GP:प्रवचनसार - गाथा 28 - अर्थ
From जैनकोष
[ज्ञानी] आत्मा [ज्ञानस्वभाव:] ज्ञान स्वभाव है [अर्था: हि] और पदार्थ [ज्ञानिनः] आत्मा के [ज्ञेयात्मका:] ज्ञेय स्वरूप हैं [रूपाणि इव चक्षुषो:] जैसे कि रूप (रूपी पदार्थ) नेत्रों का ज्ञेय है वैसे [अन्योन्येषु] वे एक-दूसरे में [न एव वर्तन्ते] नहीं वर्तते ॥२८॥