ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 182 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा । (182)
अण्णा ते जीवादो जीवो वि य तेहिंदो अण्णो ॥194॥
अर्थ:
[अथ] अब [स्थावरा: च त्रसा:] स्थावर और त्रस ऐसे जो [पृथिवीप्रमुखा:] पृथ्वी आदि [जीव निकाया:] जीवनिकाय [भणिता:] कहे गये हैं [ते] वे [जीवात् अन्ये] जीव से अन्य हैं, [च] और [जीव: अपि] जीव भी [तेभ्य: अन्य:] उनसे अन्य है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ जीवस्य स्वपरद्रव्यप्रवृत्तिनिवृत्तिसिद्धये स्वपरविभागं दर्शयति -
य एते पृथिवीप्रभृतय: षड्जीवनिकायास्त्रसस्थावरभेदेनाभ्युपगम्यन्ते ते खल्वचेतनत्वादन्ये जीवात्, जीवोऽपि च चेतनत्वादन्यस्तेभ्य: । अत्र षड्जीवनिकायात्मन: परद्रव्यमेक एवात्मा स्वद्रव्यम् ॥१८२॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जो यह पृथ्वी इत्यादि षट् जीवनिकाय त्रसस्थावर के भेदपूर्वक माने जाते हैं, वे वास्तव में अचेतनत्त्व के कारण जीव से अन्य हैं, और जीव भी चेतनत्व के कारण उनसे अन्य है । यहाँ (यह कहा है कि) षट् जीवनिकाय आत्मा को परद्रव्य है, आत्मा एक ही स्वद्रव्य है ॥१८२॥