GP:प्रवचनसार - गाथा 175 - अर्थ
From जैनकोष
[यः हि पुन:] जो [उपयोगमय: जीव:] उपयोगमय जीव [विविधान् विषयान्] विविध विषयों को [प्राप्य] प्राप्त करके [मुह्यति] मोह करता है, [रज्यति] राग करता है, [वा] अथवा [प्रद्वेष्टि] द्वेष करता है, [सः] वह जीव [तै:] उनके द्वारा (मोह-राग-द्वेष के द्वारा) [बन्ध:] बन्धरूप है ।