मार्ग से सल्लेखना करना उचित माना गया है ॥ 161 ॥
निःशंकित आदि आठ अंगों के विरोधी शंका, कांक्षा आदि आठ दोष सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं । सत्पुरुषों को इनका त्याग अवश्य ही करना चाहिए ॥ 162 ॥ पाँच अणुव्रत तथा सात शीलव्रतों में प्रत्येक के पांच-पाँच अतिचार होते हैं । यहाँ यथाक्रम से उनका वर्णन किया जाता है । तद्-तद् व्रतों के धारक मनुष्यों को उन अतिचारों का अवश्य ही परिहार करना चाहिए ॥163॥ जीवों की गति में रुकावट डालने वाला बंध, दंड आदि से अत्यधिक पीटना, वध, कान आदि अवयवों का छेदना, अधिक भार लादना और भूख आदि की बाधा करने वाला अन्नपान का निरोध ये पांच अहिंसाणुव्रत के अतिचार कहे गये हैं ॥164-165॥ मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया न्यासापहार और साकारमंत्रभेद ये पांच सत्याणुव्रत के अतिचार हैं । किसी को धोखा देना तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त कराने वाली क्रियाओं में दूसरों की अन्यथा प्रवृत्ति कराना मिथ्योपदेश है । स्त्री-पुरुषों की एकांत चेष्टा को प्रकट करना रहोभ्याख्यान है । जो बात दूसरे ने नहीं कही है उसे उसके नाम पर स्वयं लिख देना कूटलेखक्रिया है । कोई मनुष्य धरोहर में रखे हुए धन की संख्या भूलकर उससे स्वल्प ही धन का ग्रहण करता है तो उस समय ऐसे वचन बोलना कि ‘हां इतना ही था ले जाओ’ यह न्यासापहार है । भौंह का चलना आदि चेष्टाओं से दूसरे के रहस्य को जानकर ईर्ष्यावश उसे प्रकट कर देना साकार मंत्रभेद है । मर्यादा के पालक तथा आचार शास्त्र के ज्ञाता मनुष्यों को विचार कर इन अतिचारों का अवश्य ही परिहार करना चाहिए ॥166-170॥ स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार ये पांच अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं । कृत कारित अनुमोदना से चोर को चोरी में प्रेरित करना स्तेनप्रयोग है । चोरों के द्वारा चुराकर लायी हुई वस्तु का स्वयं खरीदना तदाहृता दान है । आक्रमणकर्ता की खरीद होने पर स्वकीय राज्य की आज्ञा का उल्लंघन कर विरुद्ध राज्य में आना-जाना, अपने देश की वस्तुएं वहाँ ले जाकर बेचना विरुद्ध-राज्यातिक्रम नाम का अतिचार है । प्रस्थ आदि मान में भेद और तुला आदि उन्मान में भेद रखकर हीन मानोन्मान से दूसरों को देना और अधिक मानोन्मान से स्वयं लेना हीनाधिक मानोन्मान नाम का अतिचार है । कृत्रिम मिलावट दार सोना, चाँदी आदि के द्वारा दूसरों को ठगना प्रतिरूपक नाम का अतिचार है ॥171-173 ॥ परविवाहकरण, अनंगक्रीड़ा, गृहीतेत्वरिकागमन, अगृहीतेत्वरिकागमन और कामतीव्राभिनिवेश ये पांच स्वदारसंतोषव्रत के अतिचार हैं । प्रयत्नपूर्वक इनका परिहार करना चाहिए । अपनी या अपने संरक्षण में रहने वाली संतान के सिवाय दूसरे की संतान का विवाह कराना परविवाहकरण है । काम-सेवन के लिए निश्चित अंगों के अतिरिक्त अंगों के द्वारा काम सेवन करना अनंगक्रीड़ा है । दूसरे के द्वारा गृहीत व्यभिचारिणी स्त्री के यहाँ जाना गृहीतेत्वरिकागमन है । दूसरे के द्वारा अग्रहीत व्यभिचारिणी स्त्री के यहाँ जाना अगृहीतेत्वरिकागमन है और स्वस्त्री के साथ भी काम सेवन में अधिक लालसा रखना कामतीव्राभिनिवेश है ॥174-175॥ हिरण्य सुवर्ण, वास्तु-क्षेत्र, धन-धान्य, दासी-दास और कुप्य-बर्तन, चाँदी आदि को हिरण्य तथा सोना व सोने के आभूषण आदि को सुवर्ण कहते हैं । रहने के मकान को वास्तु और गेहूँ, चना आदि के उत्पत्ति-स्थानों को क्षेत्र कहते हैं । गाय, भैंस आदि को धन तथा गेहूँ, चना आदि अनाज को धान्य कहते हैं । दासी-दास शब्द का अर्थ स्पष्ट है । बर्तन तथा वस्त्र को कुप्य कहते हैं । इनके प्रमाण का उल्लंघन करना सो हिरण्यसुवर्णातिक्रम आदि अतिचार होते हैं ॥176 ॥
अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, ऊर्ध्वव्यतिक्रम, स्मृत्यंतराधान और क्षेत्रवृद्धि ये पाँच दिग्व्रत के अतिचार हैं । लोभ के वशीभूत होकर नीचे की सीमा का उल्लंघन करना अधोव्यतिक्रम है, समान धरातल की सीमा का उल्लंघन करना तिर्यग्व्यतिक्रम है । ऊपर को सीमा का उल्लंघन करना ऊर्ध्वव्यतिक्रम है । की हुई सीमा को भूलकर अन्य सीमा का स्मरण रखना स्मृत्यंतरा धान है तथा मर्यादित क्षेत्र की सीमा बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है ॥177 ॥ प्रेष्य प्रयोग, आनयन, पुद̖गल क्षेप, शब्दानुपात और रूपानुपात ये पाँच देशव्रत के अतिचार हैं । मर्यादा के बाहर सेवक को भेजना प्रेष्यप्रयोग है । मर्यादा से बाहर किसी वस्तु को बुलाना आनयन है । मर्यादा के बाहर कंकड़-पत्थर आदि का फेंकना पुद̖गलक्षेप है, मर्यादा के बाहर अपना शब्द भेजना शब्दानुपात है और मर्यादा के बाहर काम करने वाले लोगों को अपना रूप दिखाकर सचेत करना रूपानुपात है ॥178॥
कंदर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य ये पाँच अनर्थदंड व्रत के अतिचार हैं । राग की उत्कृष्टता से हास्यमिश्रित भंड वचन बोलना कंदर्प है । शरीर से कुचेष्टा करना कौत्कुच्य है । आवश्यकता से अधिक बोलना मौखर्य है । प्रयोजन का विचार न रख आवश्यकता से अधिक किसी कार्य में प्रवृत्ति करना-कराना असमीक्ष्याधिकरण है और उपभोग-परिभोग की वस्तुओं का निरर्थक संग्रह करना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है ॥179 ॥ मनो योग दुष्प्रणिधान, वचनयोग दुष्प्रणिधान, काययोग दुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये पांच सामायिक शिक्षाव्रत के अतिचार हैं । मन को अन्यथा चलायमान करना मनोयोगदुष्प्रणिधान है, वचन की अन्यथा प्रवृत्ति करना― पाठ का अशुद्ध उच्चारण करना वचनयोगदुष्प्रणिधान है । काय को चलायमान करना काययोग दुष्प्रणिधान है । सामायिक के प्रति आदर वा उत्साह नहीं होना-बेगार समझकर करना अनादर है और चित्त को एकाग्रता न होने से सामायिक की विधि या पाठ का भूल जाना अथवा कार्यांतर में उलझकर सामायिक के समय का स्मरण नहीं रखना स्मृत्यनुपस्थान है ॥ 180 ॥ बिना देखी हुई जमीन में मलोत्सर्ग करना, बिना देखे किसी वस्तु को उठाना, बिना देखी हुई भूमि में विस्तर आदि बिछाना, चित्त की एकाग्रता नहीं रखना और व्रत के प्रति आदर नहीं रखना ये पाँच प्रोषधोपवास व्रत के अतिचार हैं ॥181॥
सचित्ताहार, सचित्त संबंधाहार, सचित्त सन्मिश्राहार, अभिषवाहार और दुष्पक्वाहार ये पाँच उपभोग परिभोगपरिमाणव्रत के अतिचार हैं । सचित्त-हरी वनस्पति आदि का आहार करना सचित्ताहार है । सचित्त से संबंध रखनेवाले आहार-पान को ग्रहण करना सचित्त संबंधाहार है । सचित्त से मिली हुई अचित्त वस्तु का सेवन करना सचित्तसन्मिश्राहार है । गरिष्ठ पदार्थों का सेवन करना अभिषवाहार है और अधप के अथवा अधिक प के आहार का ग्रहण करना दुष्पक्वाहार है ॥182 ॥ सचित्त-निक्षेप, सचित्तावरण, पर-व्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रमता ये पाँच अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार हैं । हरे पत्ते आदि पर रखकर आहार देना सचित्तनिक्षेप है । हरे पत्ते आदि से ढ का हुआ आहार देना सचित्तावरण है । अन्य दाता के द्वारा देय वस्तु का देना परव्यपदेश है । अन्य दाताओं के गुण को नहीं सहन करना मात्सर्य है और समय उल्लंघन कर देना कालातिक्रम है ॥ 183 ॥
जीविताशंसा, मरणाशंसा, निदान, सुखानुबंध और मित्रानुराग ये पाँच सल्लेखना के अतिचार है । क्षपक का दान चित्त होकर अधिक समय तक जीवित रहने की आकांक्षा रखना जीविताशंसा है । पीडा से घबडाकर जल्दी मरने की इच्छा करना मरणाशंसा है । आगामी भोगों की आकांक्षा करना निदान है । पहले भोगे हुए सुख का स्मरण रखना सुखानुबंध है और मित्रों से प्रेम रखना मित्रानुराग है ॥184॥ सम्यग्ज्ञानादि गुणों की वृद्धि आदि स्व-पर के उपकार की इच्छा से योग्य पात्र के लिए प्रासुक द्रव्य का देना त्याग कहलाता है, इसका दूसरा नाम अतिसर्ग भी है ॥185 ॥ जिस प्रकार भूमि आदि के भेद से धान्य की उत्पत्ति आदि में भेद होता है उसी प्रकार विधि द्रव्य दाता और पात्र की विशेषता से दान के फल में भेद होता है ॥ 186॥ दान के समय पड़गाहने आदि को क्रियाओं में आदर या अनादर के होने से दान को विधि में भेद हो जाता है और वह फल के भेद का करनेवाला हो जाता हैं ॥187॥ तप तथा स्वाध्याय की वृद्धि आदि का कारण होने से देय में भेद होता है । यथार्थ में एक पदार्थ तो ऐसा है जो लेने वाले के लिए समताभाव का करनेवाला होता है और दूसरा पदार्थ ऐसा है जो विषमता का करनेवाला होता है । इसलिए देय द्रव्य में भेद होने से दान के फल में भो भेद होता है ॥188 ॥ कोई दाता तो ईर्ष्या, विषाद आदि दुर्गुणों से रहित होता है और कोई दाता ईर्ष्या आदि दुर्गुणों से युक्त होता है यही दाता की विशेषता है । यथार्थ में मन को गति विचित्र होती है ॥189॥ मोक्ष के कारणभूत दानों के ग्रहण करने में सत्पुरुषों के मन की शुद्धि का जो तारतम्य-हीनाधिकता है, वह पात्र की विशेषता है ॥ 190 ॥ पुण्यास्रव अनेक कल्याणों को प्राप्ति कराने वाला होने से सुखों का कारण कहा जाता है और पापास्रव संसार के दु:खों का कारण माना जाता है ॥191꠰꠰ इस प्रकार आस्रव तत्त्व का वर्णन होने के बाद भगवान् की दिव्य ध्वनि में बंध तत्त्व का वर्णन प्रारंभ हुआ ।
आत्मपरिणामों में स्थित मिथ्यादर्शन, हिंसा आदि अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बंध के कारण हैं ॥192॥ इनमें मिथ्यादर्शन, निसर्गज (अगृहीत) और अन्योपदेशज (गृहीत) के भेद से दो प्रकार का है । मिथ्यात्वकर्म के उदय से जो तत्त्व का अश्रद्धान होता है वह निसर्गज मिथ्यादर्शन है ॥193॥ और परोपदेशपूर्वक होने वाले अतत्त्वश्रद्धान को अन्योपदेशज मिथ्यादर्शन कहते हैं । इसके क्रियावादी, अक्रियावादी, वैनयिक और अज्ञानी के भेद से चार भेद हैं ॥194꠰। इनके सिवाय एकांत, विपरीत, विनय, अज्ञान और संशय इन निमित्तों की अपेक्षा मिथ्यादर्शन पाँच प्रकार का भी माना जाता है । वस्तु अनेक धर्मात्मक है परंतु उसे एक धर्मरूप ही श्रद्धान करना एकांत मिथ्यादर्शन है, जैसे वस्तु नित्य ही है अथवा अनित्य ही है । वस्तु का जैसा स्वरूप है उससे विपरीत श्रद्धान करना सो विपरीत मिथ्यादर्शन है जैसे हिंसा में धर्म मानना, सग्रंथवेष से मोक्ष मानना आदि । देव-अदेव, और तत्त्व अतत्त्व का विवेक न रखकर सबको एक सा मानना तथा सबकी भक्ति करना वैनयिक मिथ्यादर्शन है । हिताहित की परीक्षा-रहित अज्ञानमुलक रूढ़िवश श्रद्धान करना सो अज्ञान मिथ्यादर्शन है और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्̖चारित्र मोक्ष का मार्ग है या नहीं ? अहिंसा में धर्म है या हिंसा में, इस प्रकार संदेहरूप श्रद्धान करना संशय मिथ्यादर्शन है ॥195॥ पाँच स्थावर और त्रस इन छह काय के जीवों को हिंसा का त्याग नहीं करना तथा पाँच इंद्रिय और मन को वश नहीं करना यह बारह प्रकार की अविरति है । प्रसाद अनेक प्रकार का है और नो-नो कषायों को साथ मिलाकर अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के भेद से कषाय के पच्चीस भेद हैं ॥ 196 ॥ सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग और अनुभयमनोयोग के भेद से मनोयोग चार प्रकार के हैं । सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग और अनुभय वचनयोग के भेद से वचनयोग के चार भेद हैं तथा औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग और कार्मण काययोग के भेद से काय योग के पाँच भेद हैं । इस प्रकार सब मिलाकर योग के तेरह भेद हैं । प्रमत्त संयत गुणस्थान में आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग की भी संभावना रहती है इसलिए उन्हें मिलाने पर योग के पंद्रह भेद हो जाते हैं ॥197॥ ये मिथ्यादर्शनादि पांच समस्त और व्यस्त रूप से बंध के कारण हैं अर्थात् कहीं सब बंध के कारण हैं और कहीं कम । मिथ्यादृष्टि गुण स्थान में पांचों ही बंध के कारण हैं । उसके तीन गुणस्थानों में मिथ्यादर्शन को छोड़कर अंतिम चार बंध के कारण हैं ॥ 198॥ संयतासंयत नामक पंचम गुणस्थान में विरति, अविरति, मिश्रित तथा प्रमाद आदि तीन कर्मबंध के हेतु कहे गये हैं ॥199 ॥ प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थानवर्ती जीव के प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बंध के कारण हैं । इसके आगे चार गुणस्थानों में अर्थात् सातवें से लेकर दसवें गुणस्थान तक कषाय और योग ये दो बंध के कारण हैं ॥200 ॥ उपशांतमोह, क्षीणमोह और सयोगकेवली इन तीन गुणस्थानों के जीवमात्र योग के निमित्त से कर्मबंध करते हैं । अयोगकेवली भगवान् योग का भी अभाव हो जाने से कर्मों का बंध नहीं करते हैं ॥201॥
कषाय से कलुषित जीव प्रत्येक क्षण कर्म के योग्य पुद̖गलों को ग्रहण करता है । वही बंध कहलाता है । यह बंध अनेक प्रकार का माना गया है ॥202॥ सामान्यरूप से बंध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार भेदों को प्राप्त होता है ॥203॥ प्रकृति का अर्थ स्वभाव होता है । जिस प्रकार नीम आदि की प्रकृतितिक्तता आदि है उसी प्रकार समस्त कर्मों को अपनी-अपनी प्रकृति नियतरूप से स्थित है ॥204॥ जैसे ज्ञानावरणकर्म की प्रकृति अज्ञान अर्थात् पदार्थ का ज्ञान नहीं होने देना । दर्शनावरणकर्म की प्रकृति पदार्थों का अदर्शन अर्थात् दर्शन नहीं होने देना है ॥205॥ साता, असातावेदनीयकर्म की प्रकृति ज्ञानी मनुष्यों को क्रम से सुख और दुःख का वेदन कराना है ॥206॥ दर्शनमोह की प्रकृतितत्त्व का अश्रद्धान कराना है तथा अतिशय महान् चारित्रमोह कर्म की प्रकृति सदा असंयम उत्पन्न करना है ॥ 207॥ आयुकर्म को प्रकृति भवधारण कराना है । नामकर्म की प्रकृति जीव में देव, नारकी आदि संज्ञाएं उत्पन्न करना है ॥ 208 ॥ गोत्र कर्म की प्रकृति उच्च और नीच व्यवहार कराना है तथा अंतराय कर्म की प्रकृति दान आदि में तीव्र विघ्न करना है ॥209॥ इसलिए ऐसा लक्षण करना चाहिए कि कर्मो के द्वारा जो किया जाता है वही प्रकृतिबंध है और उनका अपने स्वभाव से च्युत नहीं होना सो स्थिति बंध है ॥210॥
जिस प्रकार बकरी, गाय तथा भैंस आदि के दूध अपने-अपने स्वभाव से ही माधुर्य गुण से च्युत नहीं होते हैं उसी प्रकार कर्म भी अपनी-अपनी प्रकृति से च्युत नहीं होते हैं ॥ 211 ॥
जिस प्रकार दूध में रस विशेष, तीव्र अथवा मंद आदि भाव से रहता है उसी प्रकार कर्मरूप पुद̖गल में भी सामर्थ्य-विशेष तीव्र अथवा मंद आदि भाव से रहता है । यही अनुभवबंध माना गया है ॥ 212॥ आत्मा के कर्मरूप परिणत पुद̖गल स्कंधों के समूह में परमाणु के प्रमाण से कल्पित परिच्छेदों-खंडों की जो संख्या है वह प्रदेशबंध कहलाता है ॥213 ॥ प्रकृति और प्रदेशबंध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभवबंध कषाय के निमित्त से माने गये हैं ॥214॥
जिसके द्वारा ज्ञान ढंका जाये अथवा जो स्वयं ज्ञान को ढाँके वह ज्ञानावरणकर्म है । इसी प्रकार दर्शनावरणकर्म की निरुक्ति का जानना चाहिए अर्थात् जिसके द्वारा दर्शन ढंका जाये अथवा जो स्वयं दर्शन को ढाँके उसे दर्शनावरणकर्म कहते हैं ॥215॥ जिसके द्वारा सुख दुःख का वेदन― अनुभव कराया जाये अथवा जो स्वयं सुख-दुःख का अनुभव करे वह वेदनीयकर्म है । जिसके द्वारा जीव मोहित किया जाये अथवा जो स्वयं मोहित करे वह मोहनीयकर्म है ॥216꠰꠰ जीव जिसके द्वारा नरकादिभव को प्राप्त कराया जाये अथवा जो स्वयं नारकादि भव को प्राप्त हो वह आयुकर्म है । आत्मा जिसके द्वारा नाना नामों को प्राप्त कराया जाये अथवा जो स्वयं आत्मा को नाना नामों से युक्त करे वह नामकर्म है ॥217॥ आत्मा जिसके द्वारा प्रयत्नपूर्वक उच्च अथवा नीच कहा जाता है वह गोत्र कहलाता है और जो यत्नपूर्वक देय आदि के बीच में आ जाता है वह अंतरायकर्म है ॥218॥ जिस प्रकार एक बार खाया हुआ अन्न रस, रक्त आदि नानारूपता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार एक आत्मपरिणाम के द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गल नाना कर्मरूपता को प्राप्त हो जाते हैं ॥219॥ यह आठ प्रकार का मूल प्रकृतिबंध कहा गया है, अब इसके आगे उत्तर प्रकृतियों के भेद कहे जाते हैं ॥ 220॥
ज्ञानावरण पाँच प्रकार का है, दर्शनावरण नौ प्रकार का है, वेदनीय दो प्रकार का है, मोहनीय अट्ठाईस प्रकार का है, आयु चार प्रकार का है, नाम बयालीस प्रकार का है, गोत्र दो प्रकार का कहा गया है और अंत राय पाँच प्रकार का है ॥ 221-222 ॥ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पांच आवरण करने योग्य गुण हैं । इन्हें आवरण करनेवाले मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवल ज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरण कर्म को उत्तर प्रकृतियाँ हैं ॥ 223 ॥ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा शक्तिरूप से अभव्य जीव भी मनःपर्यय और केवलज्ञान से युक्त है, अतः उसके भी ज्ञानावरण के पाँचों भेद स्थित हैं ॥ 224॥
भव्यजीव की भव्यता उक्त गुणों के प्रकट होने की योग्यता के सद्भाव की अपेक्षा रखती है और अभव्य जीव को अभव्यता केवलज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान के प्रकट होने की योग्यता न होने की अपेक्षा से है । भावार्थ― किसी ने प्रश्न किया था कि जब भव्य और अभव्य दोनों के ही मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान की शक्ति विद्यमान है तब इनमें भव्यता और अभव्यता का भेद कैसे हुआ ? इसका उत्तर ग्रंथकर्ता ने दिया है कि भव्यजीव के उन शक्तियों की प्रकटता हो जाती है और अभव्य जीव के उनकी प्रकटता नहीं होती ॥ 225॥
चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये चार आवरण तथा निद्रा आदिक पाँच अर्थात् निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पाँच निद्राएँ सब मिलाकर दर्शनावरणकर्म की नौ उत्तर प्रकृतियां हैं । जो जीव के चक्षुर्दर्शन― चक्षुइंद्रिय से होने वाले सामान्य अवलोकन को प्रकट न होने दे वह चक्षुर्दर्शनावरण है । जो अचक्षुदर्शन― चक्षु को छोड़कर अन्य इंद्रियों तथा मन से होने वाले सामान्य अवलोकन को प्रकट न होने दे वह अचक्षुर्दर्शनावरण है । जो अवधिदर्शन― अवधिज्ञान के पहले प्रकट होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे यह अवधिदर्शनावरण है और जो केवलदर्शन― केवलज्ञान के साथ होने वाले सामान्यावलोकन को न होने दे वह केवलदर्शनावरण है ॥ 226 ॥ मद तथा खेद को दूर करने के लिए सोना निद्रा कहलाती है । ऊपर-ऊपर अधिकरूप से निद्रा का आना निद्रानिद्रा कही जाती है ॥227॥ थकावट आदि से उत्पन्न होने वाली जो निद्रा जीव को बैठे-बैठे ही अत्यधिक चपल कर देवे वह प्रचला है । प्रचला जब बार-बार अधिकरूप में आती है तब प्रचलाप्रचला कहलाने लगती है ॥228॥ जिसके द्वारा आत्मा स्त्यान अर्थात् सोते समय गृद्धता करने लगे― किसी कर्म में सचेष्ट हो जावे और जिसके उदय से यह जीव अत्यधिक कठिन काम कर ले वह स्त्यानगृद्धि है । यह पाँच प्रकार की निद्रा, दर्शनावरणकर्म के उदय से आती है और इन निद्राओं के माध्यम से दर्शनावरणकर्म आत्मा के दर्शनगुण को घातता है ॥229॥ वेदनीयकर्म के दो भेद हैं― सातावेदनीय और असातावेदनीय । जिनके उदय से शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं वे यथाक्रम से सातावेदनीय और असातावेदनीय कहलाते हैं ॥ 230॥
मोहनीय कर्म के मूल में दो भेद हैं― 1 दर्शनमोहनीय, 2 चारित्रमोहनीय । इनमें से दर्शनमोहनीय को सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन उत्तर प्रकृतियाँ हैं ॥231॥ आत्मा के शुभ परिणामों से जब मिथ्यात्वप्रकृति का स्वरस-फल देने को शक्ति रुक जाती है तब श्रद्धान करनेवाले जीव के सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होता है । इस प्रकृति के उदय से आत्मा का श्रद्धानगुण तिरोहित नहीं होता किंतु चल, मल, अगाढ़ दोषों से दूषित हो जाता है ॥ 232 ॥ मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से श्रद्धान गुण विकृत हो जाता है और अतत्त्व श्रद्धानरूपी परिणति हो जाती है । अर्ध शुद्ध कोदों की मदशक्ति के समान मिथ्यात्व प्रकृति के अर्द्ध शुद्ध होने पर जीव का जो शुद्ध और अशुद्ध भाव एक साथ प्रकट होता है वह सम्यग्मिथ्यात्व कहलाता है । सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीव के परिणाम दही और गुड़ के मिश्रित स्वाद के समान श्रद्धान और अश्रद्धान रूप होते हैं ॥ 233 ॥
नोकषाय और कषाय के भेद से चारित्रमोह के दो भेद हैं । इनमें नोकषाय के नौ और कषाय के सोलह भेद कहे गये हैं ॥ 234 ॥ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद ये नौ नोकषाय के भेद हैं । इनके लक्षण इस प्रकार हैं-जिसके उदय से उत्सुक होता हुआ हास्य प्रकट हो वह हास्यकर्म है । जिसके उदय से रति-प्रीति उत्पन्न हो वह रति कर्म है । जिसके उदय से अरति― अप्रीति उत्पन्न हो वह अरति है । जिसके उदय से शोक हो वह शोक है । जो उद्वेग― भय उत्पन्न करनेवाला है वह भय है । जिसके उदय से अपने दोष छिपाने में प्रवृत्ति हो वह जुगुप्सा है । जिसके उदय से यह जीव स्त्री के भाव को अर्थात् पुरुष से रमने की इच्छा को प्राप्त होता है वह स्त्रीवेद है । जिसके उदय से पुरुष के भाव को अर्थात् स्त्री से रमने की इच्छा को प्राप्त होता है वह पुरुषवेद है । और जिसके उदय से नपुंसक के भाव को― अर्थात् स्त्री-पुरुष दोनों से रमने की इच्छा को प्राप्त होता है वह नपुंसक वेद है ॥235-237 ॥ कषाय के मूल में अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार भेद हैं । फिर प्रत्येक के क्रोध, मान, माया और लोभ की अपेक्षा चार-चार भेद हैं । इस प्रकार कषाय के कुल सोलह भेद हैं । इनमें से अनंतानुबंधी संबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यग्दर्शन तथा स्वरूपाचरण चारित्र के घातक हैं ॥238 ॥ जिसके उदय से आत्मा हिंसादि रूप परिणतियों का त्याग करने में समर्थ न हो सके वे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ हैं ॥239 ॥ जिनके उदय से जीव संयम को प्राप्त न हो सके वे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ हैं ॥240 ॥ और जिनके उदय से यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं होता तथा जो संयम के साथ विद्यमान रहते हैं वे संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ हैं ॥241॥
नारक, तैर्यग्योन, मानुष और देव के भेद से आयु कर्म चार प्रकार का कहा गया है । आयु कर्म के उदय से यह जीव नारकादि पर्यायों में उत्पन्न होता है ॥242॥
जिसके उदय से जीव भवांतर को प्राप्त होता है वह गति नाम कर्म है । देव तथा नारकादि के भेद से गति नाम कर्म चार प्रकार का है ॥243॥ जिसके निमित्त से आत्मा में नरकादि पर्याय प्रकट होती है वह चार प्रकार का नरकादि नाम कर्म है ॥244॥ उन नरकादि गतियों में जो अविरोधी समान धर्म से आत्मा को एक रूप करने वाली अवस्था है उसे जाति कहते हैं । उस जाति का जो निमित्त है वह जाति नाम कर्म कहा जाता है इसके एकेंद्रिय जाति आदि पांच भेद हैं ॥ 245॥ जिसके उदय से जोव एकेंद्रियादि जाति को प्राप्त होते हैं वह एकेंद्रियादि जाति नाम कर्म कहलाता है ॥246॥
जिसके उदय से औदारिक आदि पांच शरीरों की रचना होती है वह औदारिक शरीरादि पांच प्रकार का शरीर नाम कर्म है ॥ 247 ॥ जिसके उदय से शरीरों में अंगोपांग का विवेक होता है वह औदारिक शरीरांगोपांग को आदि लेकर तीन प्रकार का अंगोपांग नाम कर्म है ॥248॥ जो जाति की अपेक्षा चक्षु आदि इंद्रियों के स्थान और प्रमाण का निर्माण करते हैं वे स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण के भेद से दो प्रकार के निर्माण नाम कर्म हैं ॥249॥ जिसके उदय से, कर्मोदय के वश से प्राप्त पुद̖गलों का परस्पर संश्लेष होता है वह बंधन नाम कर्म है । इसके औदारिक शरीर बंधन आदि पांच भेद हैं ॥250॥ जिसके उदय से शरीर के प्रदेशों का परस्पर छिद्ररहित संश्लेष होता है वह संघात नाम कर्म है । संघातों का कभी अत्यय-विघटन नहीं होता इसलिए संघात नाम सार्थक है । इसके औदारिक शरीर संघात आदि पांच भेद हैं ॥251 ॥ जिसके उदय से जीवों के शरीर की आकृति की रचना होती है वह संस्थान नाम कर्म है । संस्थान अर्थात आकृति को करे सो संस्थान है यह संस्थान शब्द की निरुक्ति है । वह संस्थान, समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोध परिमंडल संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान और हुंडक संस्थान के भेद से छह प्रकार का होता है । जिसके उदय से सुडोल-सुंदर शरीर की रचना हो वह समचतुरस्र संस्थान नाम कर्म है । जिसके उदय से शरीर के अवयव न्यग्रोध-वट वृक्ष के समान नाभि से नीचे छोटे और नाभि से ऊपर बड़े हों वह न्यग्रोध परिमंडल नाम कर्म है । जिसके उदय से शरीर की रचना स्वाति-सांप की वामी के समान नाभि के नीचे विस्तृत और नाभि से ऊपर संकुचित हो वह स्वाति नाम कर्म है । जिसके उदय से शरीर में कूबड़ निकल आवे वह कुब्जक संस्थान है । जिसके उदय से शरीर वामन-बौना हो वह वामन नाम कर्म है और जिसके उदय से शरीर की आकृति बेडौल हो वह हुंडक संस्थान नाम कर्म है ॥ 252-253॥
जिसके उदय से हड्डियों का परस्पर मिलन और बंधन अच्छी तरह होता है वह संहनन नाम कर्म है । इसके वज्रवृषभनाराचसंहनन, वज्रनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन, कीलकसंहनन और असंप्राप्तसृपाटिका संहनन ये छह भेद हैं । जिसके उदय से वज्र के वेष्टन, वज्र की कीलियां और वज्र के हाड़ हों उसे वज्रवृषभनाराचसंहनन कहते हैं । जिसके उदय से कीलियां और हाड़ तो वज्र के हों परंतु वेष्टन वज्र के न हों वह वज्रनाराचसंहनन है । जिसके उदय से हाड़ तथा संधियों की कीलें तो हों परंतु वज्रमय न हों इसी तरह वेष्टन भी वज्रमय न हो उसे नाराचसंहनन कहते हैं । जिसके उदय से हड्डियाँ आधी कीलों से सहित हों उसे अर्धनाराचसंहनन कहते हैं । जिसके उदय से हाड़ परस्पर कीलित हों उसे कीलक संहनन कहते हैं और जिसके उदय से हाड़ों की संधियां कीलों से रहित हों तथा मात्र नसों और मांस से बँधी हों उसे असंप्राप्तसृपाटिका संहनन कहते हैं ॥254-255॥ जिसके उदय से शरीर में स्पर्श की उत्पत्ति होती है वह स्पर्श नामकर्म है । यह कड़ा, कोमल, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण के भेद से आठ प्रकार का है ॥256-257 ॥ जिसके निमित्त से रस में भेद होता है वह रस नाम कर्म कहा गया है । इसके कटुक, तिक्त, कषाय, आम्ल और मधुर के भेद से पांच भेद हैं ॥ 258॥ जिसके उदय से गंध होता है वह गंध नाम कर्म है । इसके सुगंध और दुर्गंध की अपेक्षा दो भेद जानना चाहिए ॥259॥ जिसके निमित्त से वर्ण में भेद होता है वह वर्ण नाम कर्म है । यह कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल के भेद से पाँच प्रकार का है ॥ 260॥ जिसके उदय से विग्रह गति में पूर्व शरीर को आकृति का विनाश न हो वह नरकगत्यानुपूर्व्य आदि के भेद से चार प्रकार का आनुपूर्व नाम कर्म है । जिसके उदय से यह जीव भारीपन के कारण लोहे के समान नीचे नहीं गिरता है और लघुपन के कारण आक की रुई के समान ऊपर नहीं उड़ता है वह अगुरु लघु नाम कर्म कहा गया है ॥261-262 ॥ जिसके उदय से अपने ही बंधन आदि से अपना ही घात होता है वह उपघात नाम कर्म कहा गया है और जिसके उदय से दूसरों का घात होता है वह परघात नाम कर्म है ॥ 263 ॥ जिसके उदय से शरीर में सूर्य के समान बहुत भारी आताप की उत्पत्ति होती है वह आताप नाम कर्म माना गया है इसका उदय सूर्य के विमान में स्थित बादरपृथिवीकायिक जीवों के ही होता है । इसकी विशेषता यह है कि यह मूल में ठंडा होता है और इसकी प्रभा उष्ण होती है ॥ 264॥ जिसके उदय से शरीर में विशिष्ट प्रकार का प्रकाश होता है वह उद्योत नाम कर्म है । यह उद्योत चंद्रमा के विमान में स्थित बादरपृथिवीकायिक जीव तथा जुगनू आदि में देखा जाता है ॥ 265 ॥ जो उच्छ्वास का कारण है वह उच्छ्वास नाम कर्म माना गया है तथा जो आकाश में प्रशस्त एवं अप्रशस्त गति कराने में समर्थ है वह विहायोगति नाम कर्म है ॥266 ॥ जिसके उदय से ऐसे शरीर को रचना हो जो सदा एक ही आत्मा के उपभोग का कारण हो वह प्रत्येकशरीर नाम कर्म है ॥ 267॥ जिसके उदय से एक ही शरीर अनेक जीवों के उपभोग का कारण होता है वह साधारण नाम कर्म है ॥ 268 ॥ जिसके उदय से जीवों का द्वींद्रियादिक जीवों में जन्म होता है वह सनाम कर्म है । जिसके उदय से इसके विपरीत सिर्फ एकेंद्रिय जीवों में जन्म हो वह स्थावर नाम कर्म है ॥269॥ जिसके निमित्त से यह जीव समस्त प्राणियों के लिए प्रीति करने वाला होता है वह सुभग नाम कर्म है । जिसके निमित्त से दूसरों को अप्रीति उत्पन्न करने वाला हो वह दुर्भग नाम कर्म है ॥270॥ जिससे मनोज्ञ स्वर की रचना होती है वह सुस्वर नाम कर्म है । जो अनिष्ट स्वर का कारण है वह दुःस्वर नाम कर्म है ॥271 ॥ जिससे शरीर में रमणीयता प्रकट होती है वह शुभ नाम कर्म है । जो अत्यंत विरूपता का कारण है वह दुःखदायी अशुभ नाम कर्म है ॥ 272 ॥ जो सूक्ष्म शरीर का कारण है वह सूक्ष्म नाम कर्म है । जो दूसरों को बाधा करनेवाले शरीर का हेतु है वह बादर नाम कर्म है ॥273॥ जो आहार आदि पर्याप्तियों की रचना का कारण है वह पर्याप्ति नाम कर्म है । विद्वानों ने इसके आहारपर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति, इंद्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ̖वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति ये छह भेद कहे हैं ॥274॥
जो आहार, शरीर, श्वासोच्छ̖वास, इंद्रिय, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियों के "अभाव का कारण है वह अपर्याप्ति नाम कर्म है । भावार्थ-विग्रह गति के बाद उत्पत्ति स्थान में पहुंचने पर ग्रहण किये हुए आहार-वर्गणा के परमाणुओं में खल रसभाग रूप परिणमन करने की जीव की शक्ति की पूर्णता को आहारपर्याप्ति कहते हैं । जिन परमाणुओं को खल रूप परिणमाया था उन्हें हड्डी आदि कठोर अवयवरूप तथा जिन्हें रसरूप परिणमाया था उन्हें रुधिर आदि तरल अवयवरूप परिणमावने की शक्ति की पूर्णता को शरीरपर्याप्ति कहते हैं । शरीररूप परिणत परमाणुओं में स्पर्शनादि इंद्रियों के आकार परिणमावने की शक्ति को पूर्णता को इंद्रियपर्याप्ति कहते हैं । भीतर की वायु को बाहर छोड़ना और बाहर की वायु को भीतर खींचने की शक्ति की पूर्णता को श्वासोच्छ̖वासपर्याप्ति कहते हैं । भाषावर्गणा के परमाणुओं को शब्दरूप परिणमावने की शक्ति की पूर्णता को भाषापर्याप्ति कहते हैं । और मनोवर्गणा के परमाणुओं को हृदय-क्षेत्र में स्थित आठ पांखुड़ी के कमलाकार द्रव्य मनरूप परिणमावने की शक्ति की पूर्णता को मनःपर्याप्ति कहते हैं । इनमें से एकेंद्रिय जीव के भाषा और मन को छोड़कर चार पर्याप्तियाँ होती हैं । द्वींद्रिय से लेकर असैनी पंचेंद्रिय तक मन को छोड़कर शेष पाँच पर्याप्तियां होती हैं और सैनी पंचेंद्रिय जीव के सभी पर्याप्तियाँ होती हैं । जिसके उदय से ये पर्याप्तियाँ पूर्ण होती हैं वह पर्याप्तक नामकर्म है और जिसके उदय से एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती वह अपर्याप्तक नामकर्म है । यहाँ अपर्याप्तक शब्द से लब्ध्यपर्याप्तक जीव की विवक्षा है, निर्वृत्यपर्याप्तक की नहीं । क्योंकि वह कर्मोदय की अपेक्षा तो पर्याप्त कही है सिर्फ निर्वृत्ति-रचना की अपेक्षा लघु अंतर्मुहूर्त के लिए अपर्याप्तक होता है ॥275॥ जो धातु-उपधातुओं की स्थिरता का कारण है वह स्थिर नामकर्म है और जो इससे विपरीत अस्थिरता का कारण है वह अस्थिर नामकर्म है, जो प्रभापूर्ण शरीर का कारण है वह आदेय नामकर्म है और जो प्रभा-रहित शरीर का कारण है वह अनादेय नामकर्म है ॥276 ॥ जो पुण्यरूप गुणों की प्रसिद्धि का कारण है वह यशःकीर्ति नामकर्म कहलाता है और जो इससे विपरीत अपयश का कारण है वह अपयशस्कीर्ति नामकर्म है ॥ 277॥ और जो तीर्थंकर पर्याय का कारण है वह तीर्थंकर नामकर्म है । यह सातिशय पुण्य प्रकृति है । इस प्रकार नामकर्म की तिरानवे उत्तर प्रकृतियाँ हैं ॥278॥
गोत्रकर्म के दो भेद हैं― 1 उच्चगोत्र और 2 नीचगोत्र । जिसके उदय से लोकपूज्य कूल में जन्म होता है उसे उच्चगोत्र कहते हैं और जिसके उदय से नीच कुलों में जन्म होता है वह नीचगोत्र है ॥279॥
अंतराय कर्म के पांच भेद हैं― 1 दानांतराय, 2 लाभांतराय, 3 भोगांतराय, 4 उपभोगांतराय और 5 वीर्यांतराय । जिसके उदय से जीव दान करने की इच्छा करते हुए भी दान न कर सके वह दानांतराय है । जिसके उदय से लाभ की इच्छा रखते हुए भी लाभ प्राप्त न कर सके वह लाभांतराय है ॥ 280॥ जिसके उदय से जीव, भोग की इच्छा रखता हुआ भी भोग नहीं सकता वह भोगांतराय है । जिसके उदय से उपभोग को इच्छा रखता हुआ भी उपभोग नहीं कर सकता वह उपभोगांतराय है ॥281॥ और जिसके उदय से कार्यों में उत्साहित होता हुआ भी उत्साह प्रकट नहीं कर सकता वह अंतराय नाम का कर्म है । इस प्रकार यह प्रकृतिबंध का निरूपण किया ॥ 282 ॥ अब स्थितिबंध का निरूपण करते हैं । आठों कर्मों का स्थितिबंध, जघन्य और उत्कृष्ट को अपेक्षा से दो प्रकार का कहा जाता है ॥ 283 ॥
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय इन चार कर्मों को उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर है ॥ 284॥ मोहनीय कर्म की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है और नाम तथा गोत्र कर्म को बीस कोड़ाकोड़ी सागर है । यह उत्कृष्ट स्थिति संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तक जीव के ही बंधती है ॥285॥
आयुकर्म को उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर है । वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है । नाम और गोत्र को आठ मुहूर्त है तथा शेष पांच कर्मों की अंतर्मुहूर्त है ॥286-287॥
कषायों की तीव्रता, मंदता आदि भावास्रव की विशेषता से जो उनका विशिष्ट परिपाक होता है उसे अनुभव कहते हैं अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की विभिन्नता से कर्मो का जो विविध-नाना प्रकार का परिपाक होता है वह अनुभव बंध कहलाता है ॥ 288-289 ॥ शुभ परिणामों से जिस प्रकार पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभव बंध होता है उसी प्रकार पाप प्रकृतियों का जघन्य अनुभव बंध होता है और अशुभ परिणामों की विशेषता से जिस प्रकार अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभव बंध होता है उसी प्रकार शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभव बंध होता है । भावार्थ-प्रत्येक समय पुण्य और पाप प्रकृतियों का अनुभव बंध जारी रहता है । जिस समय शुभ परिणामों की प्रकर्षता होती है उस समय पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभव बंध होता है और पाप प्रकृतियों का जघन्य अनुभव होता है । इसी प्रकार जिस समय अशुभ परिणामों की विशेषता से पापप्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभव बंध होता है उस समय पुण्यप्रकृतियों का जघन्य अनुभव बंध होता है ॥ 290-291॥
कर्मों की समस्त मूल प्रकृतियाँ स्वमुख से ही अनुभव में आती हैं― अपना फल देती हैं और मोहनीय तथा आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों की तुल्य जातीय प्रकृतियाँ स्वमुख तथा परमुख― दोनोंरूप से अनुभव में आती हैं― फल देती हैं । भावार्थ― जिस प्रकृति का जिसरूप बंध हुआ है उसका उसीरूप उदय आना स्वमुख से उदय आना कहलाता है और अन्य प्रकृतिरूप उदय आना परमुख से उदय आना कहलाता है । कर्मों की ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियाँ सदा स्वमुख से ही उदय में आती हैं अर्थात् ज्ञानावरण का उदय दर्शनावरणादिरूप कभी नहीं होता है परंतु उत्तर प्रकृतियों में एक कर्म की प्रकृतियाँ स्वमुख तथा परमुख दोनों रूप से फल देती हैं । जैसे वेदनीयकर्म की सातावेदनीय और असातावेदनीय ये दो उत्तरप्रकृतियाँ हैं । इनमें सातावेदनीय का उदय सातारूप भी आ सकता है और असातारूप भी आ सकता है । इसी प्रकार असातावेदनीय का उदय असातारूप भी आ सकता है और सातारूप भी । जिस समय अपनेरूप उदय आता है उस समय स्वमुख से उदय आना कहलाता है और जिस समय अन्यरूप उदय आता है उस समय परमुख से उदय आना कहलाता है । विशेषता यह है कि मोहनीय कर्म के जो दर्शनमोह और चारित्र-मोह भेद हैं उनकी प्रकृतियाँ परस्पर एक दूसरे रूप में उदय नहीं आती, सदा स्वमुख ही उदय आती हैं परंतु इन भेदों की जो अवांतर उत्तर प्रकृतियां हैं उनका दोनों से उदय आता है । इसी प्रकार आयुकर्म को उत्तरप्रकृतियों का सदा स्वमुख से ही उदय आता है परमुख से नहीं । जैसे नरकायु का सदा नरकायु रूप हो उदय आता है अन्यरूप नहीं ॥292 ॥
विपाक से और तप से कर्मों की निर्जरा होती है । इस निर्जरा में एक निर्जरा तो विपाकजा है और दूसरी अविपाकजा है । भावार्थ-निर्जरा के विपाकजा और अविपाकजा के भेद से दो भेद हैं ॥293 ॥ संसार में भ्रमण करनेवाले जीव का कर्म जब फल देने लगता है तब क्रम से ही उसकी निवृत्ति होती है यही विपाकजा निर्जरा कहलाती है ॥ 294॥ और जिस प्रकार आम आदि फलों को उपाय द्वारा असमय में ही पका लिया जाता है उसी प्रकार उदयावली में अप्राप्त कर्म की तपश्चरण आदि उपाय से निश्चित समय से पूर्व ही उदीरणा द्वारा जो शीघ्र ही निर्जरा की जाती है वह अविपाकजा निर्जरा है ॥ 295॥
आत्मा के समस्त प्रदेशों के साथ कर्मपरमाणुओं का जो बंध है वह प्रदेशबंध कहलाता है । इस प्रदेशबंध की संतति में अनंतानंत प्रदेशों से युक्त घनांगुल के असंख्येय-भाग प्रमाण क्षेत्र में अवगाढ़ एक, दो, तीन आदि संख्यात समयों की स्थिति वाले कर्मरूप पुद̖गल आत्मा के समस्त प्रदेशों में सदा विद्यमान रहते हैं ॥ 296-297 ॥ उपर्युक्त कर्मबंध, पुण्यबंध और पापबंध के भेद से दो प्रकार का है, उनमें शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र और सद्वेद्य ये चार पुण्यबंध के भेद हैं और शेष कर्म पापबंध रूप हैं ॥ 298॥
आस्रव का रुक जाना संवर कहलाता है । यह भावसंवर और द्रव्यसंवर के भेद से दो प्रकार का कहा जाता है ॥ 299॥ संसार की कारणभूत क्रियाओं का रुक जाना भावसंवर है और कर्मरूप पुद̖गल द्रव्य के ग्रहण का विच्छेद हो जाना द्रव्यसंवर हैं ॥300॥ तीन गुप्तियां, पाँच समितियाँ, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ पांच चारित्र और बाईस परिषहजय ये अपने अवांतर विस्तार से सहित संवर के कारण हैं ॥301-302॥ निर्ग्रंथ मुद्रा के धारक मुनि के बंध के कारणों का अभाव तथा निर्जरा के द्वारा जो समस्त कर्मों का अत्यंत क्षय होता है वह मोक्ष कहलाता है ॥ 303 ॥ इन जीवादि सात तत्त्वों का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्ष का साक्षात् साधन है ॥ 304॥ मोक्षमार्ग में स्थित कितने ही अन्य जीव एक ही भव में सिद्ध हो जाते हैं और कितने ही भव्य स्वर्ग के सुख भोगकर सदा आत्मा का ध्यान करते हुए सात-आठ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ॥305॥
इस प्रकार नेमि जिनेंद्र के द्वारा कहा हुआ निर्मल मोक्षमार्ग सुनकर बारह सभाओं के लोगों ने हाथ जोड़कर भगवान् को नमस्कार किया ॥306॥ श्रोताओं में से कितने ही लोगों ने सम्यग्दर्शन धारण किया, कितने ही लोगों ने संयमासंयम प्राप्त किया और संसार वास से डरने वाले कितने ही लोगों ने पूर्ण संयम-मुनिव्रत स्वीकृत किया ॥307॥ उस समय दो हजार राजाओं ने, दो हजार कन्याओं ने एवं हजारों रानियों ने जिनेंद्र भगवान् के द्वारा कहे हुए पूर्ण संयम को प्राप्त किया ॥308 ॥ शिवा देवी, रोहिणी, देवकी, रुक्मिणी तथा अन्य देवियों ने श्रावकों का चारित्र, स्वीकृत किया ॥309 ॥ यदुकुल और भोजकुल के श्रेष्ठ राजा तथा अनेक सुकुमारियां जिनमार्ग की ज्ञाता बन बारह अणुव्रतों की धारक हो गयीं ॥310॥ जो देवों के साथ पूजा कर चुके थे, ऐसे इंद्र तथा बलभद्र और कृष्ण आदि यादव, जिनेंद्ररूपी सूर्य को नमस्कार कर, अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥311॥
तदनंतर जो समस्त दिशाओं को उज्ज्वल कर रही है, मेघों के द्वारा धुले हुए सुंदर आकाशमंडल को जो निर्मल ग्रहों और ताराओं से पुष्पित बना रही थी एवं जो बंधु, कमल और सप्तपर्ण के सुगंधित नूतन फूलों की अंजलि छोड़ रही थी ऐसी शरदऋतु, भक्ति से भरी लोक त्रयो के समान जिनेंद्रदेव के चरणों के समीप आयी ॥312॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में श्रीनेमिनाथ भगवान् के धर्मोपदेश का वर्णन करनेवाला अठावनवां सर्ग समाप्त हुआ ॥54॥