ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 66 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा । (66)
विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा ॥68॥
अर्थ:
[एकान्तेन हि] एकांत से अर्थात् नियम से [स्वर्गे वा] स्वर्ग में भी [देह:] शरीर [देहिनः] शरीरी (आत्मा को) [सुखं न करोति] सुख नहीं देता [विषयवशेन तु] परन्तु विषयों के वश से [सौख्य दुःखं वा] सुख अथवा दुःखरूप [स्वयं आत्मा भवति] स्वयं आत्मा होता है ॥६६॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैतदेव दृढयति -
अयमत्र सिद्धांतो यद्दिव्यवैक्रियिकत्वेऽपि शरीरं न खलु कल्प्येतेतीष्टानामनिष्टानां वा विषयाणां वशेन सुखं वा दु:खं वा स्वयमेवात्मा स्यात् ॥६६॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, इसी बात को दृढ़ करते हैं :-
यहाँ यह सिद्धांत है कि - भले ही दिव्य वैक्रियिकता प्राप्त हो तथापि 'शरीर सुख नहीं दे सकता'; इसलिये, आत्मा स्वयं ही इष्ट अथवा अनिष्ट विषयों के वश से सुख अथवा दुःखरूप स्वयं ही होता है ॥६६॥