GP:प्रवचनसार - गाथा 91 - अर्थ
From जैनकोष
[यः हि] जो (जीव) [श्रामण्ये] श्रमणावस्था में [एतान् सत्ता-संबद्धान् सविशेषतान्] इन 'सत्तासंयुक्त' सविशेष (सामान्य-विशेष) पदार्थों की [न एव श्रद्दधाति] श्रद्धा नहीं करता, [सः] वह [श्रमण: न] श्रमण नहीं है; [ततः धर्म: न संभवति] उससे धर्म का उद्भव नहीं होता (अर्थात् उस श्रमणाभास के धर्म नहीं होता) ॥९१॥