GP:प्रवचनसार - गाथा 230 - अर्थ
From जैनकोष
[बाल: वा] बाल, [वृद्ध: वा] वृद्ध [श्रमाभिहत: वा] श्रांत [पुन: ग्लानः वा] या ग्लान श्रमण [मूलच्छेद:] मूल का छेद [यथा न भवति] जैसा न हो उस प्रकार से [स्वयोग्यां] अपने योग्य [चर्यां चरतु] आचरण आचरो ।
[बाल: वा] बाल, [वृद्ध: वा] वृद्ध [श्रमाभिहत: वा] श्रांत [पुन: ग्लानः वा] या ग्लान श्रमण [मूलच्छेद:] मूल का छेद [यथा न भवति] जैसा न हो उस प्रकार से [स्वयोग्यां] अपने योग्य [चर्यां चरतु] आचरण आचरो ।