ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 157 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे । (157)
जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स ॥169॥
अर्थ:
[यः] जो [जिनेन्द्रान्] जिनेन्द्रों को [जानाति] जानता है, [सिद्धान् तथैव अनागारान्] सिद्धों तथा अनागारों की (आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं की) [पश्यति] श्रद्धा करता है, [जीवेषु सानुकम्प:] और जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त है, [तस्य] उसके [सः] वह [शुभ: उपयोग:] शुभ उपयोग है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ विशेषेण शुभोपयोगस्वरूपं व्याख्याति --
जो जाणादि जिणिंदे यः कर्ता जानाति । कान् । अनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहितान् क्षुधाद्यष्टा-दशदोषरहितांश्च जिनेन्द्रान् । पेच्छदि सिद्धे पश्यति । कान् । ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मरहितान्सम्यक्त्वाद्यष्ट-गुणान्तर्भूतानन्तगुणसहितांश्च सिद्धान् । तहेव अणगारे तथैवानागारान् । अनागारशब्दवाच्यान्निश्चय-व्यवहारपञ्चाचारादियथोक्तलक्षणानाचार्योपाध्यायसाधून् । जीवेसु साणुकंपो त्रसस्थावरजीवेषु सानुकम्पःसदयः । उवओगो सो सुहो स इत्थंभूत उपयोगः शुभो भण्यते । स च कस्य भवति । तस्स तस्य पूर्वोक्त-लक्षणजीवस्येत्यभिप्रायः ॥१५७॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जो जाणादि जिणिन्दे] - कर्तारूप जो जानता है । किन्हें जानता है? अनन्तज्ञान आदि चतुष्टय सहित और क्षुधा (भूख) आदि अठारह दोषों से रहित जिनेन्द्र भगवन्तों को जानता है । [पेच्छदि सिद्धे] - श्रद्धान करता है । किनका श्रद्धान करता है? ज्ञानावरणादि आठ कर्म रहित और सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में गर्भित अनन्तगुण सहित सिद्धों का श्रद्धान करता है । [तहेव अणगारे] - उसी प्रकार अनागारों-मुनिराजों का श्रद्धान करता है । अनागार शब्द से वाच्य - कहे जाने वाले निश्चय-व्यवहार पाँच आचार आदि यथोक्त लक्षण वाले आचार्य-उपाध्याय-साधुओं का श्रद्धान करता है । [जीवेसु साणुकम्पो] - त्रस और स्थावर जीवों में सानुकम्प-दया से सहित है । [उवओगो सो सुहो] - वह इस प्रकार का उपयोग शुभ कहलाता है । और वह शुभ उपयोग किसके होता है? [तस्य] - उस पहले कहे हुये लक्षण वाले जीव के होता है - ऐसा अभिप्राय है ॥१६९॥