शुद्ध चेतना
From जैनकोष
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/192-195 स्वरूपं चेतना जंतो: सा सामान्यात्सदेकधा। सद्विशेषादपि द्वेधा क्रमात्सा नाक्रमादिह।192। एकधा चेतना शुद्धाशुद्धस्यैकविधत्वत:। शुद्धाशुद्धोपलब्धित्वाज्ज्ञानत्वाज्ज्ञानचेतना ।194। अशुद्धा चेतना द्वेधा तद्यथा कर्मचेतना। चेतनत्वात्फलस्यास्य स्यात्कर्मफलचेतना।195। =जीव के स्वरूप को चेतना कहते हैं, और वह सामान्यरूप से अर्थात् द्रव्यदृष्टि से सदा एक प्रकार की होती है। परंतु विशेष रूप से अर्थात् पर्याय दृष्टि से वह ही दो प्रकार होती है – शुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना।192। शुद्धात्मा को विषय करने वाला शुद्धज्ञान एक ही प्रकार का होने से शुद्ध चेतना एक ही प्रकार की है।194। अशुद्ध चेतना दो प्रकार की है – कर्मचेतना व कर्मफल चेतना।195।
अधिक जानकारी के लिये देखें चेतना - 1.3 ।