GP:प्रवचनसार - गाथा 40 - अर्थ
From जैनकोष
[ये] जो [अक्षनिपतितं] अक्षपतित अर्थात् इन्द्रिय-गोचर [अर्थं] पदार्थ को [ईहापूवैं:] ईहादिक द्वारा [विजानन्ति] जानते हैं, [तेषां] उनके लिये [परोक्षभूतं] परोक्षभूत पदार्थ को [ज्ञातुं] जानना [अशक्यं] अशक्य है [इति प्रज्ञप्तं] ऐसा सर्वज्ञ-देव ने कहा है ॥४०॥