GP:प्रवचनसार - गाथा 117 - अर्थ
From जैनकोष
[अथ] वहाँ [नामसमाख्यं कर्म] 'नाम' संज्ञावाला कर्म [स्वभावेन] अपने स्वभाव से [आत्मनः स्वभावं अभिभूय] जीव के स्वभाव का पराभव करके, [नरं तिर्यञ्चं नैरयिकं वा सुरं] मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव (-इन पर्यायों को) [करोति] करता है ।