GP:प्रवचनसार - गाथा 138 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
काल, द्रव्य से प्रदेशमात्र होने से, अप्रदेशी ही है । और उसे पुद्गल की भाँति पर्याय से भी अनेक-प्रदेशीपना नहीं है; क्योंकि परस्पर अन्तर के बिना १प्रस्ताररूप विस्तृत प्रदेशमात्र असंख्यात काल द्रव्य होने पर भी परस्पर संपर्क न होने से एक-एक आकाश प्रदेश को व्याप्त करके रहने वाले काल-द्रव्य की वृत्ति तभी होती है (अर्थात् कालाणु की परिणति तभी निमित्तभूत होती है) कि जब १प्रदेशमात्र परमाणु उस (कालाणु) से व्याप्त एक आकाश-प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन करता हो ॥१३८॥
१प्रस्तार = विस्तार । (असंख्यात काल-द्रव्य समस्त लोकाकाश में फैले हुए हैं । उनके परस्पर अन्तर नहीं है, क्योंकि प्रत्येक आकाश-प्रदेश में एक-एक काल-द्रव्य रह रहा है ।)
२प्रदेशमात्र = एकप्रदेशी । (जब एकप्रदेशी ऐसा परमाणु किसी एक आकाश-प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन कर रहा हो तभी उस आकाश-प्रदेश में रहने वाले काल-द्रव्य की परिणति उसमें निमित्त भूतरूप से वर्तती है ।)