GP:प्रवचनसार - गाथा 34 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ज्ञान के श्रुत-उपाधिकृत भेद को दूर करते हैं (अर्थात् ऐसा बतलाते हैं कि श्रुतज्ञान भी ज्ञान ही है, श्रुतरूप उपाधि के कारण ज्ञान में कोई भेद नहीं होता) :-
प्रथम तो श्रुत ही सूत्र है; और वह सूत्र भगवान अर्हन्त-सर्वज्ञ के द्वारा स्वयं जानकर उपदिष्ट १स्यात्कार चिन्हयुक्त, पौदगलिक शब्दब्रह्म है । उसकी २ज्ञप्ति (शब्दब्रह्म को जाननेवाली ज्ञातृ-क्रिया) सो ज्ञान है; श्रुत (सूत्र) तो उसका (ज्ञान का) कारण होने से ज्ञान के रूप में उपचार से ही कहा जाता है (जैसे कि अन्न को प्राण कहा जाता है) । ऐसा होने से यह फलित हुआ कि 'सूत्र की ज्ञप्ति' सो श्रुतज्ञान है । अब यदि सूत्र तो उपाधि होने से उसका आदर न किया जाये तो 'ज्ञप्ति' ही शेष रह जाती है; ('सूत्र की ज्ञप्ति' कहने पर निश्चय से ज्ञप्ति कहीं पौद्गलिक सूत्र की नहीं, किन्तु आत्मा की है; सूत्र ज्ञप्ति का स्वरूप-भूत नहीं, किन्तु विशेष वस्तु अर्थात् उपाधि है; क्योंकि सूत्र न हो तो वहाँ भी ज्ञप्ति तो होती ही है । इसलिये यदि सूत्र को न गिना जाय तो 'ज्ञप्ति' ही शेष रहती है ।) और वह (ज्ञप्ति) केवली और श्रुतकेवली के आत्मानुभवन में समान ही है । इसलिये ज्ञान में श्रुत-उपाधिकृत भेद नहीं है ॥३४॥
१स्यात्कार = 'स्यात्' शब्द । (स्यात् = कथंचित्; किसी अपेक्षा से)
२ज्ञप्ति = जानना; जानने की क्रिया; जानन-क्रिया