ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 185 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
गेण्हदि णेव ण मुंचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि । (185)
जीवो पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु ॥197॥
अर्थ:
[जीव:] जीव [सर्वकालेषु] सभी कालों में [पुद्गलमध्ये वर्तमान: अपि] पुद्गल के मध्य में रहता हुआ भी [पुद्गलानि कर्माणि] पौद्गलिक कर्मों को [हि] वास्तव में [गृहाति न एव] न तो ग्रहण करता है, [न मुंचति] न छोड़ता है, और [न करोति] न करता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ कथमात्मन: पुद्गलपरिणामो न कर्म स्यादिति संदेहमपनुदति -
न खल्वात्मन: पुद्गलपरिणाम: कर्म, परद्रव्योपादानहानशून्यत्वात् । यो हि यस्य परिणमयिता दृष्ट: स न तदुपादानहानशून्यो दृष्ट:, यथाग्निरय:पिण्डस्य । आत्मा तु तुल्यक्षेत्रवर्तित्वेऽपि परद्रव्योपादानहानशून्य एव । ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात् ॥१८५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
वास्तव में पुद्गलपरिणाम आत्मा का कर्म नहीं है, क्योंकि वह परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित है; जो जिसका परिणमाने वाला देखा जाता है वह उसके ग्रहणत्याग से रहित नहीं देखा जाता; जैसे—अग्नि लोहे के गोले में ग्रहण-त्याग रहित होती है । आत्मा तो तुल्य क्षेत्र में वर्तता हुआ भी (परद्रव्य के साथ एकक्षेत्रावगाही होने पर भी) परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित ही है । इसलिये वह पुद्गलों को कर्मभाव से परिणमाने वाला नहीं है ॥१८५॥
तब (यदि आत्मा पुद्गलों को कर्मरूप परिणमित नहीं करता तो फिर) आत्मा किसप्रकार पुद्गल कर्मों के द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है ? इसका अब निरूपण करते हैं :-