GP:प्रवचनसार - गाथा 226.1 - अर्थ
From जैनकोष
चार प्रकार के क्रोधादि से, चार प्रकार की विकाथाओं से, उसीप्रकार इन्द्रियों के विषयों से, स्नेह और निद्रा से उपयुक्त होता हुआ श्रमण प्रमत्त होता है ।
चार प्रकार के क्रोधादि से, चार प्रकार की विकाथाओं से, उसीप्रकार इन्द्रियों के विषयों से, स्नेह और निद्रा से उपयुक्त होता हुआ श्रमण प्रमत्त होता है ।