वर्ण व्यवस्था
From जैनकोष
गोत्रकर्म के उदय से जीवों का ऊँच तथा नीच कुलों में जन्म होता है, अथवा उनमें ऊँच व नीच संस्कारों की प्रतीति होती है । उस ही के कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चार प्रकार वर्णों की व्यवस्था होती है । इस वर्ण व्यवस्था में जन्म की अपेक्षा गुणकर्म अधिक प्रधान माने गये हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन ही वर्ण उच्च होने कारण जिन दीक्षा के योग्य हैं । शूद्रवर्ण नीच होने के कारण प्रव्रज्या के योग्य नहीं है । वह केवल उत्कृष्ट श्रावक तक हो सकता है ।
- गोत्रकर्म निर्देश
- गोत्रकर्म सामान्य का लक्षण ।
- गोत्रकर्म के दो अथवा अनेक भेद ।
- उच्च व नीचगोत्र के लक्षण ।
- गोत्रकर्म के अस्तित्व सम्बन्धी शंका ।
- उच्चगोत्र व तीर्थंकर प्रकृति में अन्तर ।
- उच्च-नीचगोत्र के बन्ध योग्य परिणाम ।
- उच्च-नीचगोत्र या वर्णभेद का स्वामित्व व क्षेत्र आदि ।
- तिर्यंचों व क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयतों में गोत्र सम्बन्धी विशेषता ।
- गोत्रकर्म के अनुभाग सम्बन्धी नियम ।
- दोनों गोत्रों का जघन्य व उत्कृष्ट काल ।
- गोत्रकर्म प्रकृति का बन्ध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ । - दे.वह वह नाम ।
- गोत्र परिवर्तन सम्बन्धी - दे.वर्ण व्यवस्था /३/३ ।
- गोत्रकर्म सामान्य का लक्षण ।
- वर्णव्यवस्था निर्देश
- उच्चता व नीचता में गुणकर्म व जन्म की कथंचित् प्रधानता व गौणता
- सम्यग्दृष्टि मरकर उच्चकुल में ही उत्पन्न होता है । - दे.जन्म/३/१ ।
- सम्यग्दृष्टि मरकर उच्चकुल में ही उत्पन्न होता है । - दे.जन्म/३/१ ।
- शूद्र निर्देश
- नीच कुलीन के घर साधु आहार नहीं लेते उनका स्पर्श होने पर स्नान करते हैं । - दे. भिक्षा/३ ।
- नीच कुलीन व अस्पृश्य के हाथ के भोजन पान का निषेध । - दे. भक्ष्याभक्ष्य/१।
- कृषि सर्वोत्कृष्ट उद्यम है । - दे. सावद्य/६ ।
- तीन उच्चवर्ण ही प्रव्रज्या के योग्य है । - दे. प्रव्रज्या/१/२ ।
- गोत्रकर्म निर्देश
- गोत्रकर्म सामान्य का लक्षण
स.सि./८/३, ४ पृष्ठ/पंक्ति गोत्रस्योच्चैर्नीचैः स्थानसंशब्दनम् । (३७९/२) । उच्चैर्नीचैश्च गूयते शब्द्यत इति वा गोत्रम् । (३८१/१) । =- उच्च और नीच स्थान का संशब्दन गोत्रकर्म की प्रकृति है । (रा.वा./८/३/४/५९७/५) ।
- जिसके द्वारा जीव उच्च नीच गूयते अर्थात् कहा जाता है वह गोत्रकर्म है ।
रा.वा./६/२५/५/५३१/६ गूयते शब्द्यते तदिति गोत्रम्, औणादिकेन त्रटा निष्पत्तिः । = जो गूयते अर्थात् शब्द व्यवहार में आवे वह गोत्र है ।
ध.६/१, ९-१, ११/१३/७ गमयत्युच्चनीचकुलमिति गोत्रम् । उच्चनीचकुलेसु उप्पादओ पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तदि-पच्चएहि जीवसंबद्धो गोदमिदि उच्चदे । = जो उच्च और नीच कुल को ले जाता है, वह गोत्रकर्म है । मिथ्यात्व आदि बन्धकारणों के द्वारा जीव के साथ सम्बन्धको प्राप्त एवं उच्च और नीच कुलों में उत्पन्न कराने वाला पुद्गलस्कन्ध ‘गोत्र’ इस नाम से कहा जाता है ।
ध.६/१, ९-१, ४५/७७/१० गोत्रं कुलं वंशः संतानमित्येकोऽर्थः । = गोत्र, कुल, वंश और सन्तान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं ।
ध.१३/५, ५, २०/२०९/१ गमयत्युच्चनीचमिति गोत्रम् । = जो उच्च नीच का ज्ञान कराता है वह गोत्र कर्म है ।
गो.क./मू./१३/९ संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा ।... ।१३ । = सन्तानक्रम से चला आया जो आचरण उसकी गोत्र संज्ञा है ।
द्र.सं./टी./३३/९३/१ गोत्रकर्मणः का प्रकृतिः। गुरु-लघुभाजनकारककुम्भकारवदुच्चनीचगोत्रकरणता । = छोटे बड़े घट आदि को बनाने वाले कुम्भकार की भाँति उच्च तथा नीच कुल का करना गोत्रकर्म की प्रकृति है ।
- गोत्रकर्म के दो अथवा अनेक भेद
ष.ख./६/१, ९-१/सू.४५/७७ गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ, उच्यागोदं चेव णिच्चागोदं चेव ।४५। = गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ हैं - उच्चगोत्र और नीचगोत्र । (ष.ख./१३/५, ५/सू.१३५/३८८); (मू.आ./१२३४); (त.सू./८/१२); (पं.सं./प्रा./२/४/४८/१६); (ध.१२/४, २, १४, १९/४८४/१३); (गो.क./जी.प्र./३३/२७/२) ।
ध.१२/४, २, १४, १९/४८४/१४ अवांतरभेदेण जदि वि बहुआवो अत्थि तो वि ताओ ण उत्तओ गंथबहुत्तभएण अत्थावत्तीए तदवगमादो । = अवान्तर भेद से यद्यपि वे (गोत्रकर्म की प्रकृतियाँ) बहुत हैं तो भी ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से अथवा अर्थापत्ति से उनका ज्ञान हो जाने के कारण उनको यहाँ नहीं कहा है ।
- उच्च व नीच गोत्र के लक्षण
स.सि./८/१२/३९४/१ यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् । यदुदयाद्गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैर्गोत्रम् । = जिसके उदय से लोकपूजित कुलों में जन्म होता है वह उच्च गोत्र है और जिसके उदय से गर्हित कुलों में जन्म होता है वह नीच गोत्र है । (गो.क./जी.प्र./३३/३०/१७) ।
रा.वा./८/१२/२, ३/५८०/२३ लोकपूजितेषु कुलेषु प्रथितमाहात्म्येषु इक्ष्वाकूपकुरुहरिज्ञातिप्रभृतिषु जन्म यस्योदया-द्भवति तदुच्चैर्गो-त्रमवसेयम् ।२ । गर्हितेषु दरिद्राप्रतिज्ञातदुःखाकुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तन्नीचैर्गोत्रं प्रत्येतव्यम् ।
रा.वा./६/२५/६/५३१/७ नीचैः स्थाने येनात्मा क्रियते तन्नीचैर्गोत्रम् । = जिसके उदय से महत्त्वशाली अर्थात् इक्ष्वाकु, उग्र, कुरु, हरि और ज्ञाति आदि वंशों में जन्म हो वह उच्चगोत्र है । जिसके उदय से निन्द्य अर्थात् दरिद्र अप्रसिद्ध और दुःखाकुल कुलों में जन्म हो वह नीचगोत्र है । जिससे आत्मा नीच व्यवहार में आवे वह नीचगोत्र है ।
ध.६/१, ९-१, ४५/७७/१० जस्स कम्मस्स उदएण उच्चगोदं होदि तमुच्चागोदं । गोत्रं कुलं वंशः संतानमित्येकोऽर्थः । जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं णीचगोदं होदितं णीचगोंद णाम । = गोत्र, कुल, वंश, सन्तान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं । जिस कर्म के उदय से जीवों के उच्चगोत्र कुल या वंश होता है वह उच्चगोत्र कर्म है और जिस कर्म के उदय से जीवों के नीचगोत्र, कुल या वंश होता है वह नीचगोत्रकर्म है ।
दे.अगला शीर्षक - (साधु आचार की योग्यता उच्चगोत्र का चिह्न है तथा उसकी अयोग्यता नीचगोत्र का चिह्न है ।)
- गोत्रकर्म के अस्तित्व सम्बन्धी शंका
ध.१३/५, ५, १३५/३८८/३ उच्चैर्गोत्रस्य क्व व्यापारः । न तावद् राज्यादिलक्षणायां संपदि, तस्याः सद्वेद्यतः समुत्पत्तेः । नापि पञ्चमहाव्रतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्ग्रहणं प्रत्यययोग्येषु उच्चैर्गोत्रस्य उदयाभावप्रसंगात् । न सम्यग्ज्ञानोत्पत्तै व्यापारः, ज्ञानावरणक्षयोपशमसहायसम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्तेः । तिर्यग्-नारकेष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयः स्यात्, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्तवात् । नादेयत्वे यशसि सौभाग्ये वा व्यपारः, तेषां नामतः समुत्पत्तेः । नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्तै, काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्वात् विड्ब्राह्मणसाधुष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयदर्शनात् । न संपन्नेभ्यो जीवोत्पत्तै तद्व्यापारः म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चैर्गोत्रोदयप्रसंगात् । नाणुव्रतिभ्यः समुत्पत्तै तद्व्यापारः, देवेष्वौपपादिकेषु उच्चैर्गोत्रो-दयस्यासत्त्वप्रसंगात् नाभेयस्य नीचैर्गोत्रतापत्तेश्च । ततो निष्फलमुच्चैर्गोत्रम् । तत एव न तस्य कर्मत्वमपि । तदभावे न नीचैर्गोत्रमपि, द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात् । ततो गोत्रकर्माभाव इति । न जिनवचनस्यासत्त्वविरोधात् । तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयोकृतेष्वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्यते । न च निष्फलं गोत्रम्, दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसंबन्धानां आर्यप्रत्ययाभिधान-व्यवहार-निबन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोत्रं तत्रोत्पत्तिहेतुकर्माप्युच्चैर्गोत्रम् । न चात्र पूर्वोक्तदोषाः संभवन्ति, विरोधात् । तद्विपरीतं नीचैर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य द्वे एव प्रकृती भवतः । = प्रश्न - उच्चगोत्र का व्यापार कहाँ होता है । राज्यादि रूप सम्पदा की प्राप्ति में तो उसका व्यापार होता नहीं है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति सातावेदनीयकर्म के निमित्त से होती है । पाँच महाव्रतों के ग्रहण करने की योग्यता भी उच्चगोत्र के द्वारा नहीं की जाती है, क्योंकि ऐसा मानने पर जो सब देव और अभव्य जीव पाँच महाव्रतों को धारण नहीं कर सकते हैं, उनमें उच्चगोत्र के उदय का अभाव प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में उसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि उसकी उत्पत्ति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से सहकृत सम्यग्दर्शन से होती है । तथा ऐसा मानने पर तिर्यचों और नारकियों के भी उच्चगोत्र का उदय मानना पड़ेगा, क्योंकि उनके सम्यग्ज्ञान होता है । आदेयता, यश और सौभाग्य की प्राप्ति में इसका व्यापार होता है; यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति नामकर्म के निमित्त से होती है । इक्ष्वाकु कुल आदि की उत्पत्ति में भी इसका व्यापार नहीं होता, क्योंकि वे काल्पनिक हैं, अतः परमार्थ से उनका अस्तित्व ही नहीं है । इसके अतिरिक्त वैश्य और ब्राह्मण साधुओं में उच्चगोत्र का उदय देखा जाता है । सम्पन्न जनों से जीवों की उत्पत्ति में उच्चगोत्र का व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि इस तरह तो म्लेच्छराज से उत्पन्न हुए बालक के भी उच्चगोत्र का उदय प्राप्त होता है । अणुव्रतियों से जीवों की उत्पत्ति में उच्चगोत्र का व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने पर औपपादिक देवों में उच्चगोत्र के उदय का अभाव प्राप्त होता है, तथा नाभिपुत्र नीचगोत्री ठहरते हैं । इसलिए उच्चगोत्र निष्फल है और इसलिए उसमें कर्मपना भी घटित नहीं होता । उसका अभाव होने पर नीचगोत्र भी नहीं रहता, क्योंकि वे दोनों एक-दूसरे के अविनाभावी हैं । इसलिए गोत्रकर्म है ही नहीं? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिनवचन के असत्य होने में विरोध आता है । वह विरोध भी वहाँ उसके कारणों के नहीं होने से जाना जाता है । दूसरे केवलज्ञान के द्वारा विषय किये गये सभी अर्थों में छद्मस्थों के ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होते हैं । इसीलिए छद्मस्थों को कोई अर्थ यदि नहीं उपलब्ध होते हैं, तो इससे जिनवचन को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । तथा गोत्रकर्म निष्फल है, यह बात भी नहीं है, क्योंकि जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है, साधु आचार वालों के साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है (ऐसे म्लेच्छ), तथा जो ‘आर्य’ (भोगभूमिज) इस प्रकार के ज्ञान और वचन व्यवहार के निमित्त हैं, उन पुरुषों की परम्परा को उच्चगोत्र कहा जाता है । तथा उनमें उत्पत्ति का कारण भूत कर्म भी उच्चगोत्र है । यहाँ पूर्वोक्त दोष सम्भव ही नहीं हैं, क्योंकि उनके होने में विरोध है । उससे विपरीत कर्म नीचगोत्र हैं । इस प्रकार गोत्रकर्म की दो ही प्रकृतियाँ होती हैं ।
दे. वर्ण व्यवस्था/३/१/म.पु./७४/४९१-४९५ - (ब्राह्मणादि उच्चकुल व शूद्रों में शरीर के वर्ण व आकृति का कोई भेद नहीं है, न ही कोई जातिभेद है । जो शुक्लध्यान के कारण हैं वे त्रिवर्ण कहलाते हैं और शेष शूद्र कहे जाते हैं ।)
ध.१५/१५२/७ उच्चगोदे देस-सयलसंजमणिबंधणे संते मिच्छाइट्ठीसु तद्भावो त्ति णासंकणिज्जं, तत्थ, वि उच्चागोदजणिदसजमजोगत्तवेक्खाए उच्चागोदत्त पडि विरोहाभावादो । = प्रश्न - यदि उच्चगोत्र के कारण देशसंयम और सकलसंयम हैं तो फिर मिथ्यादृष्टियों में उसका अभाव होना चाहिए? उत्तर - ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है, क्योंकि उनमें भी उच्चगोत्र के निमित्त से उत्पन्न हुई संयम ग्रहण की योग्यता की अपेक्षा उच्चगोत्र के होने में कोई विरोध नहीं है ।
- उच्चगोत्र व तीर्थंकर प्रकृति में अन्तर
रा.वा./८/११/४२/२८०/७ स्यान्मतं-तदेव उच्चैर्गोत्रं तीर्थंकरत्वस्यापि निमित्तं भवतु किं तीर्थंकरत्वनाम्नेति । तन्न; किं कारणम् । तीर्थप्रवर्तनफलत्वात् । तीर्थप्रवर्तनफलं हि तीर्थकरनामेष्यते नीच्चैर्गोत्रोदयात् तदवाप्यते चक्रधरादीनां तदभावात् । = प्रश्न - उच्चगोत्र हो तीर्थकरत्व का भी निमित्त हो जाओ । पृथक् से तीर्थकत्व नामकर्म मानने की क्या आवश्यकता? उत्तर - तीर्थ की प्रवृत्ति करना तीर्थंकर प्रकृति का फल है । यह उच्चगोत्र से नहीं हो सकता; क्योंकि उच्चगोत्री चक्रवर्ती आदि के वह नहीं पाया जाता । अतः इसका पृथक् निर्देश किया है । (और भी दे. नामकर्म/४) ।
- उच्च-नीचगोत्र के बन्ध योग्य परिणाम
भ.आ./मू./१३७५/१३२२ तथा १३८६ कुलरूवाणाबलसुदलाभिस्सरयत्थमदितवादीहिं । अप्पाणमुण्णमेंतो नीचागोदं कुणदि कम्मं ।१३७५। माया करेदि णीचगोदं..... ।१३८६। = कुल, रूप, आज्ञा, शरीरबल, शास्त्रज्ञान, लाभ, ऐश्वर्य, तप और अन्यपदार्थों से अपने को ऊँचा समझने वाला मनुष्य नीचगोत्र का बन्ध कर लेता है ।१३७५। माया से नीचगोत्र की प्राप्ति होती है ।१३८६।
त.सू./६/२५-२६ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।२५। तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य ।२६।
स.सि./६/२६/३४०/७ कः पुनरसौ विपर्ययः । आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादनं च । गुणोत्कृ-ष्टेषु विनयेनावनतिर्नीचैर्वृत्तिः । विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्तत्कृतमदविरहोऽनहंकारतानुत्सेकः । तान्येतान्युत्तरस्योच्चै-गौत्रस्यास्रवकारणानि भवन्ति । = परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के होते हुए गुणों को भी ढक देना और अपने अनहोत गुणों को भी प्रगट करना ये नीचगोत्र के आस्रव के कारण हैं ।२५। उनका विपर्यय अर्थात् आत्मनिन्दा परप्रशंसा, अपने होते हुए भी गुणों को ढकना और दूसरे के अनहोत भी गुणों को प्रगट करना, उत्कृष्ट गुण वालों के प्रति नम्रवृत्ति और ज्ञानादि में श्रेष्ठ होते हुए भी उसका अभिमान न करना, ये उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं । (त.सा./४/५३-५४) ।
रा.वा./६/२५/६/५३१/९ जातिकुलबलरूपश्रुताज्ञैश्वर्यतपोमदपरावज्ञानोत्प्रहसन-परपरिवादशीलताधार्मिकजननिन्दा-त्मोत्कर्षान्ययशोविलोपासत्कीर्त्युत्पादन-गुरुपरिभव-तदुद्धट्टन-दोषख्यापन-विहेडन-स्थानावमान-भर्त्सनगुणावसा-दन-अञ्जलिस्तुत्यभिवादनाकरण-तीर्थ-कराधिक्षेपादिः ।
रा.वा./६/२६/४/५३१/२० जातिकुलबलरूपवीर्यपरिज्ञानैश्वर्यतपोविशेषवतः आत्मोत्कर्षाप्रणिधानं परावरज्ञानौद्धत्य-निन्दासूयोपहासपरपरिवादननिवृत्तिः विनिहतमानता धर्म्यजनपूजाभ्युत्थानाञ्जलिप्रणतिवन्दना ऐदंयुगीनान्यपुरुषदुर्लभ-गुणस्याप्यनुत्सिक्तता, अहंकारात्यये नीचैर्वृत्तिता भस्मावृतस्येव हुतभुजः स्वमाहात्म्याप्रकाशनं धर्मसाधनेषु परमसंभ्रम इत्यादि । = जाति, बल, कुल, रूप, श्रुत, आज्ञा, ऐश्वर्य और तप का मद करना, परकी अवज्ञा, दूसरे की हँसी करना, परनिन्दा का स्वभाव, धार्मिकजन परिहास, आत्मोत्कर्ष, परयश का विलोप, मिथ्याकीर्ति अर्जन करना, गुरुजनों का परिभव, तिरस्कार, दोषख्यापन, विहेडन, स्थानावमान भर्त्सन और गुणावसादन करना, तथा अंजलिस्तुति-अभिवादन-अभ्युत्थान आदि न करना, तीर्थंकरों पर आक्षेप करना आदि नीचगोत्र के आस्रव के कारण हैं । जाति, कुल, बल, रूप, वीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और तप आदि की विशेषता होने पर भी अपने में बड़प्पन का भाव नहीं आने देना, पर का तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया, उपहास, बदनामी आदि न करना, मान नहीं करना, साधर्मी व्यक्तियों का सम्मान, इन्हें अभ्युत्थान अंजलि, नमस्कार आदि करना, इस युग में अन्य जनों में न पाये जाने वाले ज्ञान आदि गुणों के होने पर भी, उनका रंचमात्र अहंकार नहीं करना, निरहंकार नम्रवृत्ति, भस्म से ढँकी हुई अग्नि की तरह अपने माहात्म्य का ढिंढोरा नहीं पीटना और धर्मसाधनों में अत्यन्त आदरबुद्धि आदि भी उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं । (भ.आ./वि./४४६/६५३/३ तथा वहाँ उद्धृत ४ श्लोक)
गो.क./मू./८०९/९८४ अरहंतादिसु भत्ते सुत्तरुची पढणुमाणगुणपेही । बंधदि उच्चगोदं विवरीओ बंधदे इदरं ।८०९। = अर्हन्तादि में भक्ति, सूत्ररुचि, अध्ययन, अर्थविचार तथा विनय आदि, इन गुणों को धारण करने वाला उच्च गोत्र कर्म को बाँधता है और इससे विपरीत नीचगोत्र को बाँधता है ।
- उच्च-नीच गोत्र या वर्णभेद का स्वामित्व क्षेत्र आदि
ह.पुृ/७/१०२-१०३ आर्यामाह नरो नारीमार्यं नारी नरं निजम् । भोगभूमिनरस्त्रीणां नाम साधारणं हि तत् ।१०२। उत्तमा जातिरेकव चातुर्वर्ण्यं न षट्क्रियाः । न स्वस्वामिकृतः पुंसां संबन्धो न च लिङ्गिनः ।१०३। = वह पुरुष स्त्री को आर्या और स्त्री पुरुष को आर्य कहती है । यथार्थ में भोगभूमिज स्त्री-पुरुषों का वह साधारण नाम है ।१०२। उस समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है । वहाँ न ब्राह्मणादि चार वर्ण होते हैं और न ही असि, मसि आदि छह कर्म होते हैं, न सेवक और स्वामी का सम्बन्ध होता है और न वेषधारी ही होते हैं ।१०३।
दे.वर्णव्यवस्था/१/४ (सभी देव व भोगभूमिज उच्चगोत्री तथा सभी नारकी, तिर्यंच व म्लेच्छ नीचगोत्री होते हैं ।)
ध.१५/६१/६ उच्चगोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा । णवरि मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा सिया उदीरेदि, देवो देवी वा संजदो वा णियमा उदीरेंति, संजदासंजदो सिया उदीरेदि । णीचगोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव संजदासंजदस्स उदीरणा । णवरि देवेसु णत्थि उदीरणा, तिरिक्खणेरइएसु णियमा उदीरणा, मणुसेसुं सिया उदीरणा । एवं सामित्तं समत्तं । = उच्चगोत्र की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली के अन्तिम समय तक होती है । विशेष इतना है, कि मनुष्य और मनुष्यणी तथा संयतासंयत जीव कदाचित् उदीरणा करते हैं । देव, देवी तथा संयत जीव उसकी उदीरणा नियम से करते हैं । नीचगोत्र की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक होती है, विशेष इतना है कि देवों में उसकी उदीरणा सम्भव नहीं है, तिर्यंचों व नारकियों में उसकी उदीरणा नियम से तथा मनुष्यों में कदाचित् होती है ।
म.पु./७४/४९४-४९५ अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः । तद्धेतुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छिन्नसंभवात् ।४९४। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः । एवं वर्ण विभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ।४९५। = विदेह क्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है ।४९४। किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थ काल में ही जाति की परम्परा चलती है, अन्य कालों में नहीं । जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बताया गया है ।४९५।
त्रि.सा./७९० तद्दंपदोणमादिसंहदिसंठाणमज्जणामजुदा । = वे भोगभूमिज दंपति आर्य नाम से युक्त होते हैं । (म.पु./३/७५)
- तिर्यंचों व क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयतों में गोत्र सम्बन्धी विशेषता
ध.८/३, २७८/३६३/१० खइयसम्माइट्ठिसंजदासंजदेसु उच्चगोदस्स सोदओ णिरंतरो बंधो, तिरिक्खेसु खइयसम्माइट्ठीसु संजदासंजदाणमणुवलंभादो । = क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयतों में उच्चगोत्र का स्वोदय एवं निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत जीव पाये नहीं जाते ।
ध.१५/१५२/४ तिरिक्खेसु णीचागोदस्स चेव उदीरणा होदि त्ति भणिदेण, तिरिक्खेसु संजमासंजमं परिवालयंतेस उच्चगोदत्तुवलंभादो । = प्रश्न - तिर्यंचों में नीचगोत्र की ही उदीरणा होती है, ऐसी प्ररूपणा सर्वत्र की गयी है । परन्तु यहाँ उच्चगोत्र की भी उनमें प्ररूपणा की गयी है, अतएव इससे पूर्वापर कथन में विरोध आता है? उत्तर - ऐसा कहने पर उत्तर देते हैं कि इसमें पूर्वापर विरोध नहीं है, क्योंकि संयमासंयम को पालने वाले तिर्यंचों में उच्च गोत्र पाया जाता है ।
- गोत्रकर्म के अनुभाग सम्बन्धी नियम
ध.१२/४, २, १९८/४४०/२ सव्वुकस्सविसोहीए हदसमुप्पत्तियं कादूण उप्पाइदजहण्णाणुभागं पेक्खिय सुहुमसांपराइएण सव्वविसुद्धेण बद्धुच्चागोदुक्कस्साणुभागस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो । गोदजहणाणुभागे वि उच्चगोदाणुभागो अत्थि त्ति णासंकणिज्जं, बादरतेउक्काइएसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण उव्वेलिद उच्चागोदेसु अइविसोहीए घादिदणीचागोदेसु गोदस्स जहण्णाणुभागब्भुवगमादो ।
ध.१२/४, २, १३, २०४/४४१/६ बादरतेउवाउक्काइएसु उक्कस्सविसोहीए घादिदणीचगोदाणुभागेसु गोदाणुभागं जहण्णं करिय तेण जहण्णाणुभागेण सह उजुगदीए सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जिय तिसमयाहार-तिसमय तव्भवत्थस्स खेत्तेण सह भावो जहण्णओ किण्ण जायदे । ण, बादरतेउवाउक्काइयपज्जत्तएसु जादजहणाणुभागेण सह अण्णत्थ उप्पत्तीए अभावादो । जदि अण्णत्थ उप्पज्जदि तो णियमा अणंतगुणवड्ढीए वड्ढिदो चेव उप्पज्जदि ण अण्णहा । = सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि के द्वारा हत्समुत्पत्ति को करके उत्पन्न कराये गये जघन्य अनुभाग की अपेक्षा सर्व विशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक संयत के द्वारा बाँधा गया उच्चगोत्र का उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है । प्रश्न - गोत्र के जघन्य अनुभाग में भी उच्चगोत्र का जघन्य अनुभाग होता है? उत्तर - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिन्होंने पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल के द्वारा उच्चगोत्र का उद्वेलन किया है व जिन्होंने अतिशय विशुद्धि के द्वारा नीचगोत्र का घात कर लिया है उन बादर तेजस्कायिक जीवों में गौत्र का जघन्य अनुभाग स्वीकार किया गया है । अतएव गोत्र के जघन्य अनुभाग में उच्चगोत्र का अनुभाग सम्भव नहीं है । प्रश्न - जिन्होंने उत्कृष्ट विशुद्धि के द्वारा नीचगोत्र के अनुभाग का घात कर लिया है, उन बादर तेजस्कायिक व वायुकायिक जीवों में गोत्र के अनुभाग को जघन्य करके उस जघन्य अनुभाग के साथ ॠजुगति के द्वारा सूक्ष्म निगोद् जीवों में उत्पन्न होकर त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होने के तृतीय समय में वर्तमान उसके क्षेत्र के साथ भाव जघन्य क्यों नहीं होता? उत्तर - नहीं, क्योंकि बादर तेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्त जीवों में उत्पन्न जघन्य अनुभाग के साथ अन्य जीवों में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है । यदि वह अन्य जीवों में उत्पन्न होता है तो नियम से वह अनन्तगुण वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है, अन्य प्रकार से नहीं ।
- दोनों गोत्रों का जघन्य व उत्कृष्ट काल
ध.१५/६७/८ णीचगोदस्स जहण्णेण एगसमओ, उच्चगोदादो णीचागोदं गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय विदियसमए उच्चगोदो उदयमागदे एगसमओ लब्भदे । उक्कस्सेण अंसंखेच्चापरियट्ठा । उच्चागोदस्स जहण्णेण एयसमओ, उत्तरसरीरं विउव्विय एगसमएण मुदस्स तदुवलंभादो । एवं णीचागोदस्स वि । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । = नीचगोत्र का उदीरणाकाल जघन्य से एक समय मात्र है, क्योंकि उच्चगोत्र से नीच गोत्र को प्राप्त होकर और वहाँ एक समय रहकर द्वितीय समय में उच्चगोत्र का उदय होने पर एक समय उदीरणाकाल पाया जाता है । उत्कर्ष से वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । (तिर्यंच गति में उत्कृष्ट रूप इतने काल तक रह सकता है) । उच्चगोत्र का उदीरणाकाल जघन्य से एक समय मात्र है, क्योंकि उत्तर शरीर की विक्रिया करके एक समय में मृत्यु को प्राप्त हुए जीव के उक्त काल पाया जाता है । (उच्चगोत्री शरीर वाला तो नीचगोत्री के शरीर की विक्रिया करके तथा नीचगोत्री उच्चगोत्री के शरीर की विक्रिया करके एक समय पश्चात् मृत्यु को प्राप्त होवे) नीचगोत्र का भी जघन्यकाल इसी प्रकार से घटित किया जा सकता है । उच्चगोत्र का उत्कृष्ट काल सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमाण है । (देवों व मनुष्यों में भ्रमण करता रहे तो) (और भी दे.वर्ण व्यवस्था/३/३) ।
- गोत्रकर्म सामान्य का लक्षण