ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 240 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ । (240)
दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ॥275॥
अर्थ:
[पंचसमिति:] पाँच समितियुक्त, [पंचेन्द्रिय-संवृत:] पांच इन्द्रियों का संवर वाला [त्रिगुप्त:] तीन गुप्ति सहित, [जितकषाय:] कषायों को जीतने वाला, [दर्शनज्ञानसमग्र:] दर्शनज्ञान से परिपूर्ण [श्रमण:] ऐसा जो श्रमण [सः] वह [संयत:] संयत [भणितः] कहा गया है ॥२४०॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथागमज्ञानतत्त्वार्थ-श्रद्धानसंयतत्वानां त्रयाणां यत्सविकल्पं यौगपद्यं तथा निर्विकल्पात्मज्ञानं चेति द्वयोः संभवं दर्शयति --
पंचसमिदो व्यवहारेण पञ्चसमितिभिः समितः संवृतः पञ्चसमितः, निश्चयेन तु स्वस्वरूपे सम्यगितोगतः परिणतः समितः । तिगुत्तो व्यवहारेण मनोवचनकायनिरोधत्रयेण गुप्तः त्रिगुप्तः, निश्चयेन स्वस्वरूपेगुप्तः परिणतः । पंचेंदियसंवुडो व्यवहारेण पञ्चेन्द्रियविषयव्यावृत्त्या संवृतः पञ्चेन्द्रियसंवृतः, निश्चयेनवातीन्द्रियसुखस्वादरतः । जिदकसाओ व्यवहारेण क्रोधादिकषायजयेन जितकषायः, निश्चयेनचाकषायात्मभावनारतः । दंसणणाणसमग्गो अत्र दर्शनशब्देन निजशुद्धात्मश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं ग्राह्यम्,ज्ञानशब्देन तु स्वसंवेदनज्ञानमिति; ताभ्यां समग्रो दर्शनज्ञानसमग्रः । समणो सो संजदो भणिदो सएवंगुणविशिष्टः श्रमण संयत इति भणितः । अत एतदायातं – व्यवहारेण यद्बहिर्विषये व्याख्यानं कृतंतेन सविकल्पं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रययौगपद्यं ग्राह्यम्; अभ्यन्तरव्याख्यानेन तु निर्विकल्पात्मज्ञानं ग्राह्यमिति सविकल्पयौगपद्यं निर्विकल्पात्मज्ञानं च घटत इति ॥२७५॥
अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वलक्षणेन विकल्पत्रययौगपद्येन तथा निर्विकल्पात्मज्ञानेन च युक्तो योऽसौ संयतस्तस्य किं लक्षणमित्युपदिशति । इत्युपदिशति कोऽर्थः इति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददाति । एवं प्रश्नोत्तरपातनिकाप्रस्तावे
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब, आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व- इन तीनों की जो सविकल्प युगपतता और उसी प्रकार विकल्प-रहित आत्मज्ञान है- इन दोनों की संभवता--एक साथ उपस्थिति दिखाते हैं --
- [पंचसमिदो] व्यवहार से पाँच समितियों द्वारा समित-संवृत-सम्यक् प्रवृत्ति करने वाले पंचसमित हैं और निश्चय से अपने स्वरूप में अच्छी तरह गत-परिणत-समित हैं ।
- [तिगुत्तो] व्यवहार से मन-वचन-काय तीन के निरोध से त्रिगुप्त हैं, निश्चय से अपने स्वरूप में गुप्त-परिणत-लीन-त्रिगुप्त हैं ।
- [पंचेदियसंवुडो] व्यवहार से पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी विषयों से छूटने के कारण संवृत पचेन्द्रिय-संवृत हैं, निश्चय से अतीन्द्रिय सुख के स्वाद में लीन (होने से) पंचेन्द्रिय-संवृत हैं ।
- [जिदकसाओ] व्यवहार से क्रोधादि कषायों को जीतने से जितकषाय हैं निश्चय से कषाय रहित आत्मा की भावना में लीन जितकषाय हैं ।
- [दंसणणाणसमग्गो] यहाँ दर्शन शब्द से अपने शुद्धात्मा का श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन, तथा ज्ञान शब्द से स्वसंवेदन ज्ञान ग्रहण करना चाहिये; उन दोनों से समग्र-परिपूर्ण-दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण हैं ।
इससे यह निश्चित हुआ- व्यवहार से जो बाह्य विषय में व्याख्यान किया उससे सविकल्प सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र- तीनों की युगपतता ग्रहण करना चाहिये, तथा अन्तरंग व्याख्यान से निर्विकल्प आत्मज्ञान ग्रहण करना चाहिये- इसप्रकार सविकल्प की युगपतता और निर्विकल्प आत्मज्ञान घटित होता है ॥२७५॥