GP:प्रवचनसार - गाथा 266 - अर्थ
From जैनकोष
[यः] जो श्रमण [यदि गुणाधर: भवन्] गुणों में हीन होने पर भी [अपि श्रमण: भवामि] मैं भी श्रमण हूँ, [इति] ऐसा मानकर अर्थात् गर्व करके [गुणत: अधिकस्य] गुणों में अधिक (ऐसे श्रमण) के पास से [विनयं प्रत्येषक:] विनय (करवाना) चाहता है [सः] वह [अनन्तसंसारी भवति] अनन्तसंसारी होता है ॥२६६॥