GP:प्रवचनसार - गाथा 83 - अर्थ
From जैनकोष
[जीवस्य] जीवके [द्रव्यादिकेषु मूढ: भाव:] द्रव्यादि सम्बन्धी मूढ़ भाव (द्रव्य-गुण-पर्याय सम्बन्धी जो मूढ़तारूप परिणाम) [मोह: इति भवति] वह मोह है [तेन अवच्छन्न:] उससे आच्छादित वर्तता हुआ जीव [रागं वा द्वेषं वा प्राप्य] राग अथवा द्वेष को प्राप्त कर के [क्षुभ्यति] क्षुब्ध होता है ॥८३॥