GP:प्रवचनसार - गाथा 183 - अर्थ
From जैनकोष
[यः] जो [एवं] इस प्रकार [स्वभावम् आसाद्य] स्वभाव को प्राप्त करके (जीव-पुद्गल के स्वभाव को निश्चित करके) [परम् आत्मानं] पर को और स्व को [न एव जानाति] नहीं जानता, [मोहात्] वह मोह से [अहम्] यह मैं हूँ [इदं मम] यह मेरा है [इति] इस प्रकार [अध्यवसानं] अध्यवसान [कुरुते] करता है ।