ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 176 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये । (176)
रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो ॥188॥
अर्थ:
[जीव:] जीव [येन भावेन] जिस भाव से [विषये आगत] विषयागत पदार्थ को [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है, [तेन एव] उसी से [रज्यति] उपरक्त होता है; [पुन:] और उसी से [कर्म बध्यते] कर्म बँधता है;—[इति] ऐसा [उपदेश:] उपदेश है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ भावबन्धयुक्तिं द्रव्यबन्धस्वरूपं प्रज्ञापयति -
अयमात्मा साकारनिराकारपरिच्छेदात्मकत्वात्परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थजातं येनैव मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेन पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यत एव । योऽयमुपराग: स खलु स्निग्धरुक्षत्वस्थानीयो भावबन्ध: । अथ पुनस्तेनैव पौद्गलिकं कर्म बध्यत एव । इत्येष भावबन्धप्रत्ययो द्रव्यबन्ध: ॥१७६॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिभास-स्वरूप (ज्ञान और दर्शनस्वरूप) होने से प्रतिभास्य (प्रतिभासित होने योग्य) पदार्थ-समूह को जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव से देखता है और जानता है, उसी से उपरक्त होता है । जो यह उपराग (विकार) है वह वास्तव में स्निग्ध-रूक्षत्व-स्थानीय भावबंध है । और उसी से अवश्य पौद्गलिक कर्म बँधता है । इस प्रकार यह द्रव्यबंध का निमित्त भावबंध है ॥१७६॥