ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 84 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । (84)
जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ॥91॥
अर्थ:
[मोहेन वा] मोहरूप [रागेण वा] रागरूप [द्वेषेण वा] अथवा द्वेषरूप [परिणतस्य जीवस्य] परिणमित जीव के [विविध: बंध:] विविध बंध [जायते] होता है; [तस्मात्] इसलिये [ते] वे (मोह-राग-द्वेष) [संक्षपयितव्या:] सम्पूर्णतया क्षय करने योग्य हैं ॥८४॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ दुःखहेतुभूतबन्धस्य कारणभूता रागद्वेषमोहा निर्मूलनीया इत्याघोषयति --
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स मोहरागद्वेषपरिणतस्य मोहादिरहितपरमात्मस्वरूप-परिणतिच्युतस्य बहिर्मुखजीवस्य जायदि विविहो बंधो शुद्धोपयोगलक्षणो भावमोक्षस्तद्बलेन जीव-प्रदेशकर्मप्रदेशानामत्यन्तविश्लेषो द्रव्यमोक्षः, इत्थंभूतद्रव्यभावमोक्षाद्विलक्षणः सर्वप्रकारोपादेयभूतस्वा-
भाविकसुखविपरीतस्य नारकादिदुःखस्य कारणभूतो विविधबन्धो जायते । तम्हा ते संखवइदव्वा यतो रागद्वेषमोहपरिणतस्य जीवस्येत्थंभूतो बन्धो भवति ततो रागादिरहितशुद्धात्मध्यानेन ते रागद्वेष-मोहा सम्यक् क्षपयितव्या इति तात्पर्यम् ॥८४॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स] - मोहादि रहित परमात्मस्वरूप परिणति से रहित मोह, राग, द्वेष परिणत बाह्यदृष्टिवाले (बहिरात्मा) जीव के [जायदि विविहो बंधो] - शुद्धोपयोग लक्षण भाव-मोक्ष तथा उसके बल से जीव-प्रदेश और कर्म-प्रदेशों का अत्यन्त पृथक् होना द्रव्यमोक्ष है -- इसप्रकार द्रव्य-भाव मोक्ष से विलक्षण सभी प्रकार से उपादेयभूत - प्रगट करने योग्य स्वाभाविक सुख से विपरीत नारकादि दुःखों के कारणभूत विविध प्रकार के बंध होते हैं । [तम्हा ते संखवइदव्वा] - क्योंकि राग-द्वेष-मोह परिणत जीव के इसप्रकार बन्ध होता है, इसलिये रागादि से रहित शुद्धात्मा के ध्यान द्वारा, वे राग-द्वेष-मोह अच्छी तरह नष्ट करने योग्य हैं -- यह तात्पर्य है ।