GP:प्रवचनसार - गाथा 217 - अर्थ
From जैनकोष
[जीव:] जीव [म्रियतां वा जीवतु वा] मरे या जिये, [अयताचारस्य] आयत्नाचारी (अप्रयत आचार वाले) के [हिंसा] (अंतरंग) हिंसा [निश्चिता] निश्चित है; [प्रयतस्य समितस्य] प्रयत के, समितिवान् के [हिंसामात्रेण] (बहिरंग) हिंसामात्र से [बन्ध:] बंध [नास्ति] नहीं है ।