ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 39 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जदि पच्चक्खमजादं पज्जयं पलयिदं च णाणस्स । (39)
ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति ॥40॥
अर्थ:
[यदि वा] यदि [अजात: पर्याय:] अनुत्पन्न पर्याय [च] तथा [प्रलयितः] नष्ट पर्याय [ज्ञानस्य] ज्ञान के (केवलज्ञान के) [प्रत्यक्ष: न भवति] प्रत्यक्ष न हो तो [तत् ज्ञानं] उस ज्ञान को [दिव्यं इति हि] 'दिव्य' [के प्ररूपयंति] कौन प्ररूपेगा? ॥३९॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैतदैवासद्भूतानां ज्ञानप्रत्यक्षत्वं दृढ़यति –
यदि खल्वसंभावितभावं संभावितभावं च पर्यायजातमप्रतिघविजृम्भिताखण्डितप्रताप-प्रभुशक्तितया प्रसभेनैव नितान्तमाक्रम्यक्रमसमर्पितस्वरूपसर्वस्वमात्मानं प्रतिनियतं ज्ञानं न करोति, तदा तस्य कुतस्तनी दिव्यता स्यात् । अत: काष्ठाप्राप्तस्य परिच्छेदस्य सर्वमेतदुपपन्नम् ॥३९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, इन्हीं अविद्यमान पर्यायों की ज्ञानप्रत्यक्षता को दृढ़ करते हैं :-
जिसने अस्तित्व का अनुभव नहीं किया और जिसने अस्तित्व का अनुभव कर लिया है ऐसी (अनुत्पन्न और नष्ट) पर्याय-मात्र को यदि ज्ञान अपनी निर्विघ्न विकसित, अखंडित प्रताप-युक्त प्रभु-शक्ति के (महा सामर्थ्य) द्वारा बलात् अत्यन्त आक्रमित करे (प्राप्त करे), तथा वे पर्यायें अपने स्वरूप-सर्वस्व को अक्रम से अर्पित करें (एक ही साथ ज्ञानमें ज्ञात हों) इसप्रकार उन्हें अपने प्रति नियत न करे (अपने में निश्चित न करे, प्रत्यक्ष न जाने), तो उस ज्ञानकी दिव्यता क्या है? इससे (यह कहा गया है कि) पराकाष्ठा को प्राप्त ज्ञान के लिये यह सब योग्य है ॥३९॥