GP:प्रवचनसार - गाथा 172 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
आत्मा
- रसगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से,
- रूपगुण के अभावरूप स्वभाववाला होने से,
- गंधगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से,
- स्पर्शगुण रूप व्यक्तता के अभावरूप स्वभाववाला होने से,
- शब्द पर्याय के अभावरूप स्वभाववाला होने से, तथा
- इन सबके कारण (अर्थात् रस-रूप-गंध इत्यादि के अभावरूप स्वभाव के कारण) लिंग के द्वारा अग्राह्य होने से और
- सर्व संस्थानों के अभावरूप स्वभाववाला होने से,
- अरसत्व,
- अरूपत्व,
- अगंधत्व,
- अव्यक्तता,
- अशब्दत्व,
- अलिंगग्राह्यत्व और
- असंस्थानत्व
जहाँ 'अलिंगग्राह्य' करना है वहाँ जो 'अलिंगग्रहण' कहा है, वह बहुत से अर्थों की प्रतिपत्ति (प्राप्ति, प्रतिपादन) करने के लिये है । वह इस प्रकार है :—
- ग्राहक (ज्ञायक) जिसके लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा अतीन्द्रियज्ञानमय है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- ग्राह्य (ज्ञेय) जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जैसे धुएँ से अग्नि का ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंग द्वारा, अर्थात् इन्द्रियगम्य (इन्द्रियों से जानने योग्य चिह्न) द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है । इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- दूसरों के द्वारा—मात्र लिंग द्वारा ही जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा अनुमेय मात्र नहीं है' (आत्मा केवल अनुमान से ही ज्ञात होने योग्य नहीं है) ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसके लिंग से ही पर का ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा अनुमाता मात्र नहीं है' (आत्मा केवल अनुमान करने वाला नहीं है) ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसके लिंग के द्वारा नहीं किन्तु स्वभाव के द्वारा ग्रहण होता है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसके लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण नहीं है अर्थात् ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा के बाह्य पदार्थों का आलम्बनवाला ज्ञान नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जो लिंग को अर्थात् उपयोग नामक लक्षण को ग्रहण नहीं करता अर्थात् स्वयं (कहीं बाहर से) नहीं लाता सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा जो कहीं से नहीं लाया जाता ऐसे ज्ञानवाला है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग का अर्थात् उपयोगनामक लक्षण का ग्रहण अर्थात् पर से हरण नहीं हो सकता सो अलिंग ग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा के ज्ञान का हरण नहीं किया जा सकता' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसे लिंग में अर्थात् उपयोगनामक लक्षण में ग्रहण अर्थात् सूर्य की भाँति उपराग (मलिनता, विकार) नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा शुद्धोपयोगस्वभावी है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण अर्थात् पौद्गलिक कर्म का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त (असंबद्ध) है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसे 'लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण अर्थात् विषयों का उपभोग नहीं है’ सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग द्वारा अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षण के द्वारा ग्रहण अर्थात् जीवत्व को धारण कर रखना जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा शुक्र और आर्तव (रक्त) को अनुविधायी (अनुसार होने-वाला) नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग का अर्थात् मेहनाकार (पुरुषादि की इन्द्रिय का आकार) का ग्रहण जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा लौकिक साधन-मात्र नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग के द्वारा अर्थात् अमेहनाकार के द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोक में व्यापकत्व नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधनरूप आकार वाला—लोकव्याप्तिवाला नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- जिसके लिंगों का अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों का ग्रहण नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा द्रव्य से तथा भाव से स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है
- लिंगों का अर्थात् धर्मचिह्नों का ग्रहण जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग अर्थात् गुण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध (पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा गुणविशेष से आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग अर्थात् पर्याय ऐसा जो ग्रहण, अर्थात् अर्थावबोध-विशेष जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा पर्यायविशेष से आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
- लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा द्रव्य से नहीं आलिंगित ऐसी शुद्ध पर्याय है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ॥१७२॥