GP:प्रवचनसार - गाथा 204 - अर्थ
From जैनकोष
[अहं] मैं [परेषां] दूसरों का [न भवामि] नहीं हूँ [परे मे न] पर मेरे नहीं हैं, [इह] इस लोक में [मम] मेरा [किंचित्] कुछ भी [न अस्ति] नहीं है - [इति निश्चित:] ऐसा निश्चयवान् और [जितेन्द्रिय:] जितेन्द्रिय होता हुआ [यथाजातरूपधर:] यथाजातरूपधर (सहजरूपधारी) [जात:] होता है ॥२०४॥