GP:प्रवचनसार - गाथा 203 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[समणं] निन्दा प्रशंसा आदि में समान हृदयी-समता भाववाले होने से पहले (२१६ वी) गाथा में कहे गये निश्चय पंचाचार और व्यवहार पंचाचार का आचरण करने और कराने में प्रवीण-चतुर होने के कारण श्रमण हैं । [गुणड्ढं] चौरासी लाख गुणों और अठारह हजार शीलों के सहकारी कारणभूत, उत्तम अपने शुद्धात्मा की अनुभूति रूपी गुण से आढ्य - भरे हुए - परिपूर्ण होने के कारण गुणाढ्य हैं । [कुलरूववयोविसिट्ठं] लोक सम्बन्धी दुगुंच्छा - घृणा - निन्दा से रहित होने के कारण जिन-दीक्षा के योग्य को कुल कहते हैं । अन्दर में शुद्धात्मा की अनुभूति को बतानेवाले, परिग्रहरहित (गाँठ रहित), विकार रहित वेष को रूप कहते हैं । शुद्धात्मा की अनुभूति को नष्ट करनेवाली वृद्धावस्था, बालावस्था, और यौवनावस्था सम्बन्धी उद्रेक से उत्पन्न बुद्धि की विकलता से रहित वय है । उन कुल-रूप और वय से विशिष्ट होने के कारण कुल-रूप-वय विशिष्ट हैं । [इट्ठदरं] इष्टतर-सम्मत-स्वीकृत हैं । किनसे स्वीकृत हैं? [समणेहिं] अपने परमात्म तत्त्व की भावना से सहित, समचित्त-समभाव परिणत श्रमणों-अन्य आचार्यों से स्वीकृत है । [गणिं] इसप्रकार के गुणों से विशिष्ट, परमात्मभावना के साधक, दीक्षा देनेवाले आचार्य के आश्रित होता है । [तं पि पणदो] न केवल उन आचार्य के आश्रित होता है, वरन् प्रणत-नम्रीभूत-नमन करनेवाला भी होता है । किस रूप में प्रणत होता है? [पडिच्छ मं] हे भगवन्! अनन्त ज्ञान आदि अपने गुणों रूपी सम्पत्ति की प्रगटता की कारणभूत, अनादि काल में अत्यन्त दुर्लभ, भाव सहित जिनदीक्षा को प्रदान करनेरूप प्रसाद से, मुझे स्वीकार करें - इसप्रकार प्रणत होता है । [चेदि अणुगहिदो] न केवल प्रणत होता है, अपितु उन आचार्य द्वारा अनुग्रहीत-स्वीकार भी किया जाता है । हे भव्य! सार रहित संसार में दुर्लभ बोधि-रत्नत्रय को प्राप्तकर, शुद्धात्मा की भावनारूप निश्चय चार प्रकार की आराधना से मनुष्य जन्म को सफल करो - इसप्रकार अनुगृहीत होता है - ऐसा अर्थ है ।