सोलह कुलकर निर्देश
From जैनकोष
सोलह कुलकर निर्देश
1. वर्तमानकालिक कुलकरों का परिचय
क्रम |
म.पु./3/श्लोक 229-232 |
1.नाम निर्देश |
2. पिता |
3. संस्थान |
4. संहनन |
5. वर्ण |
6. उत्सेध |
7. जंमांतराल |
8. आयु |
9. पटरानी |
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1. तिलोयपण्णत्ति/4/ गाथा 2. त्रिलोकसार/792-793 3. पद्मपुराण/3/75-88 4. हरिवंशपुराण/7/125-170 5. महापुराण/ पूर्ववत् |
हरिवंशपुराण/7/125-170
|
हरिवंशपुराण/7/173
|
हरिवंशपुराण/7/173
|
1. तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. 2. त्रिलोकसार/798 3. हरिवंशपुराण/7/174-175
|
1. तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. 2. त्रिलोकसार/795 3. हरिवंशपुराण/7/171-172 4. महापुराण/ पूर्ववत्
|
1. तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. 2. त्रिलोकसार/797
|
1. तिलोयपण्णत्ति/4/ गाथा 2. त्रिलोकसार/796 3. महापुराण/ पूर्ववत् 4. तिलोयपण्णत्ति/4/502-503 5. हरिवंशपुराण/7/148-170 |
1. तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
||||||||||
तिलोयपण्णत्ति |
|
अगला अगला कुलकर अपने से पूर्व-पूर्व का पुत्र है। |
सभी सम चतुरस्र संस्थान से युक्त हैं। |
सभी वज्र ऋषभ नाराच संहनन से युक्त हैं। |
तिलोयपण्णत्ति |
|
तिलोयपण्णत्ति |
धनुष |
तिलोयपण्णत्ति |
तिलोयपण्णत्ति |
दृष्टि सं.1 |
प्रमाण सं. |
दृष्टि सं.2 |
तिलोयपण्णत्ति |
|
|||
1 |
63-72 |
421 |
प्रतिश्रुति |
|
× |
422 |
1800 |
421 |
तृ.काल में 1/8पल्य, शेष में |
422 |
1/10 पल्य |
3-5 |
1/10 पल्य |
422 |
स्वयंप्रभा |
|||
2 |
76-89 |
430 |
सन्मति |
430 |
स्वर्ण |
431 |
1300 |
430 |
1/80 पल्य |
431 |
1/100 पल्य |
3-5 |
अमम |
431 |
यशस्वती |
|||
3 |
90-101 |
439 |
क्षेमंकर |
440 |
स्वर्ण |
440 |
800 |
439 |
1/800 पल्य |
440 |
1/1000 पल्य |
3-5 |
अटट |
440 |
सुनंदा |
|||
4 |
102-106 |
444 |
क्षेमंधर |
446 |
स्वर्ण |
445 |
775 |
444 |
1/8000 पल्य |
445 |
1/10,000 पल्य |
3-5 |
त्रुटित |
446 |
विमला |
|||
5 |
107-111 |
448 |
सीमंकर |
449 |
स्वर्ण |
449 |
750 |
448 |
1/80,000 पल्य |
449 |
1/1 लाख पल्य |
3-5 |
कमल |
450 |
मनोहरी |
|||
6 |
112-115 |
453 |
सीमंधर |
|
× |
454 |
725 |
453 |
1/8लाख पल्य |
454 |
1/10 लाख पल्य |
3-5 |
नलिन |
454 |
यशोधरा |
|||
7 |
116-119 |
457 |
विमल वाहन1 |
458 |
स्वर्ण |
458 |
700 |
457 |
1/80लाख पल्य |
458 |
1/1 करोड़ पल्य |
3-5 |
पद्म |
458 |
सुमति |
|||
8 |
120-124 |
460 |
चक्षुष्मान् |
|
×* |
461 |
675 |
460 |
1/8करोड़ पल्य |
461 |
1/10 करोड़ पल्य |
3-5 |
पद्मांग |
462 |
धारिणी |
|||
9 |
125-128 |
465 |
यशस्वी |
466 |
स्वर्ण* |
466 |
650 |
465 |
1/80करोड़ पल्य |
466 |
1/100 करोड़ पल्य |
3-5 |
कुमुद |
467 |
कांत माला |
|||
10 |
129-133 |
469 |
अभिचंद्र |
471 |
स्वर्ण |
470 |
625 |
469 |
1/800 करोड़ पल्य |
470 |
1/1000 करोड़ पल्य |
3-5 |
कुमुदांग |
467 |
श्रीमती |
|||
11 |
134-138 |
475 |
चंद्राभ |
476 |
स्वर्ण* |
476 |
600 |
475 |
1/8000 करोड़ पल्य |
476 |
1/10,000 करोड़ पल्य |
3-5 |
नयुत |
477 |
प्रभावती |
|||
12 |
139-145 |
482 |
मरुद्देव |
484 |
स्वर्ण |
483 |
575 |
482 |
1/80000 करोड़ पल्य |
483 |
1/1 लाख करोड़ पल्य |
3-5 |
नयुतांग |
484 |
सत्या |
|||
13 |
146-151 |
489 |
प्रसेनजित् |
490 |
स्वर्ण* |
490 |
550 |
489 |
1/8लाख करोड़ पल्य |
490 |
1/10 लाख करोड़ पल्य |
3-5 |
पर्व |
491 |
अमितमति |
|||
14 |
152-163 |
494 |
नाभिराय |
495 |
स्वर्ण |
495 |
525 |
494 |
1/80 लाख करोड़ पल्य |
491 |
1/100 लाख करोड़ पल्य |
3-5 |
1 करोड़ पूर्व |
495 |
मरुदेवी |
|||
1/8 पल्य |
किंचिदून 1 पल्य |
|||||||||||||||||
15 |
232 |
|
ऋषभ2 |
|
|
|
|
― |
देखो तीर्थंकर |
― |
|
|
|
|
|
|||
16 |
232 |
|
भरत3 |
|
|
|
|
― |
देखो चक्रवर्ती |
― |
|
|
|
|
|
|||
नोट―1. पद्म पुराण में विमलवाहन नाम नहीं दिया है और यशस्वी से आगे ‘विपुल’ नाम देकर कमी पूरी कर दी है। 2. महापुराण की अपेक्षा ऋषभ व भरत की गणना भी कुलकरों में करके उनका प्रमाण 16 दर्शाया गया है। * त्रिलोकसार की अपेक्षा नं.8 व 9 का वर्ण श्याम तथा सं.11 व 13 का धवल है। हरिवंशपुराण की अपेक्षा 8,9,13 का श्याम तथा सं. का धवल है। |
क्रम |
ति.प./4/मा. |
म.पु./3/श्लो. |
10. नाम |
11. दंड विधान |
12. तात्कालिक परिस्थिति |
13. उपदेश |
|
प्रमाण देखो पीछे |
1. तिलोयपण्णत्ति/4/452-474 2. त्रिलोकसार/498 3. हरिवंशपुराण/7/141-176 4. महापुराण/ पूर्ववत् |
1. तिलोयपण्णत्ति/ पूर्ववत् 2. त्रिलोकसार/799-802 3. पद्मपुराण/3/75-88 4. हरिवंशपुराण/7/125-170 4. महापुराण/ पूर्ववत् |
1. तिलोयपण्णत्ति/ पूर्ववत् 2. त्रिलोकसार/799-802 3. पद्मपुराण/3/75-88 4. हरिवंशपुराण/7/125-170 4. महापुराण/ पूर्ववत् |
||||
1 |
423-428 |
63-75 |
प्रतिश्रुति |
तिलोयपण्णत्ति/452 हा, |
हा=हाय; मा=मतकर; धिक्=धिक्कार |
चंद्र सूर्य के दर्शन से प्रजा भयभीत थी |
तेजांग जाति के कल्पवृक्षों की कमी के कारण अब दीखने लगे हैं। यह पहले भी थे पर दीखते न थे। इस प्रकार उनका परिचय देकर भय दूर करना। |
2 |
432-438 |
76-89 |
सन्मति |
तिलोयपण्णत्ति/452 हा, |
तेजांग जाति के कल्पवृक्षों का लोप। अंधकार व तारागण का दर्शन। |
अंधकार व ताराओं का परिचय देकर भय दूर करना। |
|
3 |
441-443 |
90-101 |
क्षेमंकर |
तिलोयपण्णत्ति/452 हा, |
व्याघ्रादि जंतुओं में क्रूरता के दर्शन। |
क्रूर जंतुओं से बचकर रहना तथा गाय आदि जंतुओं को पालने की शिक्षा। |
|
4 |
446-447 |
107-111 |
क्षेमंधर |
तिलोयपण्णत्ति/452 हा, |
व्याघ्रादि द्वारा मनुष्यों का भक्षण। |
अपनी रक्षार्थ दंड आदि का प्रयोग करने की शिक्षा। |
|
5 |
451-453 |
112-115 |
सीमंकर |
तिलोयपण्णत्ति/452 हा, |
कल्प वृक्षों की कमी के कारण उनके स्वामित्व पर परस्पर में झगड़ा। |
कल्पवृक्षों की सीमाओं का विभाजन। |
|
6 |
455-456 |
116-119 |
सीमंधर |
तिलोयपण्णत्ति/474 हा,मा, |
वृक्षों की अत्यंत हानि के कारण कलह में वृद्धि। |
वृक्षों को चिह्नित करके उनके स्वामित्व का विभाजन। |
|
7 |
459 |
120-124 |
विमलवाहन |
तिलोयपण्णत्ति/474 हा |
गमनागमन में बाधा का अनुभव। |
अश्वारोहण व गजारोहण की शिक्षा तथा वाहनों का प्रयोग। |
|
8 |
462-463 |
125-128 |
चक्षुष्मान् |
तिलोयपण्णत्ति/474 हा |
अबसे पहले अपनी संतान का मुख देखने से पहले ही माता-पिता मर जाते थे। पर अब संतान का मुख देखने के पश्चात् मरने लगे। |
संतान का परिचय देकर भय दूर करना। |
|
9 |
467-468 |
129-133 |
यशस्वी |
तिलोयपण्णत्ति/474 हा |
बालकों का नाम रखने तक जीने लगे। बालकों का बोलना व खेलना देखने तक जीने लगे। |
बालकों का नामकरण करने की शिक्षा बालकों को बोलना व खेलना सिखाने की शिक्षा। |
|
10 |
472-473 |
134-138 |
अभिचंद्र |
तिलोयपण्णत्ति/474 हा |
पुत्र-कलत्र के साथ लंबे काल तक जीवित रहने लगे। शीत वायु चलने लगी। |
सूर्य की किरणों से शीत निवारण की शिक्षा। |
|
11 |
478-481 |
134-138 |
चंद्राभ |
त्रिलोकसार हा, मा, धिक् |
मेघ, वर्षा, बिजली, नदी व पर्वत आदि के दर्शन। |
नौका व छातों का प्रयोग विधि तथा पर्वत पर सीढ़ियाँ बनाने की शिक्षा। |
|
12 |
484-486 |
139-145 |
मरुद्देव |
त्रिलोकसार हा, मा, धिक् |
बालकों के साथ जरायु की उत्पत्ति। |
जरायु दूर करने के उपाय की शिक्षा। |
|
13 |
491 |
146-151 |
प्रसेनजित् |
त्रिलोकसार हा, मा, धिक् |
1. नाभिनाल अत्यंत लंबा होने लगा। |
1.नाभिनाल काटने के उपाय की शिक्षा। |
|
14 |
496-500 |
152-163 |
नाभिराय |
त्रिलोकसार हा, मा, धिक् |
2. कल्पद्रुमों का अत्यंत अभाव। औषधि, धान्य व फलों आदि की उत्पत्ति। |
2.औषधियों व धान्य आदि की पहचान व विवेक कराया तथा उनका व दूध आदि का प्रयोग करने की शिक्षा दी। |
|
15 |
|
|
ऋषभदेव |
त्रिलोकसार हा, मा, धिक् |
स्व जात धान्यादि में हानि। मनुष्यों में अविवेक की उत्पत्ति। |
कृषि आदि षट् विद्याओं की शिक्षा। वर्ण व्यवस्था की स्थापना। |
|
16 |
|
|
भरत |
त्रिलोकसार हा, मा, धिक् |
|
|
2. कुलकर के अपर नाम व उनका सार्थक्य
तिलोयपण्णत्ति/4/507-509 णियजोगसुदं पढिदा खीणे आउम्हि ओहिणाण जुदा। उप्पज्जिदूण भोगे केई णरा ओहिणाणेणं।507। जादिभरणेण केई भोगमणुस्साण जीवणोवायं। भासंति जेण तेणं मणुणो भणिदा मुणिंदेहिं।508। कुलधारणादु सव्वे कुलधरणामेण भुवणविक्खादा। कुलकरणम्मि य कुसला कुल करणामेण सुपसिद्धा।509। = अपने योग्य श्रुत को पढ़कर इन राजकुमारों में से कितने ही आयु के क्षीण होने पर अवधिज्ञान के साथ भोगभूमि में मनुष्य उत्पन्न होकर अवधिज्ञान से और कितने ही जाति स्मरण से भोगभूमिज मनुष्यों को जीवन के उपाय बतलाते हैं, इसलिए मुनींद्रों के द्वारा ये मनु कहे जाते हैं।507-508। ये सब कुलों को धारण करने से कुलधर और कुलों के करने में कुशल होने से ‘कुलकर’ नाम से भी लोक में प्रसिद्ध हैं।509। ( महापुराण/3/210-211 )।
3. पूर्वभव संबंधी नियम
तिलोयपण्णत्ति/4/504 एदे चउदस मणुओ पदिसुदिपहुदी हु णाहिरायंता। पुव्व भवम्मि विदेहे राजकुमारा महाकुले जादा।504। = प्रतिश्रुति को आदि लेकर नाभिराय पर्यंत ये चौदह मनु पूर्वभव में विदेह क्षेत्र के भीतर महाकुल में राजकुमार थे।504।
4. पूर्वभव में संयम तप आदि संबंधी नियम
तिलोयपण्णत्ति/4/505-506 कुसला दाणादीसुं संजमतवणाणवंतपत्ताणं। णियजोग्ग अणुट्ठाणा मद्दवअज्जवगुणेहिं संजुत्ता।505। मिच्छत्तभावणाए भोगाउं बंधिऊण ते सव्वे। पच्छा खाइयसम्मं गेण्हंति जिणिंदचलणमूलम्हि।506। = वे सब संयम तप और ज्ञान से युक्त पात्रों के लिए दानादिक के देने में कुशल, अपने योग्य अनुष्ठान से युक्त, और मार्दव, आर्जव गुणों से सहित होते हुए पूर्व में मिथ्यात्व भावना से भोगभूमि की आयु को बाँधकर पश्चात् जिनेंद्र भगवान् के चरणों के समीप क्षायिक सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं।505-506। ( त्रिलोकसार/794 )।
5. उत्पत्ति व संख्या आदि संबंधी नियम
तिलोयपण्णत्ति/4/1569 वाससहस्से सेसे उप्पत्ती कुलकराण भरहम्मि। अथ चोद्दसाण ताणं कमेण णामाणि वोच्छामि। = इस काल में (चतुर्थ काल प्रारंभ होने में) 1000 वर्षों के शेष रहने पर भरत क्षेत्र में 14 कुलकरों की उत्पत्ति होने लगती है। (कुछ कम एक पल्य के 8वें भाग मात्र तृतीयकाल के शेष रहने पर प्रथम कुलकर उत्पन्न हुआ।–देखें शलाका पुरुष - 9.1)।
महापुराण/3/232 तस्मान्नाभिराजश्चतुर्दश:। वृषभो भरतेशश्च तीर्थचक्रभृतौ मनू।232। = चौदहवें कुलकर नाभिराय थे। इनके सिवाय भगवान् ऋषभदेव तीर्थंकर भी थे और मनु भी, तथा भरत चक्रवर्ती भी थे और मनु भी थे।
त्रिलोकसार/794 ...खइयसंदिट्ठी। इह खत्तियकुलजादा केइज्जाइब्भरा ओही।794। = क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कुलकर उपजते हैं। और भी क्षत्रिय कुल में जन्मते हैं। (यहाँ क्षत्रिय कुल का भावी में वर्तमान का उपचार किया है।)। ते कुलकर केइ तौ जाति स्मरण संयुक्त हैं, और कोई अवधिज्ञान संयुक्त है।