GP:प्रवचनसार - गाथा 238 - अर्थ
From जैनकोष
[यत् कर्म] जो कर्म [अज्ञानी] अज्ञानी [भवशतसहस्रकोटिभि:] लक्षकोटि भवों में [क्षपयति] खपाता है, [तत्] वह कर्म [ज्ञानी] ज्ञानी [त्रिभि: गुप्त:] तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से गुप्त होने से [उच्छ्वासमात्रेण] उच्छ्वासमात्र में [क्षपयति] खपा देता है ।